अर्जुन का गर्वहरण - महाभारत कथा - arjun ka garv haran - mahabharat kahani
एक बार अर्जुन को गर्व हुआ कि में अजिंक्य वीर हूं। अश्वमेध यज्ञ के लिए शाम कर्ण घोड़ा छोड़ा हुआ था। उसकी रक्षा के लिए पोछे अर्जुन और उसकी सेना जा रही थी। हंस ध्वज राजा के पुत्र सुधन्वा ने उस घोड़े को पकड़कर बांध लिया और अर्जुन के हजारों सैनिकों के हाथ एक ही बाण से तोड़ दिए। उसके बाद उसने अर्जुन को पुकारा। उसने अर्जुन के धनुष बाण और रथ का तोड़ दिया और अर्जुन को घायल कर दिया जिससे अर्जुन भय भीत होकर भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी का नाम स्मरण करने लगा।
अपने अनन्य प्रेमी भक्त अर्जुन को संकट में फंसा देखकर भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी प्रकट हुए और अर्जुन को सावधान किया। फिर वह युद्ध के लिए दूसरे रथ को लेकर त्यार हुआ । तब सुधन्वा ने एक हो बाण से अर्जुन को रथ सहित आकाश में फेंक दिया परन्तु श्री कृष्णचन्द्र जी की योगमाया से वह रथ सहित पृथ्वी पर आ गया। भगवान ने कहा अर्जुन अब तू लड़ाई बन्द कर दे। सुधन्वा भी मेरा भक्त है । अब युद्ध बन्द करके हस्तिनापुर ही वापस जाना उचित है। परन्तु गर्व के साथ अर्जुन ने प्रण किया कि तान बाण से में सुधन्वा का सिर छेद कर दूंगा। भगवान ने कहा ऐसा करना उचित नहीं है। लेकिन अर्जुन ने अपना प्रण पूरा करने का प्रयास किया।
उसके दो बाण सुधन्वा ने तोड़ दिए फिर तीसरा बाण अर्जुन ने सुधन्वा की तरफ चलाया तो उस बाण पर भगवान ने ब्रह्मदेव तथा रुद्रदेव को स्थापित कर दिया। वह बाण भी सुधन्वा ने तोड़ दिया। तब अर्जुन निराश होकर प्राण त्याग करने को त्यार हुआ। इतने में भगवान की शक्ति से सुधन्वा रथ से नीचे गिर पड़ा और प्राण त्याग दिए। भगवान ने अर्जुन का गर्व हरण करके सुधन्वा को मोक्ष दिया। ऐसी परमेश्वर को लीला अगम्य एवं अपार है। भाव से जो उसकी शरण में आता है उसको सारी चिता परमेश्वर दूर करते हैं ।
एक बार भक्त गरुड़ को भी गर्व हो गया था। उस समय राम भक्त हनुमान तीर्थ यात्रा करते हुए द्वारका नगरी आए तो आश्चर्य चकित हो गए। लंका के समान ही स्वर्णमय द्वारका को देखकर हनुमान जो सोचने लगे कि शायद किसी ने लंका को उठाकर ही यहां रख दिया हो। इतने में नारायण नारायण करते हुए नारद जी वहां पर पहुंच गए। नारद जी को प्रणाम करके हनुमान जी ने उन्हें पूछा कि इस लंका नगरी को यहां उठाकर कौन ले आया? तब नारद जी ने उत्तर दिया कि यह लंका नगरी नहीं है, यह तो द्वारका नगरी है। नारद जी का उत्तर सुनकर हनुमान और अधिक आश्चर्य चकित हा पूछने लगे कि नारद जी ! यहां का राजा कौन है ? नारद मुनि ने सोचा कि यह तो राम भक्त है इसलिए बलराम का ही नाम बतलाना चाहिए। नारद जी ने कहा कि यहां का राजा तो बलराम है।
बलराम का नाम सुनकर हनुमान को क्रोध आ गया और बोले कि मेरे इष्ट राम से बढ़कर दूसरा बलराम कौन हो सकता है ? तब नारद जी कहा कि हनुमान व्यर्थ ही क्रोध मत करो। हनुमान ने नारद जी. से कहो कि आप हरि भक्त हैं। मेरा एक सन्देश इस नगरो के राजा तक पहुंचा दो। नारद मुनी के ठीक कहने पर हनुमान जो ने कहा कि यहां के राजा को कहना कि त्रेतायुग में अवतरित हुए दशरथ पुत्र राम चन्द्र जो का एक अनन्य भक्त आया है और उसका कहना है कि एक तो यह बलराम नाम त्याग दे वरना युद्ध के लिए मैदान में आ जाएं।
हनुमान का सन्देश लेकर नारद जी द्वारका नगरी 'राजभवन' में पहुंचे तो भगवान ने यादवों सहित उनका सहर्ष स्वागत किया और आने का कारण पूछा। नारद जी ने कहा द्वारका नगरी के बाहर उपवन में महाबली हनुमान आए है और वे द्वारका नगरी को उठा कर लंका में ले जाने का विचार कर रहे हैं। मैने उनको किसी प्रकार से ऐसा करने से रोका। फिर उन्होंने मुझे एक सन्देश देकर आपके पास भेजा कि जिसने बलराम नाम धारण किया है वह इस नाम का त्याग करदे अन्यथा युद्ध के लिए मैदान में आ आएं ।
यह सुन कर श्री कृष्ण चन्द्र जी ने हंसते हुए कहा कि भैय्या ! यह तो बड़ा संकट दिवाई देता है। बलराम जो कहने लगे कि उस बन्दर से क्या डरना । भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी जो कहने लगे कि किसी भी शत्रु को दुर्बल नहीं समझना चाहिए। लव और कुश बच्चे ही थे फिर भी उन्होंने राम और भरत को सेना सहित पराजीत कर दिया था। भैय्या ! इस बन्दर की सहायता से ही राम चन्द्र जी ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। बलराम भाई ! इस नाम का त्याग करने से क्या नुक्सान है ? इस नाम का त्याग करके संकट को दूर करो ।