श्रीमद्भगवद्गीता - Mahanubhav panth dnyansarita

श्रीमद्भगवद्गीता - Mahanubhav panth dnyansarita

 श्रीमद्भगवद्गीता 

महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता 


सर्वाणीन्द्रिय कर्माणि प्राण कर्माणि चापरे ।

आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञान दीपिते ।।

4/27।। 

इन्द्रियां करें जो चेष्टाएँ वह ईन्धन इन्हें बनाते है। केवल ईश्वर के चिन्तन की अग्नि में स्वांस जलाते है। कुछ योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरुप अग्नि में हवन किया करते हैं।

भावार्थ: - परमात्मा के समिप पहुँचने की क्रियाओं को योग साधना कहते है "युज्" धातु का अर्थ है जोड़ना। यह मन जन्म जन्मातरों में परमात्मा से दूर रहकर विषय विकारों में भटकता रहा, विविध प्रकार के नरकों में दुःख भोगता रहा अतः ज्ञान होने पर भी पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुसार अथवा 'मतित्रय (नीचे की ओर जाना, नीच विचारों को ग्रहण करना और हीन वस्तुओं के प्रति स्नेह करना) के कारण इसे ऊपर की ओर ले जाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। 

मन, इन्द्रियां और शरीर ही आत्मा के बड़े भारी दुष्मन है इन्ही के कारण आत्मा परमानन्द का मार्ग त्याग कर पतन के राह पर चलना शुरु कर देता है। शरीर इन्द्रियां और अन्तःकरण का संयम करके परमात्मा का ध्यान लगाना ही "योग" साधना है। अन्तःकरण को संयमित करने की अनेक प्रक्रिया है, इन्द्रियों को संयमित करने की अनेक विधियाँ है और शरीर को संयमित करने के लिए भी अनेक नियम है। 

जिस साधक को जो नियम या विधि अच्छा लगता है वह उसका पालन करना शुरु कर देता है। योग साधना में नियमित आहार का बड़ा महत्व माना है। जो साधक अपने आहार को नियमित नहीं कर सकता उसे योग साधना में सफलता नहीं मिलती। जिसका आहार पर संयम होता है उसी की इन्द्रियाँ संयमित होती है उसका शरीर भी संयमित होता है। जिसका शरीर संयमित होता है उसके पाण, अपाण आदि प्राणों की प्रक्रिया भी संयमित हो जाती है।

हमारे ब्रह्मविद्या शास्त्र में आहार के बारे में बतलाया है, उतना ही पानी पीना चाहिए कि जिससे प्यास बूझ जाए परन्तु तृप्ति न हो और भोजन के बारे में कहा है कि एक कण भी कम या अधिक न खाएँ।

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।

स्वाध्याय ज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।।4/28।। 

यज्ञ किसी का परोपकार वह इसमें द्रव्य लुटाता है। और कोई धर्म के पालन को इक यज्ञ समझता जाता है। अष्टांग योग हिंसा तजना दोनों ही यज्ञ कहाते है। जो शास्त्र पढ़ें गानों वह भी इक सुन्दर यज्ञ रचाते है। कुछ व्यक्ति द्रव्य सम्बन्धी यज्ञ करते हैं, कुछ व्यक्ति तपस्या रुप यज्ञ करते हैं तथा कुछ व्यक्ति नाना विध यज्ञ करते हैं। और कुछ अहिंसा आदि कठोर व्रत करने वाले प्रयत्नशील पुरुष स्वाध्याय रुप ज्ञानयज्ञ करते हैं।

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायाम परायणाः ।।4/29।। 

अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति । 

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपित कल्मषाः ।।4/30।।

दोहा : - करके प्राणायाम जो रोकें प्राण अपान ।

यह भी उनका यज्ञ है सुन हें मित्र सुजान ॥

थोड़े आहार से कई पुरुष प्राणों में प्राण जलाते हैं बस इसी यज्ञ द्वारा उनके सब पाप नष्ट हो जाते हैं। कुछ योगीजन प्राणायाम के द्वारा प्राण, अपान की गति को रोक कर मन को स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं। कुछ योगीजन अल्पाहार करके शरीर पर नियन्त्रण करके मन को परमार्थ की ओर लगाने का यत्न करते है। 

उपरोक्त विविध प्रकार के साधन बतलाए हैं प्रत्येक योगी के अन्तःकरण में परमात्मा की ओर मन को लगाने का ही लक्ष्य होता है भले ही उन्हें परमात्मा के विषय में जानकारी न हो। जितना-2 मन को संसार के विषय-विकारों से हटा कर परमार्थ की ओर लगाया जाता है उतने- 2 ही पाप कर्मों का नाश होता है। सारांश: - जो व्यक्ति संसार में मानव देह को प्राप्त करके भी मुक्ति के लिए यत्न नहीं करता, संसार के विषय-विकारों में ही आसक्त रहता है उसके समान आत्मघात करने वाला दूसरा कोई नहीं है।

नोट:- उपरोक्त यज्ञों के प्रकार बतलाए हैं त्रिगुणात्मक देवता भक्ति के हैं। परमेश्वर की भक्ति में कठोर व्रतोंका विधान नहीं है। अपनी आत्मा को कष्ट पहुँचाना भी पाप माना गया है। दूसरों को कष्ट पहुँचाना तो पाप है ही।

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । 

नायं लोकोऽस्त्यस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ।।4 / 31।। 

पीते हैं मुक्ति का अमृत इन यज्ञों के द्वारा योगी । पाकर उस ईश्वर को जग से पाते हैं निस्तारा योगी ।

हे श्रेष्ठ अर्जुन यज्ञ से बचे हुए प्रसादरूप अमृत सेवन करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है? अर्थात् यज्ञ न करने वाले होता है न परलोक में ही। मनुष्य को न इस लोक में सुख प्राप्त होता हैं। 

भावार्थ: - उपरोक्त अनेक विध यज्ञों में शेष घृत आदि पदार्थ नहीं होते। यज्ञ शिष्ट का तात्पर्य यही है कि वेदादि ग्रन्थों में त्रिगुणात्मक यज्ञों का वर्णन किया है उनका अनुष्ठान करने पर “साधक "के अन्तःकरण में प्रसन्नता होती है, वही अमृत है, उस अमृत का सेवन करने से "साधक" धीरे-2 सकामता से निष्काम कर्म की ओर अग्रसर होता है। धीरे-2 निष्काम भूत भजन की क्रिया हो जाने पर ज्ञान का अधिकार प्राप्त होकर युक्त मानव देह में "ब्रह्मविद्या" का ज्ञान हो जाने पर उस ज्ञान के अनुसार आचरण करके "साधक" परमानन्द को प्राप्त करता है।


Thank you

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post