निष्काम कर्म का महत्व - nishkam karma ka mahatva महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता Mahanubhavpanth dnyansarita
संसार में देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति फल की आशा से कोई भी कर्म करता है। कोई धन की आशा से कर्म करता है, कोई मान की इच्छा से और कोई सन्तान की अभिलाषा से कर्म करता है। दुनियावी विचारों से ऊपर उठ कर पारमार्थिक क्रिया करने वालों से भी फलों की अभिलाषा का त्याग सहसा होते हुए नहीं दिखाई देता। भूत-प्रेत वितर या देवताओं की साधना करने वाले भी फल की कामना से ही साधना करते है। जिसका कारण यही है कि हिन्दु समाज के वेद पुराणादि - ग्रन्थों में सकाम कर्मों की ही शिक्षा दी गई है। जिस तरह यह व्रत करने से यह फल मिलता है, यज्ञ करने से यह फल मिलता है। भक्ति करने से यह फल मिलता है।
हिन्दुओं का एक ही एक ग्रन्थ है श्री मद्भगवद् गीता जिसमें निष्काम कर्म के ऊपर भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी ने पूरा जोर लगाया है। क्योंकि निष्काम कम के बिना जीव के साथ लगे हुए अविद्या आदि बन्धन कट नहीं सकते। सकाम कर्मों से तो जीवों के बन्धन बढ़ते ही जाते हैं। एक कर्म का भुगतान होता नहीं कि हजारों कर्मों का बन्धन और लग जाता है। निष्काम कर्म की शिक्षा देने वाला सिर्फ एक ही एक ग्रन्थ श्री मद्भगवद् गीता है। गीता की महानता, श्रेष्ठता, उच्चता, निष्काम कर्म की शिक्षा देने से ही प्राप्त है ।
हमारा जयकृष्णी साम्प्रदाय हिन्दु धर्म की अनेक शाखाओं में से एक प्रमुख शाखा है। क्योंकि दुनियाँ के अनेक साम्प्रदायों में सकामता का वास है। हमारा साम्प्रदाय दुनियावो लौकिक या पारलौकिक फलों की अभिलाषाओं से मुक्त है क्योंकि नित्य मुक्त परमेश्वर के द्वारा हमारा धर्म संस्थापित किया गया है। सकाम कर्म करने वालों की अवस्था अति दैन्य रुप होतीं है। यह हमारा जयकृष्णी साधकों का सौभाग्य है कि आज हम निष्काम कर्म करते हुए जिस परमानंद का अनुभव कर रहे हैं उतना आनन्द तो सकाम कर्म करने वालों के साध्य फलों में भी नहीं है।
भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि निष्काम कर्म योग की श्रेष्ठ सिद्धि आशा अभिलाषादि सकाम कर्मों के फलों की इच्छा का त्याग करने पर ही प्राप्त होती हैं। गीता का प्रमुख सिद्धांत है कि कर्म करना ही मनुष्य का कर्तव्य है, फल की इच्छा न रखें और फल की इच्छा नहीं है अतः कर्म करना न छोड़ें। गिनेचुने धर्मों को छोड़कर सभी धर्म साम्प्रदाय के लोग गीता शास्त्र को मानते हैं परन्तु उसका अनुसरण नहीं करते । जय कृष्णी गीता शास्त्र को मानते भी हैं ओर उसका पूर्ण रुप से अनुकरण भी करते हैं। वास्तविक गीता के पुजारी संसार में केवल जयकृष्णी ही हैं।
सर्वज्ञ श्री चक्रधर महाराज ने गारंटी दी हुई है कि भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी पूर्ण परब्रह्म परमेश्वर के अवतार थे और गीता उनके श्रीमुख का परम पवित्र ग्रन्थ है, जयकृष्णी भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी के अनन्य भक्त और गीता के परम उपासक होते हैं । सर्वज्ञ श्री चक्रधर महाराज ने धर्म स्थापना करते समय नाम स्मरण की मालिका में भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी का नाम प्रथम क्रमांक पर रखा हैं ।
स्वामी का कहना है कि द्वापर युग के ८ लाख वर्षों में भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी के समान सुन्दर कोई व्यक्ति नहीं जन्मा । उनके अन्दर वेध शक्ति इतनी प्रबल थी कि क्षिराब्धि में शेष नारायण ने उनका नाम उच्चारण किया जिससे लक्ष्मी को वेध हो गया था ।
गीता के प्रति स्वामी के मन में बड़ा आदर था। स्वामी एक बार उदास हो गए थे उस समय भक्तों ने पूछा महाराज ! किस उपाय से आपकी उदासीनता दूर हो सकती है ? स्वामी ने कहा म्हाइम भट्ट को बुलाकर लाओ उसके प्रति हम गीता के गूढ़ रहस्यों को प्रकट करेंगे। उदासीनता त्याग देंगे। जिस तरह स्वामी के अन्तःकरण में गोता के प्रति आदर और सम्मान था साधकों के दिल में भी पैसा ही आदर सम्मान है।
श्री कृष्ण चन्द्र भगवान और हमारे स्वामी भिन्न नहीं एक हो पूर्ण पर ब्रह्म के अवतार थे । भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी ने समय के अनुसार विद्वान अर्जुन के प्रति थोड़े में ही तात्विक गूढ़ रहस्यों को समझाया। वैसे ही कलियुग के अन्दर यहाँ के मन्दबुद्धि मनुष्यों की अन्तःकरण सामग्री को समझ कर सर्व सामान्य जनता को सरल मराठी भाषा में विस्तृत ज्ञानोपदेश किया जिसे "ब्रह्मविद्या शास्त्र" नाम से पहचाना जाता है। ब्रह्मविद्या में विधि विधान को करते हुए फलाशा का त्याग करने की आज्ञा दी है। जो भी कुछ कर्म करना है परमेश्वर की आज्ञा समझकर करें । भगवान क्या देंगे और क्या नहीं, स्वप्न में भी उसका ख्याल न करें यही जय कृष्णी सम्प्रदाय की आचार संहिता है ।