भीम और दुर्योधन का गदा युद्ध महाभारत - mahabharat
युद्ध का 18 वा दिन
11 अक्षौहिणी सेना का संहार होने के बाद दुर्योधन सरोवर मे छीप गया। फिर भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से पांडवो ने सरोवर के पास जाकर उसे युद्ध के लिए ललकारा । और माता गांधारी का पुत्र दुर्योधन सरोवर से बाहर निकल आया। रुदन करते हुए धर्मराज दुर्योधन से गले मिले और कहने लगे भैया ! आपके ऊपर सब कुछ बलिहार है। में विजय प्राप्त करके भी हारा हुआ हू और आप नष्ट होकर भी विजयी हो। बन्धु ! युद्ध हो चुका है, इसलिए जो कर रहे थे वह काम करो। आप राज्य करो आराम करो हम हाजिर हैं हमें गुलाम बना कर रखो। हम सच्ची आत्मा से अब भी आपकी आज्ञा पालन करने के लिए तैयार है। भैया ! बस वे हो पाँच गांव हमें जीविका चलाने के लिए दे डालें।
दुर्योधन रोते हुए बोला धर्मराज ! अब मुझे लाचार न करें। वचनरुपी वज्र का प्रहार मत करो भले ही शीश उतार लो। यह आपकी साधुता और सज्जनता है, जिस पर संसार निछावर है। हे धर्मराज ! पाण्डव दल का सारा दल बल आप पर निर्भर है। दिल तो कहता है कि आपके चरणों पर अपना सर्वस्व अर्पित कर दू । इस शरीर की चमड़ी के जूते बनाकर आपको पहना दूं । वास्तव में मेरा काम था कि आपको राज्य गद्दी पर बिठाता। इस सत्य मूर्ति की आज्ञा में अपना सब कुछ लगाता। परन्तु होनी ने माया के चक्र में मुझे डाल रखा अतः मैने आपके राह में काँटे हो काँटे बिछाए।
जिस तरह शरीर आत्मा से और कमल सूर्य से प्रतिकूल रह कर उन्नति प्राप्त नहीं कर सकता उसी तरह मैने आप जैसे धर्म मूर्ति के साथ शुरू से ही प्रतिकूल वर्ताव किया है जिसका फल मुझे प्राप्त हुआ। आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा कर्तव्य है, परन्तु होनी के आगे किसी की पेश नहीं जाती। आपका शान्ति का समय आ गया है। अब हमें शान्ति से सोना है। अब हम और आप युद्ध करें अथवा न परन्तु हमारी मृत्यु निश्चित है । अब थोड़ी सी मोह या ममता के कारण मेरा प्रण न तुड़वाएं । भैया ! भारत का राज्य क्या दिलाते हो मुझे तो स्वर्ग का राज्य दिलाओ ।
अब पाँच गांव मत माँगो, अपनी वीर प्रतीज्ञा को मत भूलो। हम कहें रत्ती भर नहीं देंगे और आप कहें कि हम ले लेंगे। बस इसी प्रण में बंधे हुए वीर की तरह मृत्यु हो। आप भारत के राजा बनो और मुझे स्वर्ग का राज्य दे दें। धर्मराज ने कहा वीर वर ! तू धन्य है। परन्तु पाँच के साथ एक का युद्ध किस प्रकार का हो ? यदि आपको प्रण ही रखना है तो एक समान सहायक होने चाहिए। हम पांचों में से आप किसी भी दो भाईयों को अपनी ओर ले लें। दुर्योधन ने कहा धर्मराज ! नीति के अनुसार तो यह उचित है।
परन्तु आज आपकी सारी शक्ति भीम अर्जुन पर निर्भर है। यदि उन्हे साथ में लूंगा तो सारा काम बिगड़ जाएगा। वह इच्छा फल, वह विजय लाभ आते-2 ही खो जाएगा। शत्रु की मदद से मुते स्वर्ग भी मिल जाय तो वह मिलना मिलना नहीं है। यह सुन कर धर्मराज ने कहा कि फिर हमारे में से एक का चुनाव करके उससे लड़े। दुर्योधन ने सहर्ष स्वीकार किया और बोला कि आपका और हमारा जोड़ है। क्योंकि श्री गोपाल कृष्ण तो पराए हैं। यहां रथ चलाने का काम कर रहे हैं। शेष भाई प्रजा के रूप में है धर्मराज के सेवक हैं। इसलिए दूसरों के साथ युद्ध करना मेरे लिए अपमान जनक है। यह सुनकर धर्मराज आश्चर्य में पड़ गए ।
लीलाधर बांके बिहारी ने बात बदला कर कहा कि दुर्योधन ! क्या बोल रहे हो ? यह कौन सा न्याय किया हैं। राजा-राजा के नाते से भीम और आपकी समानता है। पाण्डव लोग अपनी सेना का प्रमुख भीम को मानते हैं। हम लोग उसी की आज्ञा से आप तक लड़ने के लिए आए हैं। दुर्योधन ने कहा यह बात भी में मानता जब कि धर्मराज भीम के सम्मुख अपना शिश झकादे। यह सुन कर पाण्डव चुप हो गए और भगवान के ह की तरफ देखने लगे क्योंकि समस्या की कठिन थी । धर्मराज के शिश झुकाने में यह डर था कि धर्मराज शिश झुकादे तो भीम का शरीर जल जाने में समय नहीं लगता । माया पति प्रभु ने संकेत में ही सब कुछ समझा दिया। भीम के हाथों में मुरली वाले मुरली बन कर प्रकट हो गए। धर्मराज ने माधव का ध्याय लगा कर शिश झुका दिया ।
दुर्योधन अपने जीवन का मोह छोड़ कर खड़ा हो गया। वायु वेग के समान गद्दा युद्ध शुरु हो गया। दोनों अपनी अपनी कला दिखा रहे थे। दोनों समार बलवान और गर्वीले हैं। दोनों ही विशुद्ध त्यागी और हठीले हैं। एक तरफ लक्ष्मी सहायता कर रही हैं और दूसरी तरफ लक्ष्मी पति सहायता कर रहे हैं। एक कौरव दल का नेता है और दूसरा पाण्डव दल का। भीम अपने प्रण का सरदार था और दुर्योधन मद तथा बल का भण्डार था।
दोनों ही आवेश पूर्वक हुन्कार भर कर वारों परिवार करते थे। एक का वार काट कर दूसरा काट जतलाते थे। दुर्योधन ने भीम पर एक बार ऐसा किया जिससे वह चकरा कर गिरते 2 बच गया। भीम ने करुण भाव से करुणा पति को तरफ देखा तो करुणा पति ने संकेत कर दिया कि दुर्योधन की जंघा पर वार करें। इशारा मिलते ही भीम ने दुर्योधन की जंघा पर गदा का बार किया।
जिससे वह भूमि पर गिर पड़ा। देवलोक में जय 2 कार हुई। वीर दुर्योधन के भूमि पर गिरते ही भीम ने उस पर लात से प्रहार किया। यह देख कर धर्मराज ने भीम को ललकार कर कहा अरे अन्यायी ! जचा पर वार करना वीर का घोर अपमान है। अरे दूर हो जा गिरे हुए वीर पर लात प्रहार करना यह अन्याय है। बस सावधान ! यदि दूसरी लात दुर्योधन पर चलाई तो इस अनीति का प्रतिकार मुझे तेरे साथ करना पड़ेगा। भीम ने प्रार्थना पूर्वक कहा भैया ! इसका दुःख न मनाएं। मेरा प्रण आपको जाहिर है ।
इस दुष्ट ने द्रौपदी को जंघा पर बिठाने की ठानी थी । अतः उसकी जंघा तोड़ कर ही उससे बदला लेना था। भगवान श्री कृष्ण चन्द्र ने कहा दुर्योधन ! वह दिन याद आता है ? धर्मराज के साथ दुश्मनी करना और अर्जन के साथ युद्ध करना कितना महंगा पड़ा है। क्यों दुर्योधन ! वह आन-बान और वह हठ कहां पर रख दी? पहला अरमान और अभिमान कहाँ पर है ? यह सुन कर दुर्योधन ने कहा हे श्री कृष्ण चन्द्र प्रभो ! दुर्योधन की आज भी वैसी ही ज्ञान हैं।
अपने जीवन में दुश्मन को कभी चैन से नही बैठने दिया। जब तक हाथ पैर चलते रहे अपने देश में कदम भी नहीं रखने दिया। अन्तिम समय तक में अपने प्रण से गिरा नहीं। अब तक मेरी चलती रही, अब यह झांकी तुम्हारी है। वैसे भी विजय हमारी थी और ऐसे भी विजय हमारी ही है। मुझसे अब अधिक मत पूछे । हे कृपा सागर ! अपनी ओर भी तो देखें। बचपन से आज तक आपने कौन भी नीति का पालन किया है ? मेरे विचार से तो आज तक आपने छल विद्या ही फैलाई है। इसमें कोई शक नहीं आपने दुष्टों का संहार किया है। यह तो आपकी अवतारी शक्ति है। इसमें आपका बड़प्पन क्या है ? यह काम तो आप अवतार लिए बिना भी कर सकते थे । दुनियां के सभी बलवान अपने आप मर सकते थे ।
पैदा होने वाले की मौत एक दिन निश्चित ही होती है। फिर इतने छल बल करने की आपको क्या जरूरत थी ? हम मानते हैं कि हम लोगों ने अपने कर्मों का फल पा लिया, परन्तु सत्य बात तो यह है कि आपने भी अपना नाम दबाया है। आपने सभी दुष्टों का ही संहार नहीं किया भक्तों को भी मरवा दिया। हम तो बिचारे जीव हैं, हमें अधिकार ही क्या है ? करना धरना हमारातो प्रभुइच्छा अनुसार ही है। आपने जो कुछ किया अच्छा किया आप ही उसके जिम्मेदार हैं। आप को और आपके चरित्र को अन्तिम बार प्रणाम ।
भक्तवश्य भगवान कहने लगे दुर्योधत ! शब्द वागों की बौछार मत करो। आप ही सोच समझ कर निश्चय करें । सुख हो अथवा दुःख हो, लाभ हो अथवा हानि हो जो जिसके सामने आता है वह दान हो अथवा दण्ड हो हो वह सब उसके पूर्व जन्म की कमाई है। अत: जिसने अपने को जिस कार्य के लिए पात्र समझा मैंने केवल उसके निमित उतना संयोग जुटाया है। जिसको जो वरदान या शाप था उसका बदला नहीं दिया होता तो आप बतलाएं दुनियां क्या होती और इस लीला का फल क्या होता ? जिसको छल-बल समझ रहे वह तो प्रकृति मात्र कहलाती है, जो जीवों के कर्मों के अनुसार उल्टी-सीधी हो जाती है।
कोई शक नहीं इस युद्ध में भक्त भी मारे गये परन्तु उन्होंने भी अपनी इच्छा के अनुसार ही फल पाया है। दुर्योधन ! तुम्हें अभी तक असली के माया का ज्ञान नहीं हुआ। भक्तों को देखा जरूर है परन्तु उनकी पहचान तुम्हें नहीं हुई। चाहे कोई ज्ञानी हो या योगी हो अथवा संयमी और पूर्ण आचरण करने वाला हो। अपने शुभ कर्मों से सभी पुरुष इच्छित पद पर रह सकते हैं। परन्तु महा योगी हो फिर भी हम उसे भक्त नहीं कह सकते। कानूनी अपराध करने वाला दण्ड उठाने के लायक है।
भक्त भी यदि पाप करे तो उसे भी फल भोगना पड़ता है। ज्ञानी को उसके कर्मों के अनुसार लेखा भरना पड़ता है परन्तु भक्त को पाप कर्मों से बचा लेता हू । क्योंकि ज्ञानी अपने बल पर सब कुछ करने को कहता है परन्तु भक्त तो विचारा सब प्रकार से मेरे आश्रित ही रहता है।
मेरा नाम भक्त वत्स प्रसिद्ध है ज्ञान और भक्ति में यही भेद है। भीष्म आदि भक्त जरूर थे परन्तु अहंकार (वश उन्होंने हमारी बात नही मानी इसलिए पाप कर्मों के द्वारा वे मारे गए। राजन, ! अपने कर्मों से ही मनुष्य उत्तम बनता है। माला घ माने से कोई भवत नहीं बनता मेरा बनकर मेरी बात न सुने और नियमों का भंग करे वह भक्त नहीं वह तो अन्यायी है जो पाप कर्म करता है और बुरा संग करता है।
इसलिए व्यर्थ ही मेरे सिर पर दोष का भार मत रखो। राजन् ! तुम्हारा जोश ही तुम्हें खा गया। दुर्योधन ने कहा हे लीला धारी ! आप सत्य कहते हैं। हमने अपने कर्मों का ही फल पाया है। हमें समझ भी थी और हम कर्म वीर भी थे, परन्तु हम सच्चे अभिमानी थे । अपनी शक्ति के घमण्ड में रहकर आपकी महिमा नहीं समझ सके। अपनी चलती में भला-बुरा कर्म किया। हे दयाधाम ! बिल्कुल सत्य है।
हमने अपने कर्मो का फल पाया है। विवेक-विद्या, घन-बल, और कुटुम्ब वास्तव में कुछ भी शक्ति नहीं है। अब समझ में आ गया कि यदि आपकी भक्ति नहीं तो सब व्यय है। परन्तु अब मुह को अमृत पिलाने से कोई लाभ नहीं है। हे प्रभो ! यहां तो अहम दोष के कारण आपने भक्ता का कार्य किया और आगे शरण के नाते से मेरी लाज रखना । हे करूणापति ! जाओ। यह नीच कुरूपति इस प्रकार की गति का ही अधिकारी था। इस जगह अर्जन की बारी थी। अब आगे मेरी बारी है। अर्जुन ! जाओ । धर्मराज ! जाओ। अब आगे कुछ कहना व्यर्थ है। मैं स्वयं जानता हूं कि आपको माधव का सहारा है।
मेरी बात याद रखना मेरे जैसा राज्य मद में आकर मनमानी मत करना । अनीति के मार्ग पर मत जाना और केशव को कभी मत भुलाना । भैया । जाओ ! आपको हमेशा केशव का सहारा मिलता रहे और यह राज्य आपको मुबारिक हो और मौत मेरे लिए मुबारिक हो। पाण्डवों की आंखों में आँसू आ गए। यादव नाथ सहित बापस चल पड़े, अब पाठक प्रेम के सहित लीला धारी घन श्घास की जय जय कहें।