भगवान को विड़ा चढाने की विधि तथा महत्व क्या है? और विड़ा चढ़ाने वाले पदार्थों का महत्व क्या है ?
विड़ा अर्पित करने के दो उद्देश्य होते हैं। एक तो अपने से श्रेष्ठ पूजनीय एवं वन्दनीय व्यक्त को मिलते समय विड़ा अर्पित करने की पुरानी परम्परा है। जिस तरह राजा या राजमान्य पुरुष या गुरुजन अथवा इष्ट या परमेश्वर अवतार को मिलते समय खाली हाथ नहीं मिलना चाहिए नीति ग्रन्थों में लिखा है । "रिक्त पाणि न पश्यन्ति राजानां देवता गुरु : विशेष व्यक्ति को मिलते समय कुछ न कुछ उद्देश्य जरूर होता है। भेटा न देकर मिलने से कार्य की सिद्धि नहीं होती ।
गदोनायक जैल में बन्द हो चुके थे । रामदेव स्वामी के दर्शन के लिए एक बार जाने वाले थे। गदोनायक ने कहा महात्मन् ! आप स्वामी के दर्शन के लिए जा रहे है अतः मेरी तरफ से जैल से मुक्त होने के लिए स्वामी से प्रार्थना करना । रामदेव स्वामी को मिले और कुछ भेंट न देकर प्रार्थना की। स्वामी ने कहा रामदेव ! भेट न देकर प्रार्थना की है इसलिए गदोनायक अभी जैल से मुक्त नहीं होंगे। इससे स्पष्ट होता है कि किसी कार्य की सिद्धि के लिए भेट जरुरी है। परमेश्वर अवतार विद्यमान हो तो उन्हें मिलते समय कोई न कोई फल अर्पित करके मिलना चाहिए। अब हम असन्निधान में हैं।
स्वामी ने हमें मोक्ष प्राप्ति के लिए चार साधन बतलाए हैं (स्थान, प्रसाद, वासनीक, और भिक्षुक) इन चारों साधनों को मिलते समय पान सुपारी लवंग इलायची नारियल या अन्य कोई भी फल हो समय पर जो भी प्राप्त हो सके भेंट करना चाहिए। नारियल सभी फलो में श्रेष्ठ और शुभ माना जाता है। नारियल को "श्रीफल” इसीलिए कहते हैं। स्थानों पर नमस्कार करते समय फल-फूल चढ़ा कर नमस्कार किया जाता है। प्रसाद वन्दन करके फल-फूल चढ़ाते हैं। साधु महात्मा एक-दूसरे को मिलते समय सुपारी फल या नारियल एक-दूसरे को देकर गले मिलते हैं। वैसे ही महात्मा को मिलते समय भेट देकर मिलते हैं जिसे दर्शन भेट कहते हैं। इसी तरह वासनीकों ने भी एक-दूसरे को सुपारी फल देकर मिलना चाहिए।
एक तो सहज मिलते समय विड़ा अर्पित किया जाता है। और दूसरा प्रकार विड़ा उठवाने का होता है। पुराने समय में कठिण कार्य करवाने के लिए राजा लोग सभा बुलाकर टेबल पर विड़ा रखकर बतलाते थे कि यह कार्य करना है। इस कार्य की जिम्मेवारी कौन लेता है ? जो भी व्यक्ति उस कार्य को करने की क्षमता रखता था उठकर पान का बीड़ा लेकर मुंह में डालकर राजा को प्रणाम करके उस कार्य में लग जाता था ।
वैसे ही संसारी आदमी के पीछे अनेक समस्याएं उपस्थित होती हो रहती है जिसका हल करने में मनुष्य अपने आप को असमर्थ समझता है। ऐसे समय में प्रमुख नारियल शेष पान सुपारी आदि फल का विड़ा "पूजा प्रसाद को अर्पित करके भगवान से प्रार्थना पूर्वक सहायता चाहता है। गीता के अनुसार जो भी भक्त (जिस जिस भावना से परमेश्वर की आराधना करता है परमेश्वर उसकी 'वह' इच्छा पूरी करते है । विड़ा चाहे निष्काम हो या सकाम वापस लेने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। प्रेम-पूर्वक दृढ विश्वास रखते हुए विड़ा अर्पित करके प्रार्थना करके दण्डवतें डालकर कुछ देर बैठकर नाम स्मरण करने से परमेश्वर स्वीकार करते हैं।
आज-कल तो विड़ा बाद में चढाएंगे परन्तु विडे का प्रसाद वापस लेने की इच्छा पहले रखते हैं। अवसर प्रसंगों पर देखने में आता है कि विड़ा अभी रखा भी नहीं कि वापस कर दिया जाता है। ऐसा करने से पता नहीं भगवान कितना स्वीकार करते हैं दूसरी बात यह है कि अवसर प्रसंगों पर भोजन की थालियां परोस कर पूजा के आगे रख देते हैं और भजन कीर्तन या प्रवचन होता रहता है। बहुत अधिक समय बीत जाने से खाना इतना ठण्डा हो जाता है कि उसे खाने की मनुष्य के दिल में भी इच्छा नहीं होती फिर भगवान कैसे स्वीकार करेंगे ?
मेरे ख्याल से तो ऐसा चाहिए कि अवसर पर भोग लगाने वाले "नाम स्मरण" के लिए बैठ जाएं, आरतीयां बोलना शुरु कर दें, पांचवी आरती बोलना शुरु करें उस समय गरम खाना थाल में परोस कर लाया जाय। थाली रखने पर तुरन्त भोग लगाना चाहिए साधनों की महता को समझना चाहिए क्योंकि साधन अति दुर्लभ हैं परम पवित्र हैं । गीता में भगवान ने कहा है "जिसने परमेश्वर को ही अपना सब कुछ माना है वह महान आत्मा दुर्लभ से भी दुर्लभ है ।
"साधनों के मिलाप का बड़ा भारी महत्व शास्त्र मं बतलाया है । साधनों का जितनी अधिक मात्रा में मिलाप होता है उतना ही अधिक इष्ट-दायक होता है । साधनों के मिलाप को "मंगल काल" या अवसर प्रसंग" कहते हैं । अवसर प्रसंग के विविध लाभ अवसर प्रसंग पर विविध गुणों अलंकृत अनेक साधकों का मिलाप होता है। कोई ज्ञानी है, कोई विरक्त है, कोई भवितवान् है, कोई सेवक है, कोई भजक है; कोई स्मरणीशील है। शास्त्र पढ़ने से उपरोक्त गुणों का परिचय होता है परन्तु प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते ।
अवसर प्रसंग पर सभी गुणों का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। जो गुण स्वयं के अन्दर नहीं हो तो श्रद्धा पूर्वक दूसरों के गुणों की ओर देखने से वह-2 गुण स्वयं के अन्दर आता है। जिस तरह ज्ञानी को देखकर शास्त्र पढ़ने-सुनने की इच्छा होती है। भक्तिवान् को देखकर श्रद्धाभाव और प्रेम जागृत होता है । विरक्त को देखकर अपने शरीर की ममता मोह नष्ट होती है । स्मरण शील को देखकर नाम-स्मरण करने की भावना उत्पन्न होती है। सेवा करने वाले को देखकर आलस का त्याग होता है।
दानी सज्जनों को देखकर कंजूसी कृपणता नष्ट होकर दान करने की इच्छा होती हैं। जिन साधु महात्मा और भक्तों की वर्षों तक मिलाप होने की संभावना नहीं होती उनका सहज स्वभाविक मिलाप हो जाता है। यदि अलग-2 स्थानों पर जाकर भेट करना भी चाहे तो उसके लिए पर्याप्त समय और द्रव्य की जरुरत होती है अवसर प्रसंग पर थोड़े समय और बहुत कम खर्चे से बहुत अधिक साधु-सन्तों एवं वासनीक भक्तों का मिलाप हो जाता है। मंगल काल, अवसर प्रसंग या अधिवेशन करने का उद्देश्य होता है धर्म प्रचार अवसर प्रसंग देखने से धर्म के प्रति दृढता आती है जिस शहर या गांव में जय कृष्णी भक्त जनता संख्या में कम होती है उन्हें दुःख होता है कि हमारा प्रचार नहीं होता हम बहुत कम है अतः धर्म के प्रति उदासीनता आती है।
धीरे-2 मनुष्य अपना धर्म छोड़कर दूसरे धर्म में प्रवेश कर जाता है। सामान्य जनता को धर्म में दृढ़ करने के लिए ही अधिवेशन करने की प्रथा शुरु की गई । अवसर प्रसंग पर बहुत अधिक संख्या में अच्युत गोत्रीय धर्म बन्धुओं का मेल-मिलाप, कथा-वार्ता, एक-दूसरे के अनुभवों की जानकारी होकर मनुष्य के अन्तःकरण में नई जागृति, नई चेतनता, निर्माण होती है। अवसर संग की प्रत्येक धर्म बन्धु के मन में लालसा होती है, अतः प्रार्थना के समय कहा जाता है। "अवसर जोड, मार्ग जोड, मार्ग की प्रसन्नता जोड़, नहीं जोड़ी तो भी जोड़” ।
सारांश : हे प्रभो ! आपकी कृपा से मुझे अवसर प्रसंग का लाभ मिलना चाहिए, धर्म-बन्धुओं की प्रसन्नता प्राप्त हो । हे प्रभो ! मेरे भाग्य में अवसर प्रसंग का लाभ नहीं लिखा हो फिर भी अवसर प्रसंग का लाभ मुझे प्राप्त करवाएं।