कर्मों के बन्धन से कौन मुक्त है? श्रीमद्भगवद्गीता का रहस्य -
geeta rahasya
अवाच्यवादांश्च बहून वदिष्यन्ति तवाहिताः
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःख तरं न, किम् ॥36। ।
तेरे सारे शत्रु वह ताने देंगे जिनको सुन कर मरना अच्छा । सब और तेरी निन्दा होगी इस लिए अभी लड़ना अच्छा है। और तेरे दुश्मन लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन कहेंगे । उससे अधिक दुःख और क्या होगा ?
भावार्थ :- 34वें श्लोक में भी भगवान ने बतलाया है कि लोग तेरी निन्दा करेंगे। वहां पर साधारण लोगों की निंदा का जिक्र किया गया है। यहां पर विशेष व्यक्ति दुर्योधन कर्ण आदि जन्म जात शत्रु तुम्हारे बल पराक्रम और युद्ध कौशल आदि की निन्दा करते हुए तुम पर भांति-2 के असह्य शब्द बाणों की वर्षा करेंगे कि वे कहेंगे अनुन किस दिन का वीर है, वह तो जन्म का ही नपुंसक है। उसके गाण्डीव धनुष्य को और उसके पौरुष को धिक्कार है। भगवान अर्जुन को युद्ध न करने के परिणाम को महान दु:खमय बतलाते हुए कहते हैं कि अभी तू युद्ध न करने को अच्छा समझ रहा है इसमें सुख मान रहा है यह तुम्हारी बड़ी भारी भूल है। युद्ध का त्याग करने से तुम्हारे लिए सबसे अधिक दुःख होगा ।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् तस्मा दुत्तिष्ठ कौन्तेय यद्धाय कृत निश्चयः ॥37।।
या तो हर तरफ मजे में हो मर गए स्वर्ग को जाओगे। यदि जीते और जीते भी रहे तो राज भोग को पाओगे ।
अर्थ :- तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा अथवा संग्राम में जीत गया तो पथ्वी का राज्य भोगेगा। इस लिए है अर्जुन ! तू निश्चय करके युद्ध के लिए खड़ा हो जा।
भावार्थ : -छट्टे श्लोक में अर्जुन ने भगवान से यह बात कही थी कि मेरे लिए यह करना श्रेष्ठ है या न करना अच्छा है तथा युद्ध में हमारी विजय होगी या हमारे शत्रुओं की इसका निर्णय में नहीं कर सकता, उसी का उत्तर देते हुए भगवान कहते है कि यद्ध करते 2 मर जाने में अथवा विजय प्राप्त कर लेने में दोनों में हो लाभ है यह दिखला कर अजन के लिए युद्ध का श्रेष्ठत्व सिद्ध करते है। अभिप्राय यह है कि यदि युद्ध में तुम्हारे शत्रुओं की जीत हो गई और तुम मारे गए तो भी अच्छी बात है, क्यों कि युद्ध में प्राप्त त्याग करने से तुम्हें स्वर्ग मिनेगा और यदि विजय प्राप्त कर लोगे तो पृथ्वी का राज्य सुख भोगोगे, अतएव दोनों ही दृष्टियों से तुम्हारे लिए तो युद्ध करना ही सब प्रकार से श्रेष्ठ है, इस लिए तुम कमर बांध कर य.द्ध के लिए तैयार हो जाओ ।
सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यत्व नैवं पाहमवाप्स्यसि ||
यदि स्वर्ग सुख और राज भोग दोनों की इच्छा नहीं तुझे
फिर कर्म तेरा निष्काम हुआ बन्धन न होगा कहीं तुझे ॥
अर्थ : जय-पराजय लाभ-हानि और सुख-दुःख समान समझकर उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा इस तरह करने से तेरे को पाप नहीं लगेगा ।
भावार्थ : हार-जीत लाभ-हानि, सुख-दुःख प्राप्त होने पर हर्ष शोक, या राग द्वेष आदि विकारों का न होना हो उन सब को समान समझना है। स्वर्ग सुख या राज्य भोग की इच्छा नहीं है तो युद्ध में होनेवाले विषय भाव का सर्वथा त्याग करके उपर बतलाए हुए नियम के अनुसार युद्ध के प्रत्येक परिणाम में सम हो कर उसके बाद तुम्हें युद्ध करना चाहिए । इस प्रकार का युद्ध हमेशा कायम रहने वाली शान्ति को देने वाला होता है। अर्जुन ने स्वजन समुदाय के वध को पाप कर्म बतलाया था और युद्ध करना उचित नहीं है एसा सिद्ध किया था। यहाँ भगवान ने उसका उत्तर देते हुए कहा है कि सन दृष्टि रखकर युद्ध करने से पाप नहीं लगते ।
अर्जुन ने पहले यह बात कही थी कि पृथ्वी के राज्य को तो बात ही क्या है। तीनों लोकों का राज्य प्राप्त हो फिर भी मैं अपने कुल का नाश नहीं करना चाहता। अत: जिस व्यक्ति को न राज्य सुख चाहिए न स्वर्ग की ही इच्छा है व्यक्ति को समान दृष्टि रख कर युद्ध करना चाहिए यह बात इस श्लोक में भगवान ने समझाई है ।
अब तक भगवान ने साँख्ययोग (ज्ञान योग) के सिद्धान्त तथा क्षात्र धर्म को दृष्टि से युद्ध करना उचित बतला कर अर्जुन को समता पूर्वक युद्ध करने के लिए कहा है, अब कर्म योग के सिद्धान्त के अनुसार बद्ध करने को श्रेष्ठता बतलाते हुए कर्म योग का वर्णन करते है
एषा तेऽभिहिता सख्ये बुद्धियोंगे त्विमाँ श्रुणू ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्म बन्धं प्रहास्यसि ॥39
फल की इच्छा न करना ही निष्काम कर्म कहलाता है ।
अर्थ : हे पार्थ ! अब तक तेरे को ज्ञान योग की बातें बतलाई अर त कर्म योग के विषय में सुन । जिस कर्म योग के साधन द्वारा तू कर्मों के बन्धनों छूट जाएगा ।
भावार्थ : ज्ञान योग में भी समता भाव का होना जरुरी है वैसे ही कर्ष योग में भी सम भाव रखना आवश्यक हैं। जन्म-जन्मान्तों में किए हुए अच्छे-बुरे या मिथ कर्मों का फल समय आने पर जीवात्मा को भोगना ही पड़ता है। परन्तु अपनी अपनी इच्छा से कर्म करना छोड़ कर मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार निष्काम कर्म करता है तो उसके पूर्व संचित कर्म नष्ट होते हैं और भविष्य में निष्पत्ति रुक जाती है। इस प्रकार आत्मा कर्म बन्धनों से मुक्त होकर परमेश्वर के परमानन्द को प्राप्त करने के लिए योग्य होती है।
नेहाभिकमनाशोSस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमध्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ 40
इस परधर्म का थोड़ासा भी साधन आचरण करने से यह आवागमन छुट जाता है।
अर्थ : -इस निष्काम कर्म योग में किए हुए कर्म कभी नष्ट नहीं होते। क्रम बदल जाए फिर भी नुकसान नहीं और छट जाऐ तो भी दु:ख नहीं भोगने पड़ने। इस निष्काम कर्म योग का तो थोड़ा भी आचरण किया जाए सो वह जन्म-मृत्यु आदि महान दुःखों के भय से मुक्त कर देता है।
भावार्थ :- निष्काम कर्म योग का थोड़ा भी साधन जन्म-मृत्यु रुप संसार सागर से पार उतार देता है। वैसे सकाम कर्म का पूर्ण रूप से आचरण किया जाए फिर भी प्राणी संसार सागर से पार नहीं पहुंचता सकाम कर्मों के द्वारा जो फल मिलता है वह नाश्वान होने से समय पाकर नष्ट हो जाता है। सकाम कर्म देवता भक्ति के साधन है अतः माया मुख्य सभी देवता देवताओं न के फल नाशवान ही है। निष्काम कर्म परमेश्वर भक्ति के साधन है। परमेश्वर के निमित्त किए हुए सभी कर्म नित्य होते है जिनका न तो कालान्तर में नाश होता है न किसी उपाय के द्वारा ही वे नष्ट होते हैं।"
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरूनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥41
फल इच्छा जिनके मन भाई जीवन मांहि रह्यो भरमाई
स्वर्ग जिन्हें दीखत सुख दाई ते नित लेत जन्म पुनि आई ।
अर्थ : हे अर्जुन ! इस निष्काम कर्म योग में साधक की एक निश्चयात्मिका बुद्धि होती है। किन्तु अस्थिर चित्तवाले विवेक हीन सकाम मनुष्यों की बुद्धी अनेक भेद वाली और अनन्त होती है ।
भावार्थ : निष्काम कर्म योगी के अन्त:करण में एक अटल निश्चय परमेश्वर प्राप्ति का होता है। उसका मन लोक परलोक के फल और उपयोग से अलिप्त रहता है। परन्तु सकाम भक्ति करने वालों का मन कभी स्थिर नहीं रहता। कभी यह चाहिए, कभी वह चाहिए। इस देवता की पूजा शुरू कर देता है कभी उस देवता की भक्ति में लग जाता है। दर दर भटकता है। लौकिक भोगों की पूर्ति के लिए मृगतृष्णा के समान संसार में गोते खाता रहता है कभी उसकी इच्छाएं पूर्ण नहीं होती। अतः सकामी व्यक्ति का चित सदा अस्थिर रहता है।