हिंदू धर्म में द्वैतवाद तथा अद्वैतवाद
dvaitavaad tatha advaitavaad
वैसे तो धर्म अनेक हैं, पर अपने हिन्दु धर्म में भी अनेक पंथ हैं। जिनमें दो का मुख्य जोर है। एक तो अद्वैतवाद तथा दूसरा द्वैतवाद। अद्वैतवाद यानि “अहम् ब्रह्मास्मि" वाली सोच यानि कि - ब्रह्म तथा जीव एक ही है। जीव केवल भ्रमित है, इसीलिये ब्रह्म वाले अपने मूल स्वरुप को भूला बैठे हैं। इस भ्रम को दूर करने का ज्ञान प्राप्त कर लेना ही मोक्ष है।
इन अद्वैतवादियों से अगर यह पूछा जाए कि- यदि जीव ही ब्रह्म है, तो उस ब्रह्म को अज्ञान या भ्रम हुआ ही क्यों? या फिर किसी को किसी की भक्ति करने की जरुरत ही क्या है? या फिर उस ब्रह्म को दुनिया के क्लेश से गुजरना ही क्यों पड़ रहा है? तो उनके पास कोई संतोष जनक उत्तर नहीं है। अपने को जगद्गुरु कहलाने वाले एक अति प्रसिद्ध अद्वैतवादी गुरु से जब यह पूछा कि गीता के पन्द्रहवें अध्याय के सत्रहवें श्लोक, "उत्तम: " पुरुष.. का अर्थ फिर क्या हुआ, तो वह निरुत्तर होकर एवं क्रोधित होकर तेजी से दूसरी तरफ चले गए।
अद्वैतवाद की मान्यता के लिये आदि शंकराचार्य को निमित्त माना जाता है। पर अद्वैतवादि यह अनदेखा कर जाते हैं कि उसी अद्वैतवाद को भूल कर स्वयं आदि शंकराचार्य ने अपने जीवन के अन्तिम भाग में न केवल स्वयं भी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी की भक्ति की, बल्कि अपनी माता को भी उन्होंने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी का भक्त बना डाला। स्वयं आदि शंकराचार्य ने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी की स्तुति में अनेक सुन्दर रचनाएं की। वह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी को नाथ (स्वामी) कहते थे।
उनकी एक रचना में अन्तःकरण की शुद्धि के बारे में लिखा है: - “श्रीकृष्ण भक्ति के बिना अन्त:करण की " शुद्धि हो ही नहीं सकती"। दूसरी रचना में साफ कहा है: - “संसार से ममता तोड़ कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी की भक्ति करने वाला ही निश्चिन्त रहता है"। एक और रचना का अर्थ है:
"यमुना के तट पर स्थित वृन्दावन की किसी अति मनोहर वाटिका में कल्प वृक्ष के नीचे की भूमि पर चरण पर चरण रखे श्रीकृष्ण बैठे हैं। जो नवीन बादलों के समान श्याम वर्ण के हैं एवं शरीर में कपूर से मिश्रित चन्दन का लेप किये हुए हैं। जिनके कर्ण पर्यन्त बड़े -2 नेत्र हैं। कान सुन्दर कुण्डल सुशोभित हैं। मुखारविन्द से मंद - 2 मुस्कुरा रहे हैं। जिनके वक्ष स्थल पर कौस्तुभ मणि युक्त सुन्दर मालायें सुशोभित हो रही हैं। जो अपनी कान्ति से कंकण एवं अंगूठी आदि मनोहर गहनों की कान्ति को दुगना कर रहे हैं।
जिनके गले में वर माला लटक रही है। जिन्होंने अपने तेज प्रभाव से कलिकाल को नष्ट कर दिया है। जिनका गुंजावली अलंकृत मस्तक गूंजते हुए भौरों से शोभायमान हो रहा है। किसी कुञ्ज के भीतर बैठ कर ग्वाल बालों के साथ भोजन करते हुए उन श्रीकृष्ण का स्मरण करो। जो कल्पवृक्ष के फूलों की सुगन्धि से युक्त मंद मंद वायु से सेवित है। जो स्वयं परमानन्द स्वरुप है। उन परमानन्द दायक श्रीकृष्ण का स्मरण करो । जिन्होंने समस्त दिशाओं को सुगन्धित कर रखा है। जो सैंकड़ों कामधेनु से भी सुन्दर गायों से घिरे हुए हैं। जो देवताओं के भय को दूर करने वाले एवं भयानक राक्षसों को भी भयभीत करने वाले हैं, उन यदुनन्दन का स्मरण करो"।
इसके बावजूद आज भारत में अद्वैतवादियों की कमी नहीं है। सर्वज्ञ श्रीचक्रधर स्वामी जी द्वैतवाद के बारे में तो परमेश्वर भक्तों को पता ही है। इन मान्यताओं के बीच में और भी कई मत हैं। जैसे विशिष्टवाद मत, पूर्ण द्वैत मत, द्वैताद्वैत मत, शुद्धाद्वैत्वाद मत तथा और भी कई मत हैं, जिनके बारे में लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह सभी मत भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी तथा उनकी गीता की मान्यता को सादर स्वीकार करते हैं।
मजेदार बात यह है कि- आजकल कई मतों के अपने-2 ब्रह्मविद्या शास्त्र भी हैं, जो श्रीचक्रधर स्वामी जी के परमेश्वर धर्म के ब्रह्मविद्या शास्त्र से काफी मिलते-जुलते हैं। जिन मतों की धारणायें पहले काफी भिन्न थी अर्थात् विचार काफी अलग थे, उन्होंने भी अपने शास्त्रों में परिवर्तन किया है तथा इन मतों के प्रवाचक अब कुछ हद तक परमेश्वर धर्म के विचारों से मिलती-जुलती बातें बोलने लगे हैं।
इन सब के बावजूद पंथों के विचारों व आचरण में काफी भिन्नता आज भी है। धर्म- चर्चा के नाम पर बहस करते तथा क्रोधित होते हुए लोगों की भी कमी नहीं है। प्रत्येक धर्म के लगभग सभी गुरुओं ने धर्म- चर्चा करने को तथा चिन्तन-मंथन करने को कहा है ताकि कुछ नया निकले, जिससे धर्म आचरण में भक्तों को लाभ हो सके।
वास्तव में धर्म-चर्चा का बड़ा महत्व है। स्वामी जी ने स्वयं इसे उपयोगी बताया है। भिन्न - 2 संस्कारों, शिक्षा, देश, काल व परिस्थितियों 1-2 अनुसार लोगों के दृष्टिकोण में भिन्नता होना कोई आश्चर्य की बात के नहीं है। ऐसे में परमेश्वर प्राप्ति के मार्ग के बारे में चर्चा करना तथा किसी भक्त के संशय को करना भी परमेश्वर अर्पित सेवा ही मानी दूर जाती है। इन सबके पीछे लक्ष्य यही है कि कैसे परमेश्वर प्राप्ति शीघ्र अति शीघ्र हो सके।
विधियों का पालन भी उचित तरीके से हो सके। अविधियों को कैसे समाप्त किया जा सके तथा धर्म पालन में एक दूसरे की सहायता किस प्रकार की जा सके। किसी को चाहे कितना ही ज्ञान या अनुभव क्यों न हो, कोई न कोई ऐसा नया भक्त आ ही जाता है, जिसका दृष्टिकोण कुछ नया हो। यह सभी के लिये सहायक है। धर्म-चर्चा से सचमुच नई-2 बातें निकलती ही हैं। अब यह देखते हैं कि किसी भी धर्म के अनुयायी साधारणतया किस प्रकार के होते हैं।
एक श्रेणी में तो वह शिष्य या भक्त हैं कि जैसी उनके धर्म की मुख्य मान्यता है या जैसा उनके धर्म के बड़े लोगों ने बताया है, वह बिना प्रश्न किये चुपचाप मान लेते हैं, चाहे वह अन्धविश्वास ही क्यों न हो। बचपन से ही इनका brain wash कर दिया गया है ताकि यह कुछ और भिन्न सोच ही न सकें। ऐसे शिष्य अपने धर्म के लिये लड़ मरते हैं तथा थोड़ी सी भिन्नता या कुछ और सहन ही नहीं कर सकते। कई तो क्रोधित होकर बहस करते नजर आते हैं।
उदाहरण के तौर पर आज के युग में भी ऐसे धर्म हैं जिनको ये भी मान्य है कि - भिन्न मत या भिन्न धर्म के लोगों को इस संसार में रहना ही नहीं चाहिए तथा उनको जान से मार देना भी पुण्य का काम है। कलियुगी अवतार सर्वज्ञ श्रीचक्रधर महाराज जी ने इस बात को सींग का दृष्टान्त देकर समझाया कि गुरु के कहने पर एक शिष्य सचमुच समझ बैठा कि - उसके सचमुच के ही सींग हैं, यह प्रतीति नहीं, अन्धविश्वास है।
ये अन्धविश्वास दूसरे लोगों को बड़े अजीब लगते हैं। इसका परिणाम आजकल यह हो गया है कि- चाहे कोई कितना ही शुद्ध क्यों न हो, जहां भी पंथ, सम्प्रदाय जैसे शब्द हैं, दूसरे लोग उस समाज को बड़े ही शक की नजर से देखते हैं तथा उन्हें एक जैसे समझते हैं, जो कि अपने आप में एक बड़ा नकारात्मक शब्द माना जाता है। इसलिये आज के युग में पंथ के बजाये धर्म कहना अधिक उचित है। एक यह भी कारण है कि- इस लेख में यहां परमेश्वर धर्म का शब्द प्रयोग किया गया है, जो कि- वास्तव में महानुभाव जयकृष्णी धर्म ही है। यह धर्म परमेश्वर द्वारा स्थापित है तथा परमेश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखलाता है। इसलिये परमेश्वर की ओर ले जाने वाले धर्म को, परमेश्वर धर्म कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये।
एक अलग श्रेणी में वे भक्त हैं, जो स्वयं को अच्छा दिखने को सामने तो चुपचाप बात मान लेते हैं तथा मुख्य मान्यता के अनुसार धर्म विधियों को पालन भी करते दिखते हैं पर घर जाकर या अन्य मित्रों के सामने अविश्वास को प्रकट करते रहते हैं। वह रहते धर्म में हैं पर अन्दर से धर्म में वास्तविक प्रतीति नहीं।
एक श्रेणी में वे भी भक्त हैं कि जो दूसरों के सामने अपने अविश्वास को प्रकट नहीं करते परन्तु धर्म पर पूर्णतया विश्वास भी नहीं रखते। वे रहते धर्म में ही हैं परन्तु अन्दर से धर्म में वास्तविक प्रतीति नहीं। बिना श्रद्धा के भक्ति अर्थहीन रह जाती है। कई बिना किसी से कुछ कहे चुपचाप अपने लिये वह मार्ग चुन लेते हैं, जिसमें उनकी वास्तविक है पर दूसरों के सामने अपने धर्म में ही बने दिखते रहते हैं।
एक और अलग श्रेणी के भक्त ऐसे भी हैं जो धर्म- चर्चा में पूरा भाग लेगे हैं। कई प्रकार के प्रश्न पूछते रहते हैं, जब तक सन्तोष न हो जाये, इनका चिन्तन- मन्थन चलता रहता है। चाहे ये अकेले में स्वयं से ही धर्म- चर्चा क्यों न कर रहे हों। ये भक्त धर्म के लिये बड़े लाभदायक व सहयोगी होते हैं। स्वामी जी ने महदाइसा की प्रशंसा की थी क्योंकि वह प्रश्न पूछते थकती नहीं थी तथा उसके प्रश्नों के उत्तर जब - 2 स्वामी जी देते थे, तो अन्य भक्तों को भी लाभ होता था।