21-5-2022 गुरु का महत्व - guru ka mahatva
मोक्षमार्ग में गुरु की महिमा - guru ki mahima
गुरु की महिमा सभी धार्मिक ग्रन्थों में
बतलाई है। सुन्दर नामक कवि
लिखते हैं :--
गुरु बिन ज्ञान नहीं, गुरु बिन ध्यान नहीं।
गुरु बिन अन्त में, विचार न लहत है।
गुरु बिन प्रेम नहीं, गुरु बिन प्रीति नहीं ।
गुरु बिन सीलहूं, सन्तोष न लहत है।
गुरु बिन वास नहीं, बुद्धि को प्रकाश नहीं ।
भ्रम हूं को नाश नहीं, संशय रहन है ।
गुरु बिन बात नहीं, कौड़ी बिन हाट नहीं ।
“सुन्दर" कहत लोक, वेद यों कहत हैं ॥
किसी और कवि ने
लिखा है।
सुबह मुहुर्त को उठो, करो गुरु का ध्यान ।
भजन करो जगदीश का, जासे सब कल्याण ।।
गुरु शब्द का अर्थ है :-- भारी,
बोझल, लम्बा, विस्तृत,
(काल मंत्र लम्बाई में) । वैसे गुरु का अर्थ है । श्रद्धय, आदरणीय पुरुष, वृद्ध पुरुष, बुजुर्ग,
शिष्य को गुणों को शिक्षा देने वाला।
नीति ग्रन्थों में आता है कि गुरु के
द्वारा एक भी शिक्षा दी गई हो उसके बदले में शिष्य तीनों लोकों की सम्पत्ति भी
गुरु को अर्पित कर दे फिर भी पर्याप्त नहीं है । गुरु के गुणों का वर्णन करने के
लिए पृथ्वी की स्लेट, समुद्र की स्याही और
पेड़ों की कमले पूरी नहीं पड़ती।
दामोदर पंडित संकट हरण स्तोत्र में लिखते
हैं : जीव की ममतावश कैवल्यपति ने पैदल घूमकर पतितों का उद्धार किया। अनन्त
शक्तियों के स्वामी की महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। जिस प्रभु की सेवा में माया तत्पर
रहती है वह परमात्मा भूमि पर भ्रमण करके अधिकारी जीवों को खोज करके उन्हें ज्ञान व
प्रेम का दान करता है।
निमित रहित जीवों के स्वामी,
आनन्द से परिपूर्ण फैवल्य के दाता । उस परमात्मा का प्रसन्न मनोधर्म
से ज्ञान बतलाया। उस गुरु के चरणों पर मैं नमस्कार करता हूं । जिल गुरु ने आनन्दकन्द
प्रभु के दर्शन करवाए उसके उपकारों से मैं कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। हे परमप्रभु
आनन्दमय ! आप ही गुरु के ऋण से मुक्त कर सकते हैं।
हमारे ज्ञानदाता सर्वज्ञ श्री चक्रधर
महाराज ने बतलाया है कि - किसी ने सब्जी बनाने का ज्ञान बताया हो उसको भी गुरु
मानना चाहिए। ३६ गुरु निमित्तों का मान करना चाहिए। गुरु के अनुषंगिक आचरण करना
चाहिए। गुरु के साथ अधिकवृत्ति का बर्ताव नहीं करना चाहिए क्योंकि जिस गुरु से जो
गुण प्राप्त किया हो (वेध, बोध, ज्ञान, अनुसरण) उस गुरु पर विपरीत हो जाने से वह गुण
समाप्त हो जाता है। यहां तक कि पुरुष धर्म से भी गिर जाता है।
जिस तरह कछवी बालक को जन्म देकर उसे एक
किनारे पर छोड़कर स्वयं दूसरे किनारे पर चली जाती है। यहाँ पर से ही बालक की याद
करती है। कछवी के चिंतन में ही अमृत होता है अतः उसके चिंतन मात्र से बच्चे बढ़ते
रहते हैं उसी तरह दूर से ही गुरू के शुभ चिंतन से शिष्य के धर्म की वृद्धि होती
रहती है ।
संसार का नियम है कि एक व्यक्ति दूसरे के
गुणों को याद करता है तो दूसरे के दिल में भी पहले के प्रति प्रेम पैदा होता है
उसी तरह शिष्य गुरू के उपकारों की कृतज्ञता पूर्वक याद करता हैं तो गुरू के मन में
भी शिष्य के प्रति प्रेम पैदा होता है। गुरु का शुभ चिंतन ही शिष्य की धर्म वृद्धि
के लिए पोषक होता है।
यथार्थ वादी गुरु की आज्ञा परमेश्वर की हो
आज्ञा होती है। कनेरी नामक शिष्य गुरु की सेवा में संलग्न रहता था। एक दिन भिक्षा
में बड़े आए थे वे खाने पर गुरु ने सहज कह दिया कि वड़े अच्छे थे । कनेरी ने सोचा
कि गुरु को बड़े अच्छे लगे, अतः जिस घर से बड़े मिले
थे और मांगने के लिए गया। वहाँ बतलाया कि हमारे गुरु जी को बड़े अच्छे लगे अतः हो
सकता है तो और बड़े दें।
गृह माता ने कहा कि जो कोई वस्तु अच्छी हो
दूसरों को दी जा सकती है ? कनेरी ने कहा यदि संभव हो
तो देने में कोई नुकसान नहीं। बाई ने कहा महात्मन् ! तुम्हारी आँखें बहुत सुन्दर
है एक आंख मुझे दे दीजिए, मैं आपको बड़े दे दूंगी कनेरी ने
आँख में अंगुली डाल कर एक बुबुल निकाल दिया। बाई ने तो मजाक को थो परन्तु कनेरी ने
सचमुच ही आंख निकाल दी।
घबराकर बाई ने बड़े दे दिए कनेरी लेकर आया
। एक आंख पर हाथ रखा हुआ था। कनेरी न गुरु के सम्मुख वड़े रखकर खाने के लिए कहा।
गुरु सिद्धि वाले थे वे पहले ही समझ चुके थे फिर भी उन्होंने पूछा बेटा ! आंख पर
हाथ क्यों रखा है? शिष्य ने सारी घटना कह
सुनाई। गुरु ने कनेरी को और परीक्षा लेना चाहा कि यदि ऐसा ही है तो एक आंख का दान
मुझको भी कर दे । कनेरी दूसरी आंख में अंगुली डालने लगा तो गुरु ने रोक दिया कि
हमारी समझकर रहने दे ।
एक अज्ञान मार्गी गुरु शिष्य,
परन्तु भक्ति कितनी श्रेष्ठ ? कितना प्यार था
गुरु के प्रति कनेरी के दिल में गुरु के मांगने पर अपने शरीर के के प्रमुख अंग की
उसने परवाह नहीं की। गुरु ने सिद्धि के द्वारा कनेरी की आंख ठीक कर दी । स्वामी ने
अपने श्रीमुख से कनेरी की गुरु भक्ति की घटना सुनाई। यह घटना सुनाने का स्वामी का
उद्देश्य यही हो सकता है। कि ज्ञान के निमित्त गुरु के लिए शिष्य ने कंजूसी नहीं
करनी चाहिए।
हमारे महानुभाव पंथ कें आद्य आचार्य श्रीनागदेवआचार्य
निंबा नामक ग्राम में रहते थे । एक बार दुष्काल पड़ जाने से भिक्षा पर्याप्त नहीं
आती थी अतः आचार्य श्री नागदेव जी सभी शिष्यों की भिक्षा एकत्र करके सब को एक जैसा
हिस्सा बाँट देते थे। स्वयं भी सब के समान लेते थे। श्रीनागदेवआचार्य जो भोजन कर
रहे थे । एक शिष्य पास में ही बैठा या उसने सोचा कि गुरु जी का पेट नहीं भरेगा ।
खाना कम है अतः अपने पात्र से खाना निकालकर आचार्य जी के पात्र में डाल दिया।
आचार्य जी ने जुठे का ख्याल नहीं किया वे
खाना खा रहे थे । आचार्य जी के दूसरे शिष्य थे वे क्रोध कर बोलने लगे कि, ‘‘तू
कितना नासमझ है गुरु जी के पात्र में अपना जूठा खाना डाल दिया’’ यह देखकर आचार्य
जी ने कहा तुम व्यर्थ में क्रोध क्यों कर रहे हो? प्रीति
में जूठ सूच का बन्धन नहीं होता। आप जानते हैं कि उसने अपने पेट की परवाह नहीं की।
अपना हिस्सा हमारे पात्र में डाल दिया।
तुम्हारी अपेक्षा उसके दिल में हमारे प्रति कितना प्रेम है? इसके प्रेम को आपने नहीं पहचाना। गुरु के द्वारा दिए हुए ज्ञान के बदले में शिष्य यदि तन, मन, धन सब कुछ गुरु का अर्पण करदे फिर भी कम है। संसार में सब लोग स्वार्थवश ही एक दूसरे के साथ प्रेम करते है। गुरु ही एक आदर्श है जो कि बिना किसी स्वार्थ के शिष्य को शिक्षा देता है।
सब से बड़ा गुरु तो परमात्मा ही है
क्योंकि पूर्ण रुप से गुरु परमेश्वर है। व सन्त-महन्त गुरु तो है हो परन्तु
निमित्त गुरु है । स्वामी ने श्री नागदेव जी को कहा कि हमारे मुख से गिने चुने
व्यक्तियों को ज्ञान दिया गया परन्तु तुम्हारे मुख से सेकड़ों को ज्ञान होगा।
आचार्य जी ने प्रश्न किया ‘‘प्रभो ! ऐसा क्यों? मेरे मुख
से अधिक लोगों को ज्ञान क्यों होगा?’’ स्वामी ने कहा कि
ज्ञान तू थोड़ा ही देना है। ज्ञान तो हमारी ओर से दिया जाएगा। जीव सिर्फ अक्षरों
का ज्ञान करवाता है परन्तु ज्ञान शक्ति का देने वाला परमात्मा ही है।
वैसे ही श्री दत्तात्रेय प्रभु को राजा
यदु ने पूछा कि भगवन् ! आप बहुत ही आनन्दमय है। आपको इस आनन्द का देने वाला ऐसा
कौनसा मिला? गुरु उत्तर में श्री दत्तात्रेय प्रभु
ने बतलाया कि इस ज्ञान पथ में गुरु एक परमेश्वर ही है।
सारांश गुरु के प्रति श्रद्धा विश्वास
नम्रता और सेवा भाव रखें। समा नता तथा अधिकता का व्यवहार न करें। भूल कर भी गुरु
पर विपरीत भाव न आने दें। इस विषय पर बहुत अधिक लिखा जा सकता है। मैं संक्षेप में
ही लिखा है। मुझे विश्वास है कि पाठकों को पढ़ने से लाभ होगा।
लेखक :- प.पू.प.म.
कै.श्रीमुकुंदराज बाबा जी चंडीगढ