श्रीमद्भगवद्गीता का सिद्धांत गीता का सिद्धांत
महानुभाव पिष्ट ज्ञान सरिता - महानुभाव पंथ ज्ञानसारिता
गीता के प्रकार-22 समय (परमेश्वर धर्म) लूप्ट होट होगा और यह कभी भी बढ़ेगा। सतपुरुषों की रक्षा करने वालों के नाश और धर्म की स्थापना के लिए युग्पति-2 में गणक गणिंग हैं .
द्वापर युग के अंतःस्थित समय में शक्तिशाली अभिनेता कौन आसुरी वर्तन के समय । ये वे ही थे जो नक्स्टल में प्रवेश करते थे। नानी धर्म व मरे... ऐसे में श्री कृष्ण श्रीकृष्ण जी ने पहली बार बालवाड़ी में गुणा किया था। बारह वर्ष की आयु में मामा कंस को मारकरना नाना ग्रहसेन व माता- पिता वसुदेव देवकी को शुभ से शुभ वसीयत के साथ स्थापित किया जाएगा।
ईश्वर धर्म के ज्ञान और प्रेम दो प्रकार के होते हैं। ज्ञान की श्रेष्ठता बेहतर होने के साथ ही उसे ज्ञान भी अच्छा लगता है। असामान्यता के व्यवहार करने का प्रयास करें I I
प्रेमी का साधन बहुत ही सुलभ होता है उसके विपरीत ज्ञानी को बड़ी बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी प्रेम का उत्तम साधन उद्धव को सर्व प्रथम दिया, इससे यह निश्चित होता है कि परमेश्वर अवतार अपनी ओर उत्तम साधन देना ही प्रथम कर्तव्य सम झते है तकरीबन ६०० वर्षों तक ज्ञान का दान नहीं किया। जिस तरह खेत की जुताई व सफाई जब तक नहीं होती किसान खेत में बीज नहीं डालता। उसी तरह ज्ञान दान के लिए मनुष्य के अन्तःकरण की भूमि को तयार करने के बाद ही परमेश्वर अवतार ज्ञान दान करते हैं।
शुरु से लेकर आखिर तक भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी ने दुष्टों के सहार का कार किया फिर भी भारतवब के राक्षस समाप्त नहीं हुए। जब भगवान ने देखा कि अब तो द्वापर युग समाप्त होने वाला है, सभी दुष्टों का नाश करक ज्ञान की स्थापना करना जरुरी है अतः महाभारत युद्ध की भूमिका तयार की दुनियां के शेष राक्षस बुद्ध स्थल पर पहुंच गए। युद्ध की शुरु बात होने ही वाली थी कि अर्जुन को मोह ने दवा लिया।
युद्ध करना पाप है इसकी अपेक्षा तो भीख मांगकर उदर पोषण कर लेना इष्टदायक है ऐसा निश्चय करके अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया। अर्जुन का ज्ञान का अधिकार आ गया था अतः उसने भगवान से प्रार्थना का कि प्रभु ! कृपणतारुपी दोष के द्वारा मेरा क्षत्रिय स्वभाव समाप्त हो गया है और धर्म के विषय में मैं मूढ़ हो चुका हूं, मैं आपसे पूछ रहा हूं कि मेरे कल्याण के लिए मार्ग दर्शन करें। में आपका शिष्य हूं आपको शरण आया हूं।
अर्जुन ने अपने अन्तःकरण में निश्चय कर लिया कि मेरे संशयों का निवारण भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी के सिवाय दूर करने वाला संसार में दूसरा कोई व्यक्ति नहीं है अतः श्रद्धा पूर्वक उसने भगवान का शिष्यत्व धारण किया। अर्जुन की सच्ची प्रोति को देखकर भगवान ने भी कह दिया। कि अर्जुन तू मेरा प्रिय एवं इष्ट है। इष्ट शब्द का रुढ़ अर्थ है पूज्य ।
किसी को भी पूछा जाता है कि तुम्हारा इष्ट क्या है ? उत्तर में कोई कहेगा कि मेरा इष्ट राम है, कोई कहेगा मेरा इष्ट श्री कृष्ण है, कोई शिव, कोई विष्णु आदि बतलाता है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या भगवान ने अर्जुन को पूज्यता की दृष्टि से इष्ट कहा है ? यहाँ इतना ही अर्थ लेना उचित है कि अर्जुन भगवान को प्रिय था क्योंकि इष्ट शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। जैसे कि इष् धातु का अर्थ है कामना करना प्राप्त करने का प्रयत्न करना, तलाश करना, ढूँढना, चाहना ।
इष् धातु से ही इष्ट शब्द बनता है। इष्ट शब्द का अर्थ है :... कामना किया गया, चाहा गया, जी से चाहा हुआ, अभिलषित, पसंद किया गया, अनुकूल, प्यारा, प्रतिष्ठित, सम्मानित, पति, आदरणीय, पूज्य तथा प्रिय प्रसंग के अनुसार यहाँ इष्ट शब्द का प्रिय अर्थ लेना ही उचित है ।
अर्जुन के प्रश्न के अनुसार भगवान ने उसके कल्याण की हितकर बातें बताना शुरु किया। भगवान ने विविध वियों की जानकारी अर्जुन को दी। बार बार किसी विषय को दोहराना दोष माना गया है अतः भगवान ने अन्य विषयों को नहीं दोहराया परन्तु आ म कल्याण के विषय को बार 2 दोहराया है।
प्रथम भगवान कहते हैं कि यह संसार नाशवान है सुख रहित है, दुःखों का घर है मानव देह तुझको प्राप्त हुई है अतः आत्त कल्याण के लिए मेरी भक्ति कर । मुझको भक्त ही प्यारा है। भक्तों में भी श्रद्धा युक्त भक्त मुझको अति प्रिय है। क्योंकि जिसने मुझको ही सब कुछ समझ लिया है वह महान आत्मा संसार में अति दुर्लभ है। दुर्लभ वस्तु अधिक कीमती होती है।
भगवान कहते हैं कि - मूर्ख अज्ञानी, आसुरी वृत्ति के लीग मेरी भक्ति नहीं करते वे दिन प्रतिदिन नरकों की तरफ जाते हैं अपवित्र नरकों में दुःख भोगते हैं। दैवी प्रकृति वाले धार्मिक व्यक्ति कामनाओं में फंसकर देवी देवताओं की भक्ति में लग जाते हैं । सकाम भक्ति के द्वारा स्वर्गादिक देवता फलों में कुछ समय सुख फल भोग कर पुण्य समाप्त हो जाने पर फिर संसार में जन्म लेते हैं बार २ जन्म-मृत्यु का चक्कर काटते हैं।
यक्षिणी देवता से लेकर मायादेवता तक जितने भी देवता फल हैं वे सब नाशवान हैं। एक मेरा ही धाम सुरक्षित है जहाँ पर चन्द्र-सूर्य व अग्नि का प्रकाश नहीं पहुंचता और वहां पर गए हुए योगीजन दुबारा संसार में जन्म नहीं लेते। नाशवान् दुःखमय संसार का मुख नहीं देखते। सुख रहित भगवान कहते हैं कि मेरी भक्ति कामना रहित होनी चाहिए, साथ हो उसमें मिलावट भी न हो ।
यह भी अच्छा है, मैं इसे अच्छी तरह से करूंगा, यह भी अच्छा होगा, प्रां. एक बात और ध्यान देने के लिए नियमित रूप से व्यवहार करते हैं।
सभी पाप-ताप, शो-संताप से मुक्त होने के लिए श्री कृष्ण चंद्र जी की अनन्य भक्ति है जन्माष्टमी का पर्व का प्रमुख। I