सेवा का महत्व परमेश्वर के सेवा दास्य संसार से मुक्ति - Seva ka mahatva

सेवा का महत्व परमेश्वर के सेवा दास्य संसार से मुक्ति - Seva ka mahatva

 

सेवा का महत्व परमेश्वर के सेवा दास्य संसार से मुक्ति - 

Seva ka mahatva

संसार में सेवा का बड़ा महत्व है। सेवा के बिना सुदरता का कोई मूल्य नहीं है। द्रव्य की किमत दान से है संग्रह से नहीं और मन की पवित्रता प्रभु चिन्तन से है । अतः किसी कवि ने कहा है :

तन पवित्र सेवा किए, धन पवित्र दिए दान ।

मन पवित्र प्रभु भजन से, या विधि हो कल्याण ॥ 

कार्मिक क्षेत्र हो अथवा धार्मिक सेवा के बिना सद्गति नहीं । जिस तरह लोक व्यवहार में सुन्दर, सधन की शोभा, सेवा के बिना नहीं होती उसी तरह परमार्थ के अन्दर भी सेवा दार व्यक्ति सभी का प्रिय होता है। बसे ही परमात्मा को भी सेवादार व्यक्ति प्रिय होता है। सेवा के बिना ज्ञान और वैराग्य फीका होता है। ज्ञानी के लिए भी सेवा-दास्य का करना जरूरी है। स्वामी का कहना है कि सेवा करने से ही मुक्ति मिलती है । काम चोर व्यक्ति को कहीं भी यश नहीं मिलता।

परमेश्वर अवतार यदि प्रसन्न हो जाते हैं तो जीव को धन-दौलत मान सम्मान देना पसन्द नहीं करते। वे तो अपने प्रेमियों को सेवा - वास्य ही प्रदान करते हैं। संगमेश्वर (पंठन के निकट) में स्वामी का निवास था । ब्रह्म विद्या का उपदेश सुनकर श्री नागदेव जी ने पंगु (पिंगले) का वेष बनाया और स्वामी के सम्मुख आकर प्रार्थना करने लगे। हे करुणा के सागर ! चैतन्य माया आदि सभी देवताएं आपकी सेवा करते हैं । आप मुझ पर प्रसन्न होइए। आप देवों के देव हैं। सारे संसार को आपने व्याप रखा है हे विश्व के स्वामी ! आप मुझ ब्राह्मण पर प्रसन्न होइए। 

संसार में भ्रमण करते हुए थक गया हूं। मुझ पंगु पर कृपा दृष्टि डाल कर मेरी रक्षा कर । आप तो अन्धों को आंखें देते हैं। बहरों को कान देते हैं। गुरूंगे को बाचा प्रदान करते हैं। पंगु को पर देते है। निश्चेतन को चेतनता प्रदान करते हैं। बुद्धि होनों को बुद्धि दान करते आप कुमार्ग गाभी को सुमार्थ पर लगाते हैं । प्रभो ! उसी तरह मुझको सभी अन्तर बाह्य इन्द्रियां प्रदान करें ।

आप पंखहीनों को पंख देते हैं। शक्तिहीन को शक्ति देते हैं। सत्वहीन को सत्व देते हैं, मूर्खों को ज्ञान प्रदान करते हैं। दुःखी को सुख देते हैं। योग होन को योग की सिद्धि प्रदान करते हैं। आप मुझको अनन्य भक्ति और अपना प्रेम प्रदान करें। श्रेष्ठ लाभ प्राप्त करवाने वाला सेवा दास्य हे विश्वनाथ ! आपकी सुक्रोति को सुनकर सबको छोड़ मैं आपकी शरण में आया हूं। हे अनन्त ! हे दयालु ! आनन्द परिपूर्ण, आप अपने चरण कमलों की सेवा मुझे प्रदान करें। हे जगत्‌बन्धु ! आपको छोड़कर अन्य दूसरों की प्रार्थना करना मैं नहीं जानता। सबको छोड़कर आपके सन्निधान में आया हूं। मैं अनादिकाल से पंगु तथा शक्तिहीन और सुन्दरता से रहित हूं ।

चतुविध कर्मफलों में सुख-दुःख भोगता आया हूं। कर्म करने की मुझ में शक्ति नहीं हैं तथा विधि अनुष्ठान से हीन हूं । हे सर्वज्ञ ! हे दयालु ! मेरी रक्षा करें । मैं अध:पतन की ओर जाने वाला जन्म-मृत्यु से युक्त, अज्ञान से मेरा चित भ्रमित हो चुका है। आप अपना सन्निधान दें तथा अपना निर्मल ज्ञान प्रदान करें। हे करुणापति ! मैं अति दीन हूं आप मेरी रक्षा कर ।

उपरोक्त प्रार्थना सुनकर योगियों के राजा परावर दानी परम शान्ति के दाता सर्वज्ञ श्री चक्रधर जी ने प्रसन्न होकर बाईसा से पूछा, बाई इस पंगु पर हम अति प्रसन्न हैं अतः इसको क्या देना चाहिए ? बाईसा ने उत्तर दिया कि बाबा ! आप प्रसन्न हैं तो इसको अपनो सेवा-नास्य प्रदान करें । यह सुनकर त० आऊसा बोल उठी सेवा और दास्य दोनों हो आप नागदेव को दे रहे हो फिर हम क्या करेंगे ? स्वामी ने कहा आपके लिए इतना ही पर्याप्त है कि मैं स्वामी का दास हूं ।

दास्य का मतलब यह नहीं कि रोटी पकाएं, झाड़ लगाएं, दास्य का मतलब है जिस-२ समय के लिए स्वामी ने जो-२ आज्ञाएं की हैं उनका पालन करें। जिस तरह प्रसाद वन्दन करना दास्य है। स्थान वन्दन करना दास्य है । भिक्षुक वासनीकों को भोजन खिलाना पानी पिलाना दास्य है। विजन के लिए जंगल में एकान्त वास करना दास्य है । नाम स्मरण करना दास्य है। द्रव्य और विषयों को त्याग करना दास्य है। बुराइयों ले बचना दास्य है । शारांश विधि रूप वचनों का अनुष्ठान करना दास्य है वं मे हो निषेधरूप बातों को छोड़ देना भी दास्य है ।

जिस तरह दूसरे सावनों को लेवा कल्याण दायक है वही अपनी सेवा आप करना भी दास्य है क्योंकि शरीर स्वामी को अर्पण किया हुआ है। ओर स्वामी का कहना है कि तपस्वी ने अपनी सेवा आप करनी चाहिए दूसरों से सेवा की अपेक्षा न करें। यदि कोई नत्रता और प्रेम पूर्वक प्रार्थना करके सेवा करता है तो उसका स्वीकार करें। दूसरों को प्रेमपूर्वक की हुई सेवा का स्वीकार करना भी दास्य हैं। क्योंकि इसके लिए स्वामी को आग्या है। 

साराँश स्वामी की आशाओं का पालन करना ही दास्य है । दास्य करने से ही मुक्ति प्रान्त होती है। एक जगह स्वामी ने ज्ञान को भी मोचक बतलाया है। ज्ञान और दास्य दोबों को साथ-२ लेकर चलने से हो। यथार्थ और पूर्ण लाभ का होना सम्भव है। यानि ज्ञान पूर्वक सेवा दास्य करने से मुक्ति मिलती है। केवल ज्ञान से मुक्ति नहीं मिलती उसके साथ सेवा भाव का होना जरूरी है और सेवा भाव हमेशा बना रहे उसके लिए ज्ञान का होना बहुत जरूरी है। अर्थात् ज्ञान युक्त सेवा-दास्य करने से मुक्ति प्राप्त होती है।


Thank you

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