‘धर्म का आचरण करोगे तो होगा’

‘धर्म का आचरण करोगे तो होगा’

 

‘धर्म का आचरण करोगे तो होगा


स्वामी का कहना है कि किसीभी  विधि का पालन करेगा तो वह पूर्ण होगी। किसी भी निषेध का त्याग करेगा तो वह त्याग हो सकेगा।

सारांश :- संसार का कोई भी कार्य हो वह करने पर ही होता है। ऐसा कौन सा कार्य है वह इन्सान नहीं कर सकता। अच्छे से अच्छा कार्य भी इन्सान कर सकता है और बुरे से बुरा काम भी मनुष्य के हाथों से होता है। अच्छा कार्य करने पर सुख शान्ति और आनन्द प्राप्त होता है और बुरे कर्मों के द्वारा दुःख क्लेश, पाप, ताप और शाप प्राप्त होते हैं।

        शास्त्र का कथन है कि कोई भी कार्य करना हो उसके विषय में पहले सोच विचार करल कि क्या यह कार्य शास्त्र सम्मत है ? यदि है तो बेधड़क उस कार्य को शुरुवात कर दें। यदि शास्त्र सम्मत नहीं है तो किसी की प्रेरणा मिलने पर भी न करें। अज्ञानता के कारण मनुष्य के हाथों से ऐसे भी कार्य होते है जिसमें पाप तो नहीं होता परन्तु उस कार्य का कोई फल भी नींह मि लता जिस तरह किसान मौसम के अनुसार खेत में बीज डालता है तो अच्छी फसल आती है यदि बिना मौसम के बीज डलता है तोएक तो वे बीज उगते हो नहीं, उग आए तो पनपते नहीं जैसे तैसे पौधे निकल भी आए तो उन पर फूल फल नहीं आते। वैसा ही प्रकार धार्मिक विधियों का होता है।

        शास्त्र के अनुसार जिस समय जिस विधि का अनुष्ठान करना चाहिए उस समय करने से वह विधि फलदरूप होती है। और देश काल तथा परिस्थिति का ख्याल किए बिना जो भी कार्य किया जाये उसके द्वारा करने पर सुख नहीं मिलता न उस कार्य के बदले आत्मा को लाभ होता है और देखने वाले को भी प्रसन्नता नहीं होती है।  किसी भी विधि का अनुष्ठान करते हुए स्वयं की प्रसन्नता होनी जरूरी है। देखने वालों को भी अच्छा लगना चाहिए। देखने वालों को अच्छा लगता हो और स्वयं को विधि का अनुष्ठान करते हुए प्रसन्नता है तो निश्चिय ही साह को आत्मा निर्मल होती है उसको योग्यता लगती है। परमेश्वर प्राप्ति की साधना करने वाले दो प्रकार के साधक होते हैं। एक गृहस्थी और दूसरे संन्यासी। दोनों के लिए विधि तो एक समान है। गृहस्थी थोड़ा समय खर्च कर सकता है और संन्यासो पूरा समय खर्च करता है।

        गृहस्थ शरीर यात्रा सुखमय चलाने के लिए सुख-सुविधा जुटाता है। उदर पोषण के लिए उप जीविका, रहने के लिए मकान। मकान में डाइंग रूम डायनिंग रूम, बँडरूप लेटरिंग बाथरूम किचन आ। बनवाता है परन्तु आत्म कल्याण के लिए प्रभु साधना करने के लिए पूजा के लिए कमरा बनाना भूल जाता है। बाद में ऐसी जगह का पूजा के लिए चुनाव करता है कि वह किसी काम में नहीं आने वाली हो । एक तो सिड़ियों के नीचे पूजा रखी जाती है या कीचन में एक तो ऐसी जगह पर पूजा रखने से पूजा की अवज्ञा होती है। जिस परमात्मा ने हमें सब कुछ दिया उसके बैठने के लिए जगह का प्रबन्ध नहीं हो पाता। दूसरा साधक के लिए ऐसी जगह पर साधना करना कठिन होता है।

        इस लिए गृहस्थी को चाहिए कि मकान बनवाते समय पूजा का कमरा स्वतंत्र बनवाना चाहिए। आज-कल ऐसे अनेक गृहस्थ "साधक" पूछते हैं । कि सुबह जल्दी उठा नहीं जाता उठ जाएं तो बैठ कर नामस्मरण नहीं होता क्या हम बिस्तर पर ही बैठकर नामस्मरण किया करें ? कोई पाप तो नहीं लगेगा? जिस तरह किसी भी पेड़ पौधे को हवा, पानी और धूप मिलने पर ही फल-फूल लगते हैं। सतत छाया में रहने वाले पोधे पर फल-फूल नहीं लगते। उसी तरह विस्तरे पर बैठ कर या लेट कर नाम स्मरण करने से पाप तो नहीं लगता परन्तु नाम स्मरण का पूरा लाभ भी नहीं मिलता।

        शास्त्र के अनुसार बिस्तर छोडकर एकान्त में एकाग्र चित्त से उत्तर दिशा की ओर मुंह करके स्वामी की लीला चेष्टा का चिन्तन और श्रीमूर्ति का ध्यान करते हुए नाम स्मरण करने से अधिक लाभ होता है अर्थात् नाम स्मरण के दस लाभ होते हैं। (वेध-बोध, अनुसरण, स्मरण, निरोध-परिहार, बाजत वारा का परिहार, गिरने वाले आकाश को रोकना, आने वाले विघ्नों का परिहार, सहायता और परमेश्वर की प्राप्ति) स्वामी के कथन के अनुसार करने पर सब कुछ हो सकता है। पुरुष के प्रयत्न करने पर परमेश्वर सहायता करते है ।

        कै. श्री. सन्तराज जी शास्त्री दिल्ली में रहते थे । दमें की उन्हें काफी तकलीफ रहती थी। परन्तु जिस समय वे मुंह पर वस्त्र डाल कर नाम स्मरण के लिए बैठ जाते थे, जब तक वे आसान पर बैठे रहते थे उन्हें दमें की तकलीफ नहीं होती थी। आप भी उद्यम करके देखें अवश्य परमात्मा की ओर से सहायता होगी। कांटे से फांटा निकलता है। कष्ट सहन करने से कष्ट दूर होते हैं। उसी तरह किसी भी विधि का अनुष्ठान करते समय तन मन या धन पूरा साथ नहीं दे रहा हो ऐसे समय में आप अन्तः करण पूर्वक उस उस विधि का अनुष्ठान करने का निश्चय कर लें किसी प्रकार को भी कठिनाई के बिना आपको अपने आप मिलेगी शरीर में कष्ट होगा तो वह कष्ट विधि के अनुष्ठान से दूर हो जाएगा। गरीबी से पीडित होंगे तो गरीबी नहीं रहेगी। मन यदि अस्वस्थ हो तो मन स्वस्थ होगा ।

"गरल सुधा रिपु करई मिताई।

गोपद सिन्धु अनल सितलाई ।।

        जिसके ऊपर परमात्मा की कृपा होती है उसके सन्मुख आया हुआ जहर भी अमृत बन जाता है, तथा शत्रु मित्रता करना शुरू कर देते हैं, व समुन्द्र का पानी गाय के खुर में समा जाता है और अग्नि में ठंडक आ जाती है।

        आज तक मेरे प्रभु ने मेरे हाथों से जो कुछ भी पंथ की अल्प स्वल्प सेवा ली है ले रहें हैं और लेंगे। मेरी अपनी पहुंच से बहुत अधिक है। मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है सिर्फ प्रभु के प्रति प्यार साधनों के प्रति श्रद्धा और सेवा के प्रति दृढ़ संकल्प जरूरी है। श्री गुरु जनों के शुभ चिन्तन, साधु-सन्तों का प्यार, भक्त जनों का विश्वास और स्वामी की कृपा से मुझे प्रत्येक कार्यों में आशातील सफलता मिली है मिल रही है और मिलती रहेगी। आप भी उद्यम करके देखें। स्वामी के कहे अनुसार किसी भी विधि का अनुष्ठान आप प्रेम पूर्वक शुरू करेंगे तो उसकी पूर्णता स्वामी की कृपा से जरूर होगी। दृढ़ निश्चय पूर्वक शुरू कर दें।

-------------------------

भजन

तन-मन प्रभु का, धन भी प्रभु का,

उसे देते क्यों शरमाए, उसे देते क्यों सकुंचाए ।।

खाली हाथ तू आया, साथ में ना कुछ लाया ।

खाली हाथ तू जाए। उसे देते क्यों शरमाए ।।

शाम बिना सूना सबका जीवन, ध्यान अकल कब आएगी ।

सांसों की रफ्तार तेरी बढ़ी है, सब साँसे खत्म हो जाएगी ।।

भूख लगी सब खा लेते हैं। ये धर्म भूख कब जागेगी ।

जिसने तुझ जन्म दिया, याद उसकी कब आएगी ।।

बिन मोह के बचपन था तेरा, अब अहंकार जावानी लाएगी ।

खत्म जवानी फिर आए बुढापा, फिर मोह माया मे फंस जाएगी ।।

रंग बदले जग जितना भी सेठी, ये असल रंग में आएगी ।

चार जने जब खाट उठावे, शाम धुन न सुन पाएगी ।।

-वाई. पी. सेठी (दिल्ली)

----------

भजन

जिस मुख नाम तेरा हो दाता, झूठ फरेब निकट नहीं आता ।

कर्म करत जो नाम ध्यावे, मुक्त संग वह हो जाता ।।

जग में रहे सदा परदेशी, समझ ज्ञान जो पाता ।

पतवार नाम किश्ती हो जीवन भव सागर वो पार हो जाता ।।

वैर द्वेष न आए नेते, नाम ज्ञान घी ज्योति जगाता ।

निःस्वार्थ भाव है समतल धरती, ठोकर कभी नहीं वो खाता ।।

नाम नशा जपने संग वाढ़े, हर पल में आनन्द उठाता ।

मीचे अखें स्वामी को देखे, सेठी का आवा गमन बचाता ।।

================

भजन

राम गए रावण गए, गए युधिष्ठिर राए ।

माया किसी की बनी न दासी, इतिहास हमें बतलाय ।

शाम धुन क्यों न लगाए । माया तेरे साथ न आए ॥ धृ० ॥

मानव जन्म मिला है अमोलक । माटी मोल यह जाए ॥१॥

यह माया है बहता पानी । पलक नहीं ठहराए ॥ 2

यह माया है सावन को बदली । उमड़-घुमड़ कर जाए ॥ 3

माया पोछे दुश्मन सारे । जान तेरी ले जाए ॥ 4

यमदूतों ने पकड़ ले जाना । माया तुझे न छड़ाए ॥ 5

जिसके कारण पाप कमाए । वह तन तेरे साथ न आए ॥ 6

महल-माड़ियां सब कुछ रहना । हाथी घोड़े तेरे साथ न जाए ॥ 7

झूठ बोल कर कम तोले तू । सिर पाप का भार बढाए ॥ 8

भाई बन्धू और कुटुम्ब कबिला । कोई न साथ निभाए ॥ 9

दोन धर्म में खर्च करे तू । वही तेरे संग जाए ॥ 10

करले इससे नेक कमाई । तेरा जीवन सफल हो जाए ॥ 11

माया का बाजार है भाई । संग किसी के न आए ॥ 12

जिस माया पर गर्व करे तू इक दिन छोड़ तू जाए ॥ 13

तू स्वप्न समान है जग सारा । देखत ही बिरलाए ॥ 14

शाम नाम की महिमा भारी । यमदूत हाथ नहीं पाए ॥ 15

मन मुरख तू मान ले कहना । शाम बिना कोई करे न सहाए ॥ 16

 

हकीकत

धूप छाव का खेल बन्दे दुख सुख की पहचान ।

अच्छे करम अच्छा फल पाते हैं बुरे दन्ड समान ।।१।।

उत्तम सोच सच का साथी है सत्य मार्ग प्रधान है नेकी की पहचान ।।

झुकने पर फल है मिलता योग भोग दोनों

गुण तुझमें पहचान सके तो पहचान ।।२।।

योग बुराई का दुश्मन मानो है भोग विष समान

जैसा बीज धरती में बीजे फल पावे उस समान ।।३।।

लागा प्रभु संग जिसका होता वही जीवन महान ।।

 

 

 


Thank you

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post