धर्म की राह पर हमें ही चलना पड़ेगा mahanubhav-panth dnyansarita

धर्म की राह पर हमें ही चलना पड़ेगा mahanubhav-panth dnyansarita

 महानुभाव पंथीय ज्ञानसरिता

धर्म की राह पर हमें अकेले ही चलना पड़ेगा  mahanubhav-panth dnyansarita

 


दुनियावी कार्यों में तो हिस्सेदार हो जाते है जिस तरह भोजन पकाना हो तो एक व्यक्ति लकड़ी ले आता है, दूसरा पानी लाता है, आग जलाता है, चौथा आटा मल लेता है, पाँचवा रोटी पका लेता है, उस तरह परमार्थ में नहीं है सभी नित्य विधियों का अनुष्ठान स्वयं को करना पड़ता है। 

ऐसा नहीं कि-एक ने पूजा कर ली, दूसरे ने स्मरण कर लिया, तीसरे ने आरती कर ली, चौथे ने दण्डवतें डाल दी या एक ने अटन कर लिया, दूसरे ने विजन कर लिया, तीसरा भिक्षा करके आए, चौथा भोजन करले, पाँचवा नाम स्मरण करे, छठा प्रसाद सेवा करें, और सातवाँ निद्रा करे। सभी विधियों का अनुष्ठान प्रत्येक "साधक" के लिए अनिवार्य है।

"साधकों" में सन्तुष्टी यह बड़ा भारी दोष होने से बहुत अधिक "साधक" साधना में फेल हो जाते है। इसलिए स्वामी ने कहा है कि- ज्ञान होने के बाद एक तो अनुसरण लेता है। और दूसरा प्रमादी हो जाता है। आज के कार्य को कल पर छोड़ना या जितना किया बहुत है ऐसा समझना ही प्रमाद का मूल कारण है। 

निद्रा खुल जाने पर उठ कर खड़ा हो जाना मनुष्य का कर्तव्य होता है उसी तरह ज्ञान प्राप्ति के बाद तुरन्त ही ज्ञान के अनुसार परमात्मा का अनुसरण लेना चाहिए। परन्तु उत्तम अधिकारी होता है वह तुरन्त ही अनुसरण ले लेता है घर - दार, पुत्र-परिवार के विषय में कुछ भी नहीं सोचता। जिसका मध्यम अधिकार होता है वह कुछ रुकावटें समझ कर ज्ञान प्राप्ति के बाद भी घर में ही रहता है परन्तु वह अत्यन्त दुःखी रहता है, रात-दिन सोचता रहता है। 

कब कब मैं घर रुपी जेलखाने से आजाद होकर परमेश्वर की योग साधना का आनन्द प्राप्त करुँगा ? कनिष्ट अधिकारी के लिए कोई रुकावटें नहीं होती वह स्वयं के शरीर और मन की रुकावटें समझ कर घर में बैठा रहता है। सोचता है कि पता नहीं मेरे से संन्यास धर्म का पालन होगा या नहीं? 

या सोचता है कि- अभी ही शादी हुई है कुछ दिन विषय-विकारों का सुख भोग लूँ या माया की ममता और सम्बन्धियों का स्नेह हो तो फिर भी वह त्याग नहीं कर सकता। आज-कल करते हुए ही प्राण पखेरु उड़ जाते हैं। और प्रमाद का तिलक लगा कर वह दुनिया से विदाई ले लेता है।

हाँ! यदि कुछ कणव जोड़ी हो तो परमात्मा उसको घर से जबरदस्ती भी निकाल लेते हैं। यदि द्रव्य की ममता हो तो परमेश्वर उसके द्रव्य का अपहरण करवा देते हैं। दुबारा द्रव्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है तो भी लाभ नहीं होता। यदि स्त्री- पुत्रों का स्नेह हो तो स्त्री-पुत्र कहना नहीं मानते फिर वह घर से दुःखी होकर सोचता है कि जिनकी भलाई के लिए मैनें अपनी जिन्दगी के अमूल्य क्षण व्यर्थ में बर्बाद कर दिए। 

शास्त्र में लिखा है कि-ज्ञान प्राप्ति के बाद अनुसरण लेना चाहिए। गुरुजन भी इसी प्रकार का उपदेश करते है और स्वयं भी अनुभव कर लिया है कि इस संसार में कोई भी किसी का नहीं है। एक परमात्मा ही आत्मा का कल्याण करने वाला है। माता - पिता आदि सब कुछ मेरा वही है ऐसा समझ कर वह सद्गुरु के सन्निधान में जाकर संन्यास धारण करता है।

संन्यास लेने पर भी संस्कार तो साथ में ही चलते है। उत्तम अधिकारी "साधक" रात-दिन चैन से नहीं बैठता। एक विधि छोड़ा कि- दूसरा पकड़ा। पानी के बिना मच्छली तड़फती है वैसे ही साधन दाता की प्राप्ति के लिए तड़फता रहता है और हीन अधिकारी "साधक" सुख पूर्वक साधना करता है अदृष्टवशे द्रव्य-वस्त्र मिल जाए उसी में वह सुख मान लेता है दो चार लोग थोड़ा सम्मान करदे उसी में फूला नहीं समाता। 

दो चार शिष्य मिल जाए तो समझता है कि अब हमारा उद्धार निश्चित है। दो-चार भजन गाने की कला आती हो तो समझता है। कि में ही गायनाचार्य हूँ। यदि सभा में दो शब्द बोल लेता है तो स्वयं को महा ज्ञानी तत्त्व वेत्ता समझ लेता है।

सारांश: - समय आने पर प्रवचन गायन करे परन्तु को दिल से निकाल कर। शिष्य बनाए साधना के लिए न कि- अपनी सेवा के लिए। द्रव्य-वस्त्र अपनी आवश्यकता से अधिक प्राप्त हो तो उन्हें जरुरत मंद को दान करें। कपड़े गठडी बाँध कर न रखे। पैसे बैंक में जमा न करें। 

अविधि- अनिष्ट से बचकर प्रत्येक उपस्थित विधि का अनुष्ठान स्वयं करे। प्राप्त विधि का अनुष्ठान तो हमें ही करना पड़ेगा। आलसी और सन्तुष्ट रहने वाले साधक पर परमात्मा की कृपा का होना संभव नहीं है। दुःख को जीवन साथी बना ले तो परमात्मा की प्रसन्नता दूर नहीं है।

Thank you

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