अनन्य भक्ती का महत्वपूर्ण नियम ananya bhakti- mahanubhav-pantha dnyansarita
शादी के समय जब हम पति के गले में एक बार जयमाला डाल देते हैं, तो वर उसी के साथ प्रेम सम्बन्ध बनाए रखते हैं। बड़ी से बड़ी गलती भी हो जाए तो पति क्षमा कर देते हैं, परन्तु यदि हमारा प्रेम सम्बन्ध किसी और पुरुष से हो जाए पति बिल्कुल सहन नहीं कर पाते, उनके मन में इतना दु:ख होता है, कि फिर जीवन पर अपनी पत्नी की शकल देखने के लिए तैयार नहीं होते। यही ईश्वर की अनन्य भक्ति का नियम है।
जब ज्ञान होने के बाद कि यह ईश्वर अवतार है 81 करोड सवा लाख दस देवताओं के स्वामी हैं, सृष्टि के मालिक हैं। श्रीमद्भगवद् गीता के इस श्लोक के अनुसार सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: (गीता श्लोक 66, अध्याय 18) तब हमने ईश्वरीय शक्ति का हाथ पकड़ा। उपदेश लेते समय अपने श्रीगुरू जी को कह डाला, कि आज से मेरे पति, मेरे पिता, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र भगवान हैं, था उस समय भगवान के गले में जब जयमाला डाल देते हैं ।
फिर यदि हम उसे छोडकर कोई दुखसंकट आनेपर किसी देवी-देवता पीर-फकीर की शरण में चले जाते हैं तो भगवान कैसे सहन कर पायेंगे। इसी को विकल्प दोष कहते हैं जो बिलकुल क्षमा योग्य नहीं।
ऐसे धर्म से गिरे हुए जीव का फिर भगवान सृष्टि भर मुँह नहीं देखते, लाखों करोडो वर्ष भटकते ही रहेंगे जैसे पहलेसे भटकते आ रहे हैं, इससे बढकर और क्या दण्ड हो सकता है। ब्रह्मविद्या शास्त्र में भगवान श्री चक्रधर स्वामीजी के वचन अनुसार भगवान उदास हो जाते है। यह उदासीनता सुनकर शरीर कांप उठता भगवान अपने आप को कहते हैं कि इस बात के लिए तो मैं इष्यालु से भी इष्यालु है
भगवान के मन में बहुत दु:ख होता है, खंती आती है, जिसका दंड जीव को कई जन्मों तक भोगना पड़ता है, मेरी प्यारी बहनों, मुक्ति का रास्ता तो दृढ निश्चय से मरते दम तक ईश्वर का हाथ पकड़े रहने से ही खुलता है।
एक पति एक पिता एक परमेश्वर के बनकर ही रहना पड़ेगा जैसे संसार में हम एक पति ही बनाते है पाँच दस पति बनाने वाली औरत को वैश्या कहते हैं, वैसे ही जीवन कल्याण ने लिए भी एक ही पति की जरूरत है।
यदि पति या सास की मजबुरी या घर में क्लेश पडता नजर आए तो दयालू कृपालू भगवान श्रीकृष्ण जी ने केवल स्त्री जाति को यह छूट दी है कि जो दुखी हृदय से उदास होकर यह शब्द उच्चारण करती हुई कि, हें मेरे प्यारे प्रीतम श्री चक्रधर स्वामी जी मेरे मन की तार तो आप से जुड़ी हुई है आप ही मेरे माता-पिता और पति हैं, आप के सिवा मेरा और कोई नहीं है, परन्तु में ग्रहस्थाश्रम के चक्कर में फंसी हुई हूँ, मजबुरी देवता विधि (कंजके, नवरात्री, एकादशी या किसी देवी देवता मंदिर में जाना) यह कर रही हूँ मुझे क्षमा करना क्षमा करना ।
अपना पांचवा नाम उच्चारण करते हुए भगवान श्री चक्रधर स्वामीजी को भोग लगवाकर प्रसाद के रूप में कजंकोवाले दिन बच्चों को वो प्रसाद बांट दें। इसी प्रकार नवरात्रे के दिन दुख प्रकट करें व बीच में कुछ चुपके से (जो घर बनी हो जैसे दाल रोटी इत्यादी वह खालें)। यही ढंग भगवान ने बचने का बताया है जो मैं बता रही हूँ।
यदि किसी देवी देवता के मन्दिर में से प्रशाद लेना पड़ जाए तो आ कर आस पास के किसी छोटे बच्चे को, बर्तन साफ करने वाली, सफाई या लैटरीन साफ करनेवाली को दे दें। बाहर फेंकना या खाना दोष है। जिस देवी देवता की मूर्ति को भोग लगवाया जाता है। प्रशाद में उस देवता की शक्ति आ जाती है। जब हम वह खाते है तो देवता शक्तियां बुध्दि पर परदा डाल कर बुध्दि मलीन कर के धर्म से गिरा कर अपनी तरफ खींच लेती है क्यों कि वह देवता हमारे से तो बहुत बड़े हैं।
धर्म से गिर जाना सारी आयु की कमाई समाप्त कर लेना इस से बढ़ कर ओर क्या नुकसान हो सकता है। प्रसाद के लिए प्लास्टिक का लिफाफा पास रखें। कई बहनों के पत्र आते हैं कि अपना पांचवा नाम पढ़ कर फूंक मार कर देवी देवता का प्रशाद खा लेते हैं परन्तु यह गल्त है। हमारे फूंक मारने से प्रसाद में देवता शक्ति कम नही होती।
आशा है कि, मेरी बहनें हर बात को अच्छी तरह समझ गई होंगी व विकल्प दोष से बचेंगी, वरना फिर पछताने से कुछ नहीं बनेगा, क्यों कि भगवान अपनी भक्ति में रत्ती भर भी मिलावट सहन नहीं करते, इसी को अनन्य भक्ति कहते हैं, जिसके बारे भगवान श्रीकृष्ण जी ने गीता में बार-बार जोर दिया है।
लेखक :- त. रुपाबाई, गीताबाई जी पंजाबी