मनुष्यों को कष्ट क्यों प्राप्त होता है ?
साधक को ईश्वरीय धर्म आचरण करते समय यदि कोई कष्ट प्राप्त हो जाए तो उसे धीर-वीर, और सहनशील बनकर सहन कर लेना चाहिए। अपने कष्टों को दूसरों के प्रति कहना, उनका प्रदर्शन आदि करने से कष्टों का नाश नहीं होता। कष्ट पूर्व जन्मों के पापों के कारण होते हैं। कर्म भोग को खुशी-खुशी भोग लेने से साधक के कर्म लेपों का नाश होता है तथा दूसरे कर्मों का भी नाश होता है। इन कष्टों को सहन करने से साधक विधि भंग के दोष से उत्पन्न अयोग्यता से बच जाता है, परमेश्वर की प्रसन्नता जोड़ता है तथा दूसरी धर्मरूप क्रियाओं के प्रति अधिक दक्षता प्राप्त करता है।
जीव को ईश्वर की आज्ञा पालन करना कष्टप्रद प्रतीत होता है और अपने मन और बुद्धि से अविद्याजनित कार्य करना उसे रुचिकर लगता है। धर्मरूप क्रियाओं में ममता, मोह आदि का मिश्रण करने से परमेश्वर जीव की क्रियाओं को स्वीकार नहीं करते। इस प्रकार ईश्वर की आज्ञा भंग करने से अविधि उत्पन्न होती है, एक अविधि से दूसरी अविधि का जन्म होता है, जिससे साधक के धर्म आचरण में निर्बलता आ जाती है, अदक्षता और अयोग्यता पैदा होती है फिर अयोग्यता के कारण साधक धर्म से गिर जाता है। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि एक बार भगवान श्रीचक्र जी का निवास नेवासा में था।
एक दिन नाथोबा बाहर से थका हुआ आया, सोने पर नींद नहीं आई। साथ में बैठे मार्तण्ड से बोला, आज मैं बहुत थक गया हूँ। मार्तण्ड बोला, तो थोड़ी देर बैठ जाओ। भगवान ने यह सुन उपदेश देते हुए कहा कि किसी को अपना कष्ट बताने का अर्थ है कि तुम कष्ट का निवारण ढूँढ रहे हो। अपना कष्ट किसी को बताना भी एक प्रकार से (कष्ट दूर) करवाना ही है।
साधक को ईश्वरीय धर्म आचरण करते समय यदि कोई कष्ट पैदा हो जाए तो उसे धीर-वीर और सहनशील बनकर सहन कर लेना चाहिए। अपने कष्ट का दूसरों के प्रति प्रदर्शन करना, बखान करना उनसे कष्ट दूर करवाने के बराबर ही है।
भगवान कहते हैं कि तुम महात्मा हो, महात्मा को आए हुए कर्मभोग को हँसी खुशी सह लेना चाहिए। कर्मों को भोगते समय अपने दुःखों या कष्टों का वर्णन या किसी भी प्रकार की शिकायत या आलस्य नहीं करना चाहिए, अथवा दीर्घसूत्री नहीं बनना चाहिए। जिन दुःखों को सहन किए बिना, जिन कर्मभोगों को भोगे बिना ईश्वर प्राप्ति नहीं होगी, उन दुःखों का वर्णन दूसरों के प्रति करने का अर्थ है कि कर्मों का नाश कभी नहीं होना अर्थात् ईश्वर प्राप्ति कभी नहीं होगी। कर्मफलों को न भोगने से, कष्ट न सहन करने से पूर्व संचित कर्म बढ़ते जाते हैं। ईश्वर-प्राप्ति संचित कर्मों का नाश करने से होती है न कि उन्हें जोड़ने से होती है।
अतः साधक को शारीरिक और मानसिक कष्ट सहन कर लेने चाहिए, क्योंकि भगवान ने कहा है औषधि उपचार या दुःख के शमन की अपेक्षा साधक को कष्ट सहन कर लेना चाहिए। इस तरह, इन दुःखों तथा कष्टों को सहन करने से साधक विधि भंग से उत्पन्न अयोग्यता से बच जाता है और परमेश्वर की प्रसन्नता (कणव) जोड़ता है, उसे दूसरी धर्मरूप क्रियाओं के प्रति अधिक दक्षता प्राप्त होती है। इसलिए, भगवान ने कहा है शारीरिक तथा मानसिक कष्टों को सहकर तथा दोषों से बचकर अपना सम्पूर्ण जीवन परमेश्वर को समर्पित करना चाहिए, जो साधक अधीर बनकर प्राप्त दुःखों का वर्णन दूसरों के प्रति करता है तथा दुःखों को सहन नहीं करता, वह कर्मों का नाश नहीं कर पाता और ईश्वर-अवतार की अप्रसन्नता को प्राप्त होता है।
एक बार भगवान श्रीचक्रधर जी का निवास करंजखेड़ में था। एक दिन दादोस (रामदेव) ने भगवान से प्रार्थना की कि भगवन्! आपसे प्राप्त हुई देवता विद्या कुछ क्षीण हो गई है, कृपया इस क्षीणता को दूर करें। अतः भगवान ने उसे एक शॉल बुनने की सेवा दी और सेवा के नियम निरूपण किए और कहा जैसे ही यह शॉल बुनकर तैयार हो जाएगी, वैसे ही तुम्हारी विद्या की कमी दूर हो जाएगी।
जब दादोस ने भगवान को बताया कि शॉल तो बुनी गई, परन्तु विद्या की कमी दूर नहीं हुई तब भगवान ने दादोस को एक मास तक पेड़ के नीचे बैठकर एकान्त में स्मरण करना इत्यादि आज्ञा दी थी, जिनका उसने पालन नहीं किया, अपितु सम्बन्धियों के सहवास में रहकर, सुख साधनों का आश्रय लेकर शॉल बुनी थी।
जीव के साथ अविद्या लगी होने के कारण वह अधोगति, अधोमति और अधोरति की ओर प्रवृत्त होता है। ईश्वर की आज्ञा पालन करना उसे कष्टदायक प्रतीत होता है और अपने मन और बुद्धि से अविद्याजनित कार्य करना उसे रुचिकर लगता है। एकान्त में बैठकर एकाग्र मन से स्मरण करना उसे श्मशान में जाकर बैठने जैसा लगता है। सम्बन्धियों, विषय भोगों तथा सुखरूप साधनों का आश्रय लेकर जीव धर्मरूप क्रियाओं से हटता चला जाता है, जो धर्मरूप क्रियाएं ममता, मोह, आसक्ति, अहंकार, मान-प्रतिष्ठा इत्यादि से मिश्रित हैं, परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करते।
प्रभु प्रेमियों ! भगवान ने अपने ब्रह्मविद्या शास्त्र में जगह-जगह पर बताया है कि परमेश्वर तो परमेश्वर की आज्ञा पालन करने से ही मिलता है, परमेश्वर तो परमेश्वर के बताए हुए रास्ते से ही मिलता है और आदेश दिया है कि साधक को ईश्वर की आज्ञानुसार ही आचरण करना चाहिए।
परन्तु दुर्भाग्यवश जीव राजसी, तामसी होने के कारण ईश्वर की आज्ञा पालन नहीं कर पाते। राजसी-तामसी पुरुष विषय भोगों, निद्रा, आलस्य, प्रमाद आदि की ओर आकर्षित होते हैं, उन्हें किसी सात्त्विक क्रिया, धार्मिक क्रिया करने के लिए कहा जाए तो वह मुँह फेर लेते हैं और फिर कई दिनों, महीनों तक नजर नहीं आते।
भगवान बताते हैं कि ऐसे लोग आँखों की पुतलियाँ निकाल कर देने जैसा कठिन कार्य तो कर पाते हैं। परन्तु ईश्वर की आज्ञा पालन नहीं कर पाते। ईश्वरीय आज्ञाओं का उल्लंघन करने से साधक महान दोषों को अर्जित कर बैठता है, जैसे वचन भंग का दोष, विधि भंग का दोष, अविधि दोष इत्यादि।
भगवान बताते हैं कि यदि साधक ईश्वरीय आज्ञाओं का उल्लंघन करता है तो वह साधक की मृत्यु ही है। आज्ञा न पालन करने से अविधि उत्पन्न होती है, एक अविधि से अविधि का जन्म होता है और इस तरह अविधियाँ बढ़ती जाती हैं, जिससे साधक के धर्म आचरण में निर्बलता आ जाती है, अदक्षता पैदा होती है और फिर अयोग्यता के कारण साधक धर्म आचरण नहीं कर पाता, जिसको साधक की मृत्यु के समान कहा है।
भगवान कहते हैं कि हमारे (ईश्वर के) कथनानुसार आचरण करने की अपेक्षा तुम (साधक) लोग मृत्यु पसंद करोगे, किन्तु आचरण न कर सकोगे। बिना आचरण के साधक धर्म में टिक नहीं सकता।
जीव राजसी और तामसी होने के कारण ईश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं करता। राजसी-तामसी पुरुष विषय भोगों, निद्रा, आलस्य और प्रमाद की तरफ आकर्षित होते हैं। धार्मिक क्रियाओं की ओर से मुँह फेर लेते हैं, अथवा असावधानी बरतते हैं और दोषों के भागी बनते हैं। इसलिए मनुष्य को कष्ट प्राप्त होते हैं। यदि आप चाहते हो कि हमें कष्ट प्राप्त न हो तो आप सब अधिक से अधिक भगवान की आज्ञा का पालन कर ज्ञान अनुसार आचरण करें, दूसरों को सदमार्ग पर लगाएं।
Hi
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