आज का धर्म प्रचारक तथा श्री चक्रधर महाराज की शिक्षा - महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता-Mahanubhavpanth dnyansarita
आजकल सारी दुनियां में, समाज में तथा धार्मिक संस्थानों में बड़ा ही भयावह वातावरण बन चुका है अगर गहराई से तथा शांत मन से, बुद्धि से यह सोचा जाए तो यही समझ में आता है कि क्या हम पैसों के लिए, अपनी-२ भावनाओं के लिए कलह-क्लेश करते हैं ? क्या हमारे साधन दाता ने हमें किसी बात की कमी रखा है ? नहीं, यह सब कुछ हमारे पास है दूसरों से भी अधिक है। फिर भी कलह क्लेष से हमारा मन अशांत रहता है।
जहां घृणा की प्रवृत्ति आ जाए वहां अच्छाई भी बराई में परिवर्तित हो जाती है। धार्मिक केन्द्र भी युद्ध के मैदान बन जाते हैं। प्रगतिशील समाज भी नष्ट हो जाता है। जब धार्मिक प्रचारक ही अपने प्रिय परिवार के प्रति घृणा की दृष्टि से देखते लगते हैं तथा धार्मिक शास्त्रों के प्रमुख वचनों की ओर से ध्यान तथा आचरण हट जाता है तब यह बातें स्वाभाविक ही प्रगट होने लगती है ।
आज के कुछ धर्म प्रचारक तथा अपने आपको प्रगतिशील कार्यकर्ता कहलाने वाले सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में हमसे कोई आगे न जाए इसलिए वह वास्तविक धर्म के कर्पाधारों के मन में निष्कपट भाव से समाज की सेवा करने वाले भक्तों एवं कार्यकर्ताओं के प्रति घृणा द्वेष ही भरते हैं। क्योंकि वह स्वयं तो धार्मिक शास्त्रों का उल्लंघन करते हैं और यदि कोई समझदार व्यक्ति उसको नेक सलाह देना चाहे कि यह कार्य समाज के लिए घातक है तो उत्तर में यहां तक कहते हैं कि हमारे कार्य में कोई दखल देने की भी जरुरत नहीं है। जबकि धर्म प्रचारक को अपने से बड़े अथवा छोटे व्यक्तियों की सलाह लेना आवश्यक समझी जाती है ।
ऐसे वातावरण में वह (धर्म प्रचारक) बाहर से लोगों को दिखाने के लिए अपने धर्म शास्त्रों का सहारा न लेकर अन्य शास्त्रों द्वारा अपना प्रभाव डालना शुरु कर देता है जबकि ब्रह्मविद्या शास्त्र एक ऐसा शास्त्र है जिसमें मानव कल्याणार्थ भगवान श्री चक्रधर जी ने पूर्ण रुप के संकेत तथा मर्यादा बतलाई हैं। आज के कुछ प्रचारक ब्रह्मविद्या शास्त्र को एक ओर रखकर केवल अपनी-२ प्रसंग के लिए ज्योतिष शास्त्र का सहारा लेकर अपना प्रभाव डालते हैं जबकि भगव न श्री चक्रधर जी ने स्पष्ट रुप में कहा है कि ज्योतिष शास्त्र यह देवी देवताओं का शास्त्र है और हम तो एक ईश्वरवादी हैं।
अतः हमें इन शास्त्रों से दूर रहना चाहिए। जो व्यक्ति अथ तु साधक इन शास्त्रों को अपनाए वह धर्म से पतित ही समझा जाता है। आगे श्री चक्रधर महाराज ने खासकर धर्म प्रचारक को विकार विकल्प शून्यना वतलाई है। विकार दोष यदि अनुताप पुरश्चरण तथा प्रायश्चित के द्वारा शांत किया जा सकता है परन्तु विकल्प का मन में संचार होते ही वह धमशुन्य कहलाता है उसे इस ब्रह्माण्ड में ही नहीं बल्कि सारी सृष्टि में शून्य के समान होगा।
अगर देखा जाए तो सही धर्म प्रचारक वही बन सकता है जो स्वयं आचरण भी करता है। स्वयं तो सिवाय अन्य शास्त्रों के कुछ कर नहीं सकता और कर्मठ एवं प्रगतिशील कार्यकर्ताओं पर दोष लगाता है। क्योंकि स्वयं तो वह घृणा की आग में जलता है। घृणा समाज के लिए हानिकारक है। अगर इससे बचना है तो इसका केवल एक ही उपाय है कि हम प्रत्येक व्यक्ति परस्पर में प्रेम करें एक दूसरे का आदर सम्मान करें। अपने शास्त्र में कहे हुए वचनों को प्रथम भलिभांती जानें तत्पश्चात् कार्य करें।
जो प्रचारक अपने गुरु का ध्यान नहीं करता जिसे गुरु भक्ति अच्छी नहीं लगती, जो गुरु से विद्या प्राप्त करके उल्टा उन्हों से अपनी विद्या का अभिमान करता है। जो अपनी कुल परम्परा की कुछ भी परवाह नहीं करता जो ब्रह्मविद्या शास्त्र की आज्ञा को अपने से सदा दूर रखता । इस बात का निर्णय करना कभी नहीं जानता कि कौन सी बात किस समय कैसे कहनी है, कौनसा काम करने योग्य है और कौनसा नहीं करने योग्य है। उसी प्रकार सनमाने नाच-नवाना हो जिस प्रदार सांड बिना किसी बन्धन के चारों तरफ घूमता रहता है। वही पशु पूरा अज्ञानी होता है। जो अपनी विद्या या यौवनावस्था के कारण उसी प्रकार तनकर चलने लगता है प्रकार किसी भक्त के सिर पर देवता की प्रतिमा रखने पर वह स्वयं को समझता है कि मेरे समान और कोई ज्ञानी नहीं है, मैं जो कहता हूं वही कार्य होता है ।
इस प्रकार का धर्म प्रचारक तो भक्तों की अच्छी भावनाओं को उसो प्रकार नष्ट करता है जिस प्रकार दीपक गुण को नष्ट करता है जो स्नेह को उसी प्रकार जलाता है, जिस प्रकार दीपक तेल को जलाता है और उसी प्रकार चारों तरफ दुःख की कालिमा फैलाता है जिस प्रकार दीपक किसी स्थान पर रखें जाने पर चारों ओर अपनी कालिमा फैलाता है। जिसकी अवस्था उस दीपक के समान होती है जो पानी के छींटे पड़ने पर चट चट करता है।
जरा सी हवा लगने पर बुझ जाता है और सहज मे यदि किसी चीज के साथ लग जाए तो सारे घर को जलाकर राख कर देता है। जो लाख समझाने पर जीवन में अनेक ठोकरे तथा, अपयश प्राप्त होने पर भी अपने कुकर्तव्यों को नहीं त्यागता जो केवल अपनी थोड़ी सो विद्या के कारण ही उसी प्रकार सब लोगों के लिए असह्य हो जाता है जिस प्रकार थोड़ा सा प्रकाश करने वाला दीपक भी केवल उतने ही प्रकाश से भारी ताप उत्पन्न करता है अतः हे अर्जुन तात्पर्य यह है कि मैं तुम्हें निश्चित रूप से यह बतलाता हूं कि जिस पुरुष में वह सब बातें होती है उसमें इस प्रकार का अज्ञान भरा रहता है जो सदा बढ़ता जाता हैं।
भाईयों ! आजका समय बड़ा नाजुक है इस समय सबको एक होकर दुष्टों को समाज तथा धार्मिक संस्थाओं से भगाना है तभी वहां शान्ति का वातावरण बन सकता है जो जीवन भर भागते ही रहे कभी घर से कभी समाज से ऐसे धर्म प्रचारक कहने को तो कहते है कि हम गोता को मानते है परन्तु वास्तविकता यह है कि वह ता को तो मानते हैं परन्तु गीता में जो कुछ कहा है उसे नहीं मानते। ऐसे लोग समाज में घुम-घूम कर कहते है कि हम समाज की सेवा कर रहे है आप हमें मदद करें। सन'ज के लोग भी वगैर धन देहर उनकी जेबे भरते है और यह लोग धर्म प्रचार की आड में अपना Bank Balance बनाते हैं।
पाठकों ! यह समय तुच्छ बातों में नष्ट करने के लिए नहीं है। समय कम है, आयु कम है शक्ति कम है अतः समय का सदुपयोग करना होगा: किसी कवि ने कहा है कि Come gentalman, we sit too long on Trifles समय का सदुपयोग करना चाहते हो तो भगवान के सन्देश को ओर ध्यान दो।
भगवान श्री चक्रधर जी का सन्देश तो यह है कि जो जीव मेरी अनु पस्थिति में स्थान प्रसाद भिक्षुक एवं वासनिक के प्रति सद्व्यवहार रखता इष्ट कार्य के लिए अपना जीवन तक लगा देता है किसी की निन्दा चुगलो नहीं करना वही मेरा परम भक्त कहलाता है जो व्यक्ति अपने ही साधक परिवार में बुद्धि नहीं रखता वह मुझ में भी बुद्धि नहीं रखता है। अतः हमें खासकर धर्म प्रचारको में यह विशेष रुप में बुद्धि होना चाहिए क्योंकि गीता में बतलाया है कि यदाचरित श्रेष्टस् तत्तदेवे तरोजनः । यदि धर्म प्रचारक हो अन्य शास्त्र का सहारा लें तथा परस्पर में परमेश्वर मार्गी परिवार का अपमान करें तो बाको भी वैसा हो श्राचरन करेंगें । जो इस प्रकार की योग्यता रखता हो वही सच्चा धर्म प्रचारक कहलाता हैं।
संसार की दुःखाग्नि से तपकर जब एक गृहस्थ शान्ति के लिए दौड़क आता हैं ये उसे धर्म प्रचारक हो शान्ति दिला सकता है अन्यथा आजकल के बाह्य शास्त्रों को ग्रहण करने वाले प्रचारक उसे उसके पूर्व धर्म से भीं निकाल डालेंगे ।