निर्वेद स्तोत्र - हिंदी अर्थ - nirved stotra Mahanubhav panth dnyansarita

निर्वेद स्तोत्र - हिंदी अर्थ - nirved stotra Mahanubhav panth dnyansarita

पंडित श्रीदायंबासकृत

निर्वेद स्तोत्र - हिंदी अर्थ - 

nirved stotra Mahanubhav panth dnyansarita 



विज्ञान शक्ती अवतरले : बहुत दैत्य निर्दाळिलें :

विश्वरूप प्रगटोनि अर्जुन देवा बोधिले : तया नमन श्रीकृष्ण राया || निर्वेद स्तोत्र -०१ ||

विश्लेषक - श्रीसुदर्शन महाराज कपाटे महानुभाव

विश्लेषण -

विज्ञानं शक्ति युक्त अवतार लेकर  कार्य करके अनेको दैत्यो का विनाश करने वाले एवं  विश्वरूप दिखाकर अर्जुन देव को ज्ञान देने वाले श्रीकृष्ण चंद्र भगवान् को मैं नमन करता हु ।


जो चहुयुगीचा अधिष्ठात्री : अमोघा सिद्धि जयाचा घरी :

तो मातापुरी राज्य करी : तया नमन श्री दत्तात्रेया_|| निर्वेद स्तोत्र -2 ||

विश्लेषण -

जो चारो युगों में क्रीड़ा करते है ।

जिनके पास सभी सफल सिद्धिया है ।

वो माहुर गढ़ में राज्य करते है । उन श्री दत्तात्रेय महाराज जी को मैं नमन करता हु ।।

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जे अवधूत वेषे क्रीडा करीती:

सुपी पुंजे भरोनी गोमती मध्ये घालिती :

बावना पुरुषा विद्या दान देती :

तया नमन श्रीचक्रपाणी || निर्वेद स्तोत्र _३ ||

जो अवधूत यानी साधु भेष में द्वारका के धरती पर लीला करते हुए गलियो का कचरा झाड़ू से एकत्रित करके सूप अर्थात छज्ज में भरकर गोमती नदी में डालते थे और जिन्होंने बावन पुरुषो को स्थूल विद्या का दान दिया है ऐसे श्रीचक्रपाणी प्रभु को मैं नमस्कार करता हु || 

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जो शरणांगताचा वज्र पंजरू: आर्ताचा उदारू :

तो नमीन कृपेचा सागरू: श्री सर्वेश्वरू ।।५।।

जो शरण में आने वाले की रक्षा वज्र के पिंजरे के तरह  करते है और आर्तवंत की पुकार सुनकर संकटों को दूर करते है सारे संसार पर जिनका नियंत्रण है ऐसे कृपाके सागर श्रीचक्रधर स्वामीजी को मैं नमस्कार करता हु।।

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जो भंडारी ब्रम्हविद्येचा : सारथी वैराग्याचा :

बाप आचार्याचा : नमींन  नागार्जुन -६ 

विश्लेषण _

जो ब्रम्हविद्या का खंजाजी (केशियर ) है तथा वैराग्य के राह पर चलने वाले जिवो का रथ वाहक है और सभी आचार्य जनो का बाप अर्थात उनसे श्रेष्ठ है उन संतश्रेष्ठ आचार्य श्री नागदेव जी को मै नमस्कार करता हु। 

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तया नगार्जूनाचा उपकारू :

म्हणौनि महानुभावी जानितला विचारू :

ये ब्रम्हवीद्येचां निर्धारु : नाही आणीके ठाई :७:

विश्लेषण

उन श्री नागदेव जी के परोपकार स्वरूप , महान अनुभव सहित हमे अज्ञानी जीओ को ब्रम्हविद्या के गहन तत्वों का ज्ञान प्राप्त हुआ है । एक परमेश्वर धर्म के विरहित दूसरे किसी भी धर्म में इस ईश्वर का ज्ञान करवाने वाली उसके प्रेम का मार्ग बताने वाली ब्रह्मविद्या का ज्ञान नहीं है ।

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ईश्वर ज्ञान निर्धारिता : भुल पडलीसे वेदांता :

आणि काही सिद्धांता : ठाऊकचि नव्हे :8:

विश्लेषण _ 

ईश्वर को और उसके ज्ञान को समझने वाले की कोशिश में संसार के सभी वेदांत शास्त्र भ्रम में पड़ गए है  सभी वेदांत में केवल इतना ज्ञान है की एक महान शक्ति है जो इस संसार की रचना करवाकर स्तिथि कायम रखते हुए संहार करवाती है । परंतु वह शक्ति कैसे काम करती है यह जानकारी नहीं है । एक वेदांत को छोड़कर दूसरे ग्रंथों में तो परमेश्वर का और उनकी ब्रम्हविद्या का लेश मात्र ज्ञान नहीं है ।

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जे अन्यथा ज्ञाने ग्रासिले : अभिलासे बांधीले :

ते मायाजळी बुडाले : तेथे तृष्णा बहुत :9:

विश्लेषण _

जिसको अन्यथा ज्ञान ने निगल लिया है और जिसको अभिलाषा का बंधन पड़ा है ऐसे सभी पुरुष माया रूपी समुद्र में डूब गए  क्योंकि वहां तृष्णा बहुत है ।

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जेणे अहंकाराचा घोडा वघळला :

मान मान्यतेचा अभिलासू वाढीन्नला :

तो पुरुषू आचारे मैळला : तेथ ज्ञानाचा संदेहो :10:

विश्लेषण _

जो पुरुष अहंकार के घोड़े पर सवार हो गया है और जिसकी मान मान्यता मुझे ही मिले यह अभिलाषा याने इच्छा बढ़ गई है । वह पुरुष ईश्वर निरूपित आचार से गिर गया है और इस दुर्गुण के कारण  उसके अंदर ब्रह्मविद्या ज्ञान है या नही इस विषय में संदेह है  । क्यों की ब्रम्हविद्या  ईश्वर निरूपित शास्त्र है जिसमे कहा है की अहंतेचे मूल अहम् भाव का खात्मा करना अति आवश्यक है किंकर धर्म का पालन करना अति आवश्यक है .....

असो येनेविण काई राहिले : जे जयाचे हरतले : 

ते कवणेपरी निर्धारीले : ते विचारू आता :११:

विश्लेषण _ 

कवि श्रीदायंबास (लेखक) कहते है इस विषय को अब मैं यही छोड़ता हु क्यों की इसके बिना मेरा कोई कार्य रुका नही है जिसका जो वह देखेगा हमे क्या करना है यह हमे देखना है और मैं अब हमे क्या करना है इस विषय में चर्चा करता हु ।

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निर्वेद कमळीनी विकासू: साधनी नाही अभ्यासू : 

तरी झाडेसी करावा सहवासू : निरंतर पै ।।13।।

विश्लेषण _

साधक के अंत:करण में निर्वेद रूपी कमल का फूल विकसित हो गया है परंतु साधना करने का अभ्यास नही हो फिर भी उसने सतत पेड़ के नीचे ही रहना चाहिए :  यानी हम कुछ कर नही सकते आचरण हमारे लिए नही है ऐसा मिथ्या विचार करके साधक ने खुद का नुकसान नहीं करना चाहिए आचरण हेतु प्रयत्नशील रहना चाहिए ।

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जेणे काम क्रोधाते निर्दाळीले : उपाधिते दवडिले :

सर्व सुखाते सांडिले : ज्ञानाचेनि बळे :14:

विश्लेषण ---

जिस पुरुष ने काम क्रोध को जित लिया है तथा उपाधि का त्याग कर दिया है ज्ञान के द्वारा जिसने सभी सुखो को छोड दिया है

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जयाचे अज्ञान निरसले : अन्यथा ज्ञान फिटले :

ज्ञान प्रकाशले : चहू पदार्थाचे :१५:

विश्लेषण_

जिसका अज्ञान नष्ट हो गया है तथा अन्य था ज्ञान दूर हो गया है और चारो ही पदार्थों का ज्ञान प्रकाशित हो गया है ।

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|| निर्वेद स्तोत्र ||

एक एक पदार्थ विस्तारीता : पर्वत न पुरेची लिहिता :

आवाका परिसावा जाणता : तोकड्या माजी :16:

विश्लेषक _ महात्मा श्रीसुदर्शन 

विश्लेषण_____

जीवन के दोषों का और हमारे कर्मों का हिसाब करते हुए अगर एक एक पदार्थ का विस्तार पूर्वक वर्णन किया जाए तो लिखते हुए सारी पृथ्वी की स्लेट (कागज) और पर्वतों की लेखनी से भी नही लिखा जायेगा , इसीलिए समझदारो ने सारांश में समझना चाहिए और कर्मों के प्रति सजग होकर हर कार्य करना चाहिए ।

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जेणे ईश्वर धरिलासे मनी तया सुख नाही साधनी |

अप्राप्ती भावी असन्नीधानी 

नाश होय कर्माचा || निर्वेद १७ ||

विश्लेषण...

जिसने ईश्वर को मन में बसा लिया है  उसे साधनों द्वारा सुख की प्राप्ति नही होती  जो हमेशा ईश्वर असन्निधान में ईश्वर प्राप्ति हेतु  प्रयत्नशील रहता है उससे  उसके कर्मों का नाश होता है ।।

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जैसे चंद्रे विन चकोरासी : मेघेविन चातकासी : 

कांते विण विहरणीसी : सुखची नाही :18:

विश्लेषक _ महात्मा श्री सुदर्शन .

विश्लेषण __

वह साधक दुख किस प्रकार से करता है ? लेखक उदाहरण देकर बताते है की जिस तरह चंद्रमा के अभाव में चकोर पक्षी बिखलाता रहता है या वर्षा के बादलों से वर्षा न होने पर चातक पक्षी चिल्लाता रहता है अथवा विरह व्याकुल स्त्री पति के बिना तड़पती रहती है खान पान उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता । इसी प्रकार से हमे भी ईश्वर के न मिलने पर और हमारे प्रयत्न न करने पर हमेशा ही दुःख करना चाहिए ...

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तरी मायेविन बाळकासी : उदकेवीण मिनासी :

तैसे देवे वीण भक्तासी : उरणेची  नाही :१९:

विश्लेषण __

जिस तरह माता के बिना बालक रुदन करता है अथवा पानी के बिना मछली जीवित  नहीं रह सकती , उसी तरह प्रेम संचारी भक्त भगवान् के वियोग में जीवित नहीं रहता प्राण त्याग कर देता है 

उपरोक्त श्लोक में लेखक हमे यह बता रहे है की ईश्वर का वियोग हमे कितना है यह जानने का वक्त यही है है व्यक्ति ने खुद से सवाल करना चाहिए की मुझे क्या चाहिए और उस हेतु मेरे क्या कर्म है ? इस पर गौर करने से हमे मिले सुख का हमे महत्व पता चलेगा और दुःख का महत्व कम हो जाएगा ।

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विश्लेषक :- म. सुदर्शन महानुभाव कपाटे 

Thank you

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