दुर्वासा को सीख - महाभारत - mahabharat

दुर्वासा को सीख - महाभारत - mahabharat

 दुर्वासा को सीख -

 महाभारत कहाणी - mahabharat

पाण्डवों को जंगल में भेज कर भी दुर्योधन को चैन नहीं आई । एक दिन दुर्वासा कुरुपति के दरबार में पहुंचे। रुदन करते हुए दुर्योधन बोला ऋषि राज ! आपकी बड़ी कृपा हुई जो दर्शन दिए। सन्तों के दर्शन से सन्ताप दूर हो जाते हैं । मैं बड़ा दुःखी हूं मेरी बीमारी का इलाज कोई नहीं बतलाता । पापी पाण्डवों के मारे मेरी नाक में दम है। वे नित नए नए षडयन्त्र रघाते हैं जिससे हमें नींद भी नहीं आती । मैंने उनपर तरस खाकर अपना आधा राज्य उन्हें दिया था। परन्तु जुआरियों ने मिल-जुलकर जुए पर लगा दिया। वह तो अच्छा हुआ कि हमारा राज्य हमें ही मिल गया । 

अब फिर जंगल में भाग गए कोई नया स्वांग बना कर आएंगे पता नहीं अब किससे मिलकर कौन सा तूफान खड़ा करेंगे । आपकी कृपा हुई तो यह संकट टल सकता है। दुर्योधन की कपट युक्त बातें सुनकर दुर्वासा क्रोधित होकर बोले बड़ा अफसोस है कि राजा होकर भी छल छिद्र से भरे हैं। शाँति रखें मैं उन्हें अच्छे मार्ग पर लाऊंगा या शाप देकर भस्म कर डालूँगा । इस प्रकार दुर्वासा ने दुर्योधन को धीरज बंधाया और आप साठ हजार साधु लेकर धर्मराज के पास रात के १२ बजे पहुंचे। 

पाण्डवों ने नम्रता पूर्वक प्रणाम किया और सेवा के लिए निवेदन किया। दुर्वासा न कहा हम बहुत भूख लगी है सभी साधुओं के लिए खाने का प्रबन्ध करें अन्यथा इन्कार कर दें ताकि हम ओर कहीं जाकर भोजन की मांग करें क्योंकि कुछ दिनों से सभी साधु भूखे-प्यासे हैं । इससे पहले कुछ ब्राह्मण भी धर्मराज के द्वार पर आए थे, वे सभी भाग्य के सताए एवं भूखे थे । परन्तु बिचारे करे क्या? जिस समस्या का कोई हल ही नहीं था । भगवान श्री कृष्ण चन्द्र की कृपा से सूत्र ने एक थाली दी हुई थी उसका प्रभाव यह था कि सुबह से शाम तक कितने भी व्यक्ति खाना खा लें बर्तन खाली नहीं होता था। एक बार उसको धो देने पर फिर दूसरे दिन तक कुछ भी नहीं मिलता था । 

धर्मराज की उसी पात्र तक आशा थी । वे दौड़कर द्रौपदी के पास गए और बोले देवी ! ऋषि राज दुर्वासा साठ हजार ऋषियों के सहित पधारे है वे भुव से बहुत सताए हैं। चोख मार कर द्रौपदी बोली मैं तो सब कुछ खो चुकी हूं। हे प्राण नाथ थोड़ी ही देर पहले मैं सूर्य पात्र को धो चुकी हूं । द्रौपदी के शब्द सुनकर धर्मराज गश खाकर गिर पड़े । राज्य भी गया लज्जा भी गई जैसे तैसे धर्म को बचाया है परन्तु अब समझ में आ गई कि अब वह भी समाप्त होने वाला है । 

बोले ओ विश्वपालक मनमोहन ! आओ । ओ यशोदानन्दन खबर लीजे । ओ अशरण शरण ! खबर लीजे । ओ संकट हरण ! खबर लीजे । हम तो तेरे नाम का आधार लेकर तेरे द्वार पर बैठे हैं। हे द्वारका नाथ ! तेरे सिवाक हमें किसी का सहारा नहीं है। हे प्रभो ! इस समय हम घोर संकट से घेरे गए हैं। आज तक हमारे द्वार से कोई भी याचक खाली नहीं गया । दुर्वासा जैसे ऋषि हमारे द्वार से विन मुख चले जाएं यह तो हमारे लिए मौत से भी ज्यादा दुःख दायी है। हम आपके बालक हैं आपके ही सहारे जी रहे हैं । हे अन्तर्यामी शीघ्र आकर हमारे धर्म की रक्षा करो।

युधिष्ठर की दुःख भरी आतं पुकार को सुनकर भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी वहां तत्काल पहुंच गए। द्रौपदी को कहा बहिन ! भूख के प्राण निकल रहे हैं कुछ खाने के लिए दो। द्रौपदी ने कहा प्रभु ! आपको मजाक करने की आदत ही पड़ी है। क्या घावों पर नमक डालने के लिए हमने आपको यहां बुलाया है ? दुनियां वाले हमारी परीक्षा लेना चाहते हैं, साठ हजार ऋषिगण दरवाजे पर भूखे बैठे हैं आप भी उनकी प्रगती में बेठ जाओ । भगवान ने फिर कहा मैं हंसी नहीं कर रहा हूं, जो कुछ भी तेरे पास हो लाकर दे । यदि कुछ नहीं है तो सूर्यपात्र ही मुझको दिखला दे । 

पांचाली ने सूर्य पात्र प्रभु के सम्मुख रख दिया और कहा भैया ! आपको मेरे शब्दों पर विश्वास नहीं है ? देख लीजिए पात्र खाली है। लीलामय प्रभु सूर्यपात्र को हाथों में लेकर ध्यान से देख रहे थे उस पात्र के किनारे पर एक अन्नकण दिखाई दिया उसे भगवान ने अपने मुंह में डाल लिया। होता क्या है कि क्षणमात्र में ही वहां भोजन सामग्री के ढेर के ढेर लग गए। फिर भगवान कहते हैं द्रौपदी ! इतने कुछ पदार्थ होते हुए मुझ से तू हंसी कर रही थी। सूर्यपात्र पूरा भरा पड़ा है, तू व्यर्थ में ही चिंतातुर होकर चिल्ला रही है। ऋषियों को भोजन के लिए स्नान करके आने के लिए कहा। उन ऋषियों के पेट बिना कुछ खाये हो इतने भर गए थे कि एक ग्रास भी खाने की गुंजाइस नहीं थी । ऋषियों सहित दुर्वासा शरम के मारे वहां से बिना कुछ खाए-पीए ही भाग निकले।

एक दिन सहदेव सरोवर पर पानी लेने के लिए गए। पानी में से ग्राह ने निकल कर कहा महाशय ! जो कोई मेरे प्रश्नों का सही उत्तर दे सकता है वही यहां से पानी ले जा सकता है वरना नहीं। सहदेव सीधे साधे थे ग्राह के प्रश्नों का उत्तर वे नहीं दे सके अतः ग्राह ने उसे निगल लिया। इसी तरह नकुल, भीम और अर्जुन को उसने अपना ग्रास बना लिया। अन्त में धर्मराज सरोवर पर पहुंचे। ग्राह ने कहा पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दीजिए बाद में पानी को छू सकते हैं। 

पहले बतलाओ कि संसार में वास्तविक जीवित कौन है ? धर्मराज ने उसका उतर दिया कि जो सत्यवादी है, शांत है, परोपकार के लिए सेवा में समय व्यतीत कर रहा है और जो परमेश्वर का भक्त है वह मरकर भी अमर कहलाता है। ग्राह ने प्रसन्न होकर सहदेव को छोड़ दिया । फिर युधिष्ठर ने समझाया कि जिसके जीवन का अंश अंश गुरुजनों की सेवा में व्यतीत होता है वह धर्मात्मा मरकर भी जीवित रहता है। अब की बार नकुल को छोड़ दिया।

फिर धर्मराज ने कहा कि जो धर्म शास्त्रों को जानता है, अपनी इन्द्रियों को वश में की हुई है। संसार के सभी प्राणियों को जो भाई के समान समझता है, परोपकार करता है, दूसरों का हित चिंतन करता है वह धर्म अधिकारी माता का पुत्र मरकर भी अमर हो जाता है। इस उत्तर से खुश होकर ग्राह ने अर्जुन को छोड़ दिया। बाद में धर्मराज ने कहा कि ज्ञानी और योगीजन ही संसार में जीवित है। अरे दुष्ट! तेरे जैसे राक्षक जीवित होकर भी मृतक समान है। यह सुनकर ग्राह ने भीम को छोड़ दिया और धर्मराज के चरणों में शर्मिंदा होकर गिर पड़ा ।

धर्मराज की चरणरज से ग्राह तक्ष रुप में बदल गया। हाथ जोड़कर उसने कहा कि राजन ! किसी समय मैं तक्षों का राजा था। एक बार जंगल में गया हुआ था वहां पालखी उठाने वाले की मृत्यु हो जाने से मेरे नौकर एक साधु को पकड़ कर ले आए उससे पालकी उठवा कर घर तक ले आए। साधु ने कुछ नहीं कहा। उसे भोजन तक को किसोने नहीं पूछा वह भूखा प्यासा कोने में पड़ा हुआ था। मैं तकिए के सहारे लेटा हुआ था, पहरेदार दरवाजे पर खड़े थे। पहले प्रहर में मैंने पूछा इस समय कौन जाग रहा है; साधु न कहा जो अशान्त है, भूख से व्याकुल है वह पुरुष जागता है शेष संसार सोया हुआ है। दूसरे प्रहर पूछने पर साधु ने कहा जो द्वन्दों से रहित है वह योगी फक्त जाग रहा है. बाको संसार सोया हुआ है। तोसरे प्रहर पुछने पर साधु बोला कि जो विरही ज्ञानी है वह जाग रहा है शेष सब संसार सोया हुआ है। मैंने चोथे प्रहर फिर सवाल किया तब उस शान्ति की मूर्ति को क्रोध का उबाल आ गया। वह बोला अन्धे ! जिसके द्वार पर भूखा बेचैन है वह जाग रहा है, केवल वह मूर्ख सो रहा है।

अरे स्वार्थी ! अपनी पालखी उठवाने की तुझको चिन्ता थी परन्तु घर पर पहुंचने पर भूखे को पानी तक भी पिलाने को तुझको याद नहीं आई। अरे पामर ! इस पाप का दण्ड भोग ग्राह बन कर मुझ प्यासे की बद् दुआ का । फिर तुझको पता चलेगा। उस समय मैं मूर्ख उनके चरणों में गिर कर गिड़गिड़ाने लगा तब उन महापुरुष को दया आ गई उन्होंने कहा राजन् ! शाप वश तुझको ग्राह का आकार प्राप्त होगा कुछ ही दिनों में धर्मराज के चरण स्पर्श से तू ग्राह योनि से मुक्त हो जायगा । कृपा से वह समय आज आगया। आपके चरणों के रज से मुझको अपना पूर्व परमात्मा की शरीर प्राप्त हुआ। वह यक्ष धर्मराज के उपकार मान कर अपने शहर ओर चल पड़ा। इधर धर्मराज सह परिवार द्वैत वन की ओर सिधारे ।


Thank you

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