सुख-सन्तोष का जीवन कैसे जिएं? sukh santosh jivan

सुख-सन्तोष का जीवन कैसे जिएं? sukh santosh jivan

 सुख-सन्तोष का जीवन कैसे जिएं?


शास्त्र कहा है- हे मनुष्य ! यदि तुमने इस जगत में रहते हुए ही आत्मतत्व जान लिया तो ठीक है, नहीं जाना तो महाविनाश है। कितना सुन्दर उपदेश केनोपनिषद में किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य जीवन एक सुन्दर सुयोग है, जो हमें सत्कर्म के फलस्वरूप भगवान ने दिया है।

हमारे सत्-शास्त्र एवं धर्मग्रन्थ जीवन दर्शन से भरे पड़े हैं, जो हमें जीवन-निर्माण की दिशा देते और बताते हैं कि सुख-सन्तोष का जीवन कैसे जिया जाए। यदि उनका ठीक से अनुकरण करें तो अन्य विचारों और उपदेशों की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। हमारे ऋषिगणों की एक प्रार्थना है - "सर्वे भवन्तु सुखिनः" वे केवल अपने लिए नहीं अपितु सबके लिए सुख की कामना करते हैं। सामाजिक उदारता बनाए रखने का उनका यह सन्देश सबके लिए है। कहते हैं -

सुख दीन्हे सुख होत है, दुख दीन्हे दुख होय । 

यदि हम दूसरे के भी हित की भावना लिए जीवन में चलते हैं तो हमारी बहुत सी कठिनाइयाँ अपने आप दूर हो जाएंगी और हम प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। इस प्रकार हमारे धर्मग्रन्थ श्रेष्ठ जीवन जीने का सन्देश देते हैं किन्तु आज हम उन्हें उपदेश के रूप में तो स्वीकार करते हैं, पर उनको ग्रहण करने और उन पर चलने को तैयार नहीं हैं। जीवन तो हम अपने ढंग से, अपने विचारों और स्वार्थ को लेकर ही जीना चाहते हैं जो गलत है। 

मेरे भाइयों ! इसे समय का अभिशाप ही कहा जा सकता है अज्ञानतावश मनुष्य सोचता है कि जब पास में धन-सम्पत्ति हो तो सुख सन्तोष से जीवन जिया जा सकता है। परन्तु इस सोच को शास्त्र मान्यता नहीं देते हैं। महाभारत अनुशासन पर्व में कहा है अर्थानामार्जने दुःख मार्जितानां तु रक्षणे। नाशे दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थं भाजनम्" अर्थात् धनोपार्जन में दुःख होता है, धन की रक्षा करने में भी दुःख होता है, धन के व्यय एवं नाश में भी दुःख होता है। इसलिए शास्त्र कहते हैं कि, ऐसे दुःख को पात्र करने वाले अर्थ को धिक्कार है।


वस्तुतः जो अर्थ के पीछे पड़े हैं, उनमें प्रायः साधुता दुर्लभ है, क्योंकि द्वेष से ही अर्थ की प्राप्ति होती है। यह भी सत्य है कि इस प्रकार से प्राप्त अर्थ कालान्तर में प्रतिकूल ही हो जाना है। इसलिए ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि अर्थ कभी किसी एक के पास स्थिर होकर नहीं रहता। अतः साधक को चाहिए कि वे अपने पास की सामग्री का उपयोग दान धर्म तथा परोपकार कार्य में करे। आगे प्रवचन में बाबाजी ने कहा कि

विष्णु गुप्त चाणक्य जी का अन्तिम समय नज़दीक आया, उस समय उन्होंने अपने शिष्य समुदाय को पास बुलाया और अपने अन्तिम समय का सन्देश देने लगे। उस समय शिष्य समुदाय बहुत ही दुःख करने लगा, उस समय कुछ शिष्यों ने जिज्ञासा व्यक्त करते हुए पूछा- आचार्य जी ! हमें मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त कैसे हो? तथा सुख सन्तोष से जीवन कैसे जिएं? इसका उपदेश करो। 

चाणक्य जी ने अपना मुख खोला और कहा- मेरे मुँह में (मुख में) देखो ! शिष्य समुदाय ने मुख के अन्दर देखा परन्तु कुछ अर्थ बोध नहीं हुआ। उस समय चाणक्य जी के आज्ञाकारी शिष्य नीलांबर ने कहा गुरुजी ! आपके मुँह में हमें जिव्हा (जीभ) - दिखायी दी, परन्तु आपको क्या कहना है, इसका अर्थबोध हमें नहीं हुआ। 

चाणक्य जी ने कहा- यह जिव्हा (जीभ) मैं आपको दिखाना चाहता हूँ और इस जिव्हा द्वारा मैं आपको कुछ ज्ञान कराना चाहता हूँ। वत्स ! आप अपना जीवन सुख-सन्तोष पूर्वक जीना चाहते हो तो इस जिव्हा जैसे कोमल और मधुर आचरण करना, अपितु दाँत जैसा नहीं क्योंकि यह कोमल जीभ मेरे जन्म के साथ आयी और मृत्यु के समय भी मेरे साथ जायेगी। परन्तु ये दाँत जन्म के बाद आए और उस समय बाल्यावस्था में भी मुझे दुःखदायी हुए और मृत्यु से पहले एक-एक करके मुझे दुःख यातना देने के बाद नष्ट हो गये। इसका सिद्धान्त समझाते हुए बाबाजी ने कहा कि - इससे यह स्पष्ट होता है कि साधक सदैव अपनी वाणी द्वारा समाज को मधुर वचन से सुख प्रदान करे न कि दाँत जैसा कठोर वचन से समाज को दुःख प्रदान करे। ऐसा आदर्शमयी सफलता प्राप्त आचार जब साधक करेगा तब उसे अपने जीवन में सदैव सुख-सन्तोष प्राप्त होगा,

इसमें कोई सन्देह करने की आवश्यकता नहीं। अतः जीभ जैसा कोमल रहना चाहिए। आचार्य विष्णुगुप्त का सन्देश आज वर्तमान समय में कितना उपयोगी है यह तो अनुभव से समझ में आ सकता है।

दुःखी होने का एक बड़ा कारण यह भी प्रतीत होता है कि, मनुष्य को लगता रहता है कि जब वह इस दुनिया से चला जायेगा तो उसका कोई नाम नहीं रहेगा। उसे लगता है कि वह बहुत बड़ा आदमी हो गया होता तो उसका नाम होता, इसलिए उसे मन ही मन असन्तोष होता है। वह भूल जाता है कि आज तक दुनिया के इतिहास में लाखों की संख्या में बड़े-बड़े लोग हो चुके हैं, परन्तु कौन किसको जानता है, यह नाम की हस्ती एक दिन तो मिटने वाली ही है। नाम बड़ाई की चाह दुःख का महान कारण है।

जिस सज्जन के पास बहुत सम्पत्ति है उसे लोग कहते हैं कि इस सज्जन के पास कारुका खनिज (सम्पत्ति) है। राजा कारू के पास इतनी सम्पत्ति थी कि उसके धन की तिजोरी की चाबी उठाने के लिए चालीस हाथी लगते थे। इसलिए राजा कारू को बहुत ही अभिमान था कि मैं कितना धनवान हूँ। 

एक दिन 'यूनान' के तत्वज्ञानी सोलन ने उसे कहा राजन ! आप धन-सम्पत्ति का निरर्थक अभिमान करते हैं। जगत में सुखी मनुष्य तो वह है जिसका अन्तिम क्षण शान्तिपूर्वक गुजरता है। परन्तु राजा है को यह बात मान्य नहीं थी। एक दिन राजा कारू को सायरस के राजा ने बन्दी बनाया और राजा कारू को मृत्युदण्ड देने का आदेश दिया। तब राजा कारू को तत्वज्ञानी सोलन का उपदेश याद आया और वह आत्मचिन्तन करने लगा, जब राजा सायरस को यह बात समझ में आयी और राजा कारू को पश्चाताप हुआ तो उसे मुक्त किया।

मेरे प्रभु प्रेमियों ! आज धन-सम्पत्ति के लिए, जमीन-जायदाद के लिए, सत्ता तथा मान-मान्यता के लिए जो युद्ध पुकारा जा रहा है इसके लिए निरपराधी इन्सानों की हिंसा हो रही है। यह जड़-सम्पत्ति आज तक किसी की हुई ही नहीं और भविष्य में भी किसी की भी नहीं होने वाली। जो साधक इस अनमोल रहस्य को जान गया उसका निश्चित ही अन्तिम क्षण सुख सन्तोषपूर्वक प्राप्त होगा।


साधक का उद्धार करने के लिए ही भगवान ने अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थिति का विधान किया है। साधना की दृष्टि से मनुष्य जीवन में अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थिति का समान महत्व है। अनुकूल परिस्थिति के सदुपयोग से दुःख, चिन्ता, भय, तनाव सदैव के लिए मिटने लगते हैं। और हमें परम शान्ति, जीवन मुक्ति तथा भगवद्भक्ति प्राप्त होने का मार्ग का दर्शन होता है। वैसे ही प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग करने से तत्समान लाभ साधक को प्राप्त होता है। इसलिए साधक को विवेकपूर्वक अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग करने का प्रयत्न करना चाहिए।

सदा प्रसन्न रहने वाले मनुष्य से किसी ने पूछा- क्यों भाई ? आप मेरे एक प्रश्न का उत्तर देंगे ? उस मनुष्य ने कहा- अवश्य दूँगा, पूछिए ! बाजार में मन्दी का वातावरण है, आपको बीपी की तकलीफ है, स्वजनों में आपस में कई बार वैमनस्य पैदा हो जाता है और जीवन में अकल्पित परेशानियों का आगमन भी होता रहता है, फिर भी मैंने कभी आपके चेहरे पर उदासी नहीं देखी तो भाई इसका रहस्य क्या है ?

उस प्रसन्नचित्त मनुष्य ने कहा-बात ऐसी है कि रोज अमृत बेला में उठकर मैं स्वयं अपने आपसे पूछ लेता हूँ, बोल ! "तुझे आज प्रसन्न रहना है या उद्विग्न बनना है ?" मेरा मन कहता है "प्रसन्न ही रहना है!" बस ! इस लक्ष्य को याद रखकर ही मैं अपना पूरा दिन बिताता हूँ। यदाकदाचित् उद्विग्न बनाने वाले यदि कोई निमित्त आये तो भी मैं प्रसन्न रहने का निश्चय कर लेता हूँ। यही है मेरी सदाबहार प्रसन्नता का एक मात्र रहस्य।

सफलता को प्राप्त करना हमारे बस में नहीं है, किन्तु प्रसन्नता को टिकाए रखना तो शत-प्रतिशत हमारे बस में है। इस वास्तविकता को जानने के बाद भी मनुष्य ऐसी पराधीन सफलता पाने हेतु जान की बाजी लगा देता है जबकि स्वाधीन प्रसन्नता को अनुभूति का विषय बनाने के लिए मानव निष्क्रिय उद्विग्न बनकर बैठा है। डरते रहो यह जिन्दगी बेकार न हो जाए।

सपने में भी किसी जीव का अपकार न हो जाए। पाप, अन्याय करके नरकों के दुःखों की तैयारी कर लेना, कितनी बड़ी हानि की बात है। परमेश्वर कृपा से मानव शरीर प्राप्त हुआ तथा ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया तो, क्यों ऐसा सुन्दर सुयोग खोकर पाप संग्रह करें ? नहीं, अभी धौंकनी चल रही है, आँखें टिमटिमा रही हैं। अभी चेत जाए तो अभी काम कर सकते हो। भाइयों "सुख सन्तोष से जीवन जीने का प्रयत्न करो।" अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थिति में सदैव विवेक से कार्य करें। सत्संग की समाप्ति पर सत्संग में आए हुए सभी भक्त जनों को प्रसाद वितरण किया गया।


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