कुंतीमाता- विदूर जी का वनवास गमन - महाभारत - mahabharat kathasar

कुंतीमाता- विदूर जी का वनवास गमन - महाभारत - mahabharat kathasar

कुंतीमाता- विदूर जी का वनवास गमन - महाभारत कथासार - mahabharat kathasar

महाभारत कथासार 👇



कलियुग आनेवाला है राज्यव्यवस्था कैसी चलानी चाहिए ये कुंती माता ने युधिष्ठिर को समजाया व संन्यास ले के वन मे चली गई। 

धृतराष्ट्र ने विदुर से पूछा भैय्या ! यह माया का तार टूटेगा या नहीं ? सभी विषय अपने आप टूट गए परन्तु यह वासना अभी समाप्त हुई नहीं। तृष्णां ने साथ नहीं छोड़ा समसान की और जाने की तैयारी हो चुकी है। सारे परिवार को खा लिया परन्तु मेरे लिए काल को फुरसत नहीं है। द्रोह की मर्यादा समाप्त हो गई है परन्तु ममता मोह नही छुट रहा । इस लोक में सन्मार्ग छोड़कर हम भटकते रहे अब पर लोक का राह पकड़ना है। चिन्ता ममता का तो अनन्त हो गया अब पर लोक की जिला करनी चाहिए।

लाख ज्ञान भक्ति और वैराग्य हो परन्तु घर में रहने से भक्ति भाव समाप्त हो जाता है। जिस जगह पर बन्धु, माता, नारी, बेटा-बेटी और पोता-पोती हो उस जगह जी भर कर प्रयत्न करने पर भी आपत्ति आ जाती है। संसार का साथ निभाने का इतने दिन स्वाद देख लिया, अब कहीं दूसरी जगह जाकर भगवान का ध्यान भजन करेंगे, क्योंकि अब चौथी अवस्था आ गई हैं। गृहस्थाश्रम तो भूसे की आग है सुख से तापने नहीं देती। 

यह संसार तो एक मकड़ी का जाल है जिसमें मनुष्य फंसता ही जाजा है। धृतराष्ट्र गांधारी, कुन्ती और विदुर धर्मराज का हाथ पकड़ कर कहने लगे बेटा ! अब हमारा अन्तिम समय आ रहा है। विकराल काल काम के पास खड़ा होकर साथ चलने का संकेत कर रहा है। जो कुछ अच्छी बुरी भाववश थी अब वे समाप्त हो चुकी है। अब तो राज्य धर्म के नाते से जंगल का जीवन शेष रहता है। इस लिए है प्रिय ! हमें बिदा करें ताकि हम करो और शान्ति पूर्वक जंगल की तरफ जाएं। तुम सुख से प्रजा का पालन हम जंगल में एकान्त रह कर भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जी का भजन करें ।

वृद्धों की बात सुन कर धर्मराज सहित सारा परिवार रुदन करने लग गया । हे भगवान ! हे भगवान ! यह भार हमारे ऊपर मत छोड़ों घर के सभी कार्य नव जवान चलाते है परन्तु बूढ़े बुजुर्ग गुरुजन उन सब को रास्ता बतलाते हैं। जिस घर में कोई वृद्ध न हो या घर में खोचा तानी हो तो मेरे ख्याल से वह घर बरबाद हो जाता है। 

खैर इन बातों की चर्चा क्या करें यह सब बातें स्वारथ की है। हे पितृ देव ! हें चाचा ! आप अपने आत्म कल्याण के लिए निर्मोही बन कर गमन कर में यहां पर आपकी आज्ञा के अनुसार प्रजा का यथोचित पालन करने का यत्न करता रहूंगा। आप निश्चित होकर एकान्त में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी का भजन करना । माता जी ! हम मूर्ख अज्ञानी के किस्मत में आपकी सेवा नहीं लिखी थी। सारे जीवन में रोना ही रोना लिखा था विधाता ने हंसने की रेखा हमारे हाथों में लिखी ही नहीं थी। 

माता जी ! हमारी चिन्ता में ही आपने सारी जिन्दगी समाप्त कर डाली अब सुख का समय आया तो अब आप हमें छोड़ कर दूर जंगल में जाने को तैयार हो गए । युधिष्ठिर की बातें सुन कर माता कुन्ती ने कहा प्रिय पुत्र इस बात का खेद मत करो। मातृ भक्ति का भेद बहुत ही गुढ़ और गम्भीर है। 

माता की सेवा सच पूछो तो पूजन भी है अर्चन भी है। पुत्र माता की सच्ची सेवा तो यही है कि श्रद्धा पूर्वक माता की आज्ञा का पालन करे। मेरी इच्छा के अनुसार तुमने देश को आजाद किया। देश का, जाति का पुरुषों का सच्चा कर्तव्य निभाया है। बेटा ! अब भी मेरी यही आज्ञा है कि राजनीति का त्याग नहीं करना । बलशाली निर्बल पर अत्याचार न करें। जनता तो यह हरी दूब के समान है। जिस तरह दूब के खाने से घोड़े का भी पेट भर जाता है और दूभ भी नष्ट न होकर बढ़ती रहती है।

नीति निपुण, गुणवान राजा का प्रथम कर्तव्य है कि वह जनता से प्रेमपूर्वक बर्ताव करें। छोटे बड़े सब को एक समान समझते हुए द्रव्य भण्डार जनता का माने। अपना स्वार्थ त्याग कर दीन-दुखी की सहायता करे। प्रज्ञा को अपने समान समझे और प्रजा की सलाह से ही कोई नीति नियम बनाएं। 

अपने ऐश आराम को छोड़ कर जनता के लिए ही जीवन खर्च करें। प्रजा और देश का राजा सेवक होता है। राज्य सिंहासन जनता का समझें। जनता को सुख न पहुंचे तो वह अन्यायी राजा को राज्य सिंहासन से हटा सकती है। जो राजा जनता से धन एकत्र करके विषय भोगों में खर्च करता है उसके राज्य में आन्दोलन छिड़ जाते हैं। चारों तरफ कुहराम मच जाते हैं।

धर्मराज को धीरज देकर सब वहाँ से निकल कर व्यास देव के आश्रम में पहुंचे और योग साधना में समय व्यतीत करने लगे। योग साधना करते हुए कुछ दिनों के उपरान्त सभी शान्ति पूर्वक अपनी जीवन यात्रा समाप्त करके पर लोक सिधार गए। धर्म राज के पास जब बुजुर्गों के परलोक सिधार जाने का समाचार मिला तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। सभी नगर निवासी सहित धर्म राज ने शोक मनाया।

धर्मराज ने भाईयों से कहा विलासों की सीमा समाप्त हो चुकी है अब सोने का समय नहीं रहा अपनी अमूल्य सासों की कदर करनी है। बस यही समझो कि इस जीवन में क्षणभर भी चैन नहीं पायेंगे। खाली हाथ ही संसार में आए थे और खाली हाथ ही यहां से जायेंगे। घर बार मिट गया, परिवार भी समाप्त हो गया, और हमें बनाने वाले भी चले गए। हम स्वयं भी मिटने के राह पर खड़े हैं। न आगे कोई है न पीछे ही है और जो है वह भी समय आने पर नहीं दिखाई देगा। अब इस दुर्लभ अमूल्य जीवन को व्यर्थ खो दिया तो रोने के सिवाय और कुछ शेष नहीं रहेगा।

वही पर परीक्षित को बुलाकर धर्मराज ने कहा पुत्र ! अब भारत भूमि का भार संभालो | इसको प्राप्त करने लिए हमने पल पर खून बहाया है। परन्तु इसे प्राप्त करने पर भी जो चाहिए था वह नहीं मिला। दिल के दर्द को कब तक सहें कब तक इन आंसुओं को पीते रहें? जीने के लिए मन नहीं करता फिर किस आशा को लेकर जिन्दा रहें ? विधाता ने लिख रखा था कि महाभारत में कोई वीर न बचे। 

यदि उत्तरा देवी सती हो जाती तो हमारे कुल में कोई पानी देने वाला भी नहीं रहता। परन्तु माया पति की कृपा से हमारे कुल की बेल कायम रही। बेटा ! भगवान ने आप लिए यह आशा रुपी जंगल बनाया है। यह आर्य भूमि की बाग डोर खुशी के साथ पकड़ो। यह धर्मराज का ताज नहीं है इसे तो भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी का प्रसाद समझो।

बेटा ! पाण्डव वंश की नीति को स्वप्न में भी मत भूलना। प्रजा पर हर प्रकार से एक समान ही प्रेम करना। अब समय बदलने वाला है कलियुग अपना असर दिखाएगा। प्रत्येक जाति का भाव एक साथ हो बदलेगा। परंतु बेटा ! जहां तक हो सके नीति का पालन करना चाहें जीवन चला चाए परन्तु धर्म मत छोड़ना । परीक्षित ने बिलखते हुए कहा तात ! क्या कह रहे हो ? यह देश का भार एक अनजान के हाथों में किस प्रकार सोंस रहे हो ? जिस कलियुग का आगमन सुन कर धर्म अवतार भी भाग रहे है। युद्ध के पहले ही वीर गण मैदान छोड़ रहे है। उस कलियुग के कठिन काल चक्र में नीति किस प्रकार चलाई जाएगी ? हे न! इस अनजान मुर्ख से देश तथा कुल की लाज नहीं रहेगी 

धर्मराज ने परीक्षित से फिर कहा कि इस बात की चिन्ता न करें। जो जग का आधार है वही भारत का आधार है यही भारत का आधार है। सहिट बनाने वाले का यह सृष्टि सूत्र किसी तरह टूटेगा नहीं जिस तरह चलता आया है उसी तरह चलेगा। द्वापर और कलियुग के कर्मों में सिर्फ भावनाओं का ही भेद है। वरना सृष्टि के सभी काम जाहिर है। बराबर है। इस लिए हे पुत्र ! चिन्ता छोड़ कर जैसा समय आएगा उसे निभाना है। किसी के दोष न देख कर अपने कर्तव्यों की और देखना है। वैसे तो संसार में पाप पुण्य का व्यापार चलता ही रहता है। 

सतयुग में पाप नहीं होते तो वहां अवतार क्यों होते? यदि त्रेतायुग शुद्ध होता तो लीलाधर वहां क्यों आते ! द्वापर युग में चारों तरफ सब अत्याचारी फैले हुए थे। जिनका नाश करवाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जी को अवतार लेना पड़ा। हमारे से ही पूछो हमने यहाँ पर कौन सा शुभ कर्म किया है ? अपना कहते  अपना ही सब पराया कर दिया। इच्छा की पूर्ति में न सुख ही रहा है। न दुःख ही रहे। दूसरों को मिटाकर स्वयं भी मिट गए। न वे रहे न हम ही रहे। द्रोपदी सहित पाण्डव हिमालय को तरफ जाने को तैयार हो गए। सभी पाठक मिलकर लोला धारी भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जी का जय जयकार करें।


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