दोष दृष्टि का त्याग - doshdrishti ka tyag महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता

दोष दृष्टि का त्याग - doshdrishti ka tyag महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता

 13-6-2022

दोष दृष्टि का त्याग - महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता - Mahanubhavpanth dnyansarita 

संसार के प्रत्येक व्यक्ति वस्तु या प्राणी में गुण तथा अवगुण दोनों ही होते हैं। कहीं गुणों की मात्रा अधिक होती है और कहीं पर दोषों की संख्या अधिक होती हैं। फिर भी भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी ने अर्जुन को कहा है कि तेरी दृष्टि दोष रहित है इसलिए में तुझको विज्ञान के सहित कान बतलाऊंगा जिसको समझ लेने पर तु अशुभ कर्मों से मुक्त हो जाएगा। अर्थात् दोष दृष्टि का त्याग किए बिना परमेश्वर ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं है।

ज्ञान प्राप्ति के बिना संसार से विराग नहीं होता और जब तक संसार विराग नहीं होता परमेश्वर की भक्ति की प्राप्ति भी कठिन ही नहीं असंभव है। इसी लिए बड़े-२ विद्वान-सन्तो ने बार बार समझाया है कि किसी के अवगुणों की ओर मत देखो। अवगुणों की ओर देखने से उसके प्रति घृणा की भावना उत्पन्न होती है। घृणा के आने पर मनुष्य निन्दा करना शुरु कर देता है। निन्दा करने से होता यह है कि जिसकी निन्दा की जाती है उसके पान का हिस्सा निन्दा करने वाले को मिलता है । अतः किसी ने कहा है कि भले ही हजारों पापियों का मिलाप हो जाए परन्तु एक ही निन्दक न मिले क्योंकि एक निन्दक के सिर पर असंख्य पापों का भार होता है।

आदर्श पुरुष विद्वद् रत्न केशिराज व्यास ने अपने मूर्ति प्रकाश ग्रन्थ में लिखा है कि यदि कोई दोषों का आचरण कर रहा है वह तो दोषाचरण करने से धर्म से गिरेगा ही परन्तु दोषाचरण न करते हुए भी निन्दक व्यक्ति धर्म से गिर जाता है । अतः जिस तरह सर्व-दृष्टा परमेश्वर सभी जीवों के अवगुणों को भी चुप रहता है उसी तरह भक्तों को भी चुप रहने में ही भलाई है।

एक बार का प्रसंग है, एक श्रद्धालु माता साधा बाई नदी पर स्नान करने के लिए गई थी, वहां पर रिंगनी के पौधे थे जिन पर पीले फूल लगे हुए थे तोड़कर ले आई और स्वामी को अर्पित किए। रिंगनी के फूलों में खुशबू नहीं होती परन्तु परमेश्वर तो श्रद्धा-भाव का भोक्ता है। साधा बाई के दिल में इतनी श्रेष्ठ श्रद्धा थी कि मानो वह सोने के फूलों से ही स्वामी का पूजन कर रही थी। स्वामी ने उसके पवित्र प्रेम को समझ कर कहा बाई ! क्या तुम स्वर्ण पुष्पों से हमारा पूजन कर रही हो ? साधा बाई ने कहा जी जी !

उस समय एक दुसरी माता अपनी कुवारी लडकी से साथ भगवान के दर्शन के लिए आई थी। उस बाई की  लड़की ने श्रीचक्रधर स्वामी जी के मस्तक पर से एक फूल उठा कर कहा ये फूल तो रिंगनी के हैं, सोने के नहीं। यह सुनकर उसकी माता ने क्रोध में आकर कहा, महाराज यह लड़की तो बहुत ही खराब है। कहते हुए उसके अवगुणों की यादी सुनाना आरम्भ किया तो स्वामी ने उसे चुप कराते हुए आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि बाई ! तुम तो माता हो। माता के दिल में तथा हमारे (परमेश्वर के) दिल में तो सभी जीवों के दोष समा जाते हैं। 

बाई ! इन जीवों के दोष हमारे सामने (अथव। ज्ञानी भक्तों के सामने) प्रकट नहीं करने चाहिएं। हमें इन जीवों के दोषों की जानकारी नहीं फिर बता देने से नुक्सान क्या है ? दोष प्रकट करने से ये जीव दोषों का त्याग तो करते ही नहीं सिवाय हमारे दर्शन के लिए आना ही बन्द कर देंगे। क्योंकि जन्म-जन्मांतरों के असंख्य अशुभ कर्मों की मैल जीवों के साथ लगी होने से ये जीव तुरन्त शुद्ध नहीं होते। परमेश्वर अवतार अथवा ज्ञानी भक्तों के दर्शन करने से इनको कुछ मैल दूर होती है। कुछ मेल नमस्कार करने से कटती है, कुछ मैल ज्ञान सुनने से नष्ट होती है, बची हुई सम्पूर्ण मैल प्रेम पूर्वक सेवा दास्य करने से समाप्त होती है। इस प्रकार धीरे-२ ये जीव योग्य होते हैं।

दूसरे प्रसंग पर स्वामी ने कहा कि किसी के पास जाएं तो वहां से गुण लेकर निकलना चाहिए। यदि सहज स्वभाविक गुण नहीं दिखाई देते तो विवेक का दीपक लगाकर गुणों की खोज करनी चाहिए। इतने पर भी गुण नजर नहीं आते तो रिक्त ही वापस हो जाएं परन्तु अवगुण लेकर नहीं आना चाहिए । जिस तरह किसी के दोषों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए उसी तरह किसी की निन्दा भी न करें। अपनी ओर से निन्दा नहीं करना वैसे ही दूसरा कोई निन्दा कर रहा हो तो अपने कानों से सुनना भी नहीं चाहिए । 

किसी की निंदा करना या सुनना एक ही बात है। जीव का स्वभाव दोषदर्शी होने से किसी के छोटे अवगुण भी उसको बड़े दिखाई देते हैं और कभी २ तो गुणों को भी अवगुण का रुप दे देता हैं। जब तक किसी के प्रति अपनापन रखता है उसके दोषों को भी वह दोष नहीं कहता। उसी व्यक्ति से अपनापन समाप्त हुआ कि उसके गुण भी दोष के रूप में दिखाई देते हैं। जिस तरह अपना बालक चाहे हमारे वस्त्रों पर मलमूत्र का त्याग कर देता है तो भी उस का दुःख नहीं होता और पराया बालक यदि हमारे आँगन में भी पेशाब कर दे तो भी बहुत बुरा लगता है क्योंकि अपना और पराया भाव होता है।

श्रीचक्रधर स्वामी जी ने तो यहां तक कहा है कि यदि कोई हमारी बुराई करता है, निंदा करता है तो क्रोध न करते हुए नम्रता पूर्वक उत्तर देना चाहिए कि महाशय जी ! आप जो कुछ कह रहे हैं मेरे अन्दर तो इससे भी अधिक अव गुण भरे हैं । प्रतिकार करें । यदि कोई मारता है तो सिर सामने कर देना चाहिए परन्तु परमेश्वर अवतार या उसके ज्ञानी भक्त अथवा परमेश्वर धर्म को कोई निंदा करता है तो उसको सही उत्तर देकर उसका समाधान करें । यदि समा धान करवाने की हमारी योग्यता न हो तो वहां से उठकर अलग हो जाएं। उठना यदि सम्भव न हो तो कानों में अंगुलियां डाल लें परन्तु किसी की निंदा न सुनें ।

निन्दा करने या सुनने से दिल में अश्रद्धा, अप्रीती निर्माण होती है, दिल कठोर होता हैं। कठोरता आ जाने से अन्तःकरण में भक्ति का पौधा नहीं उगता, यहां तक कि लगा हुआ भक्ति का वृक्ष भी सूख जाता है। धर्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने तथा ज्ञान प्राप्ति और परमेश्वर की भक्ति कायम रहे, उसमें वृद्धि हो जिसके लिए दोष दृष्टि रहित होना और निंदा चुगली से दूर रहना अनिवार्य हैं ।

Thank you

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post