मन ही मनुष्य का दुश्मन है - man hi manushy ka dushman hai 

मन ही मनुष्य का दुश्मन है - man hi manushy ka dushman hai 

मन ही मनुष्य का दुश्मन है - 

man hi manushy ka dushman hai 

संसार में मनुष्य के अनेक शत्रु होते हैं, वैसे ही मित्र भी अनेक होते हैं। जिस तरह बाहरी दुष्मनों का प्रतिकार सहज ही किया जा सकता है परन्तु देश द्रोहियों का, उग्रवादियों का प्रतिकार करना बहुत ही कठिन होता है अतः आन्तरिक दुष्मन अधिक हानि पहुँचाते हैं। वैसे ही बाहर के मित्र इतनी सहायता नहीं कर सकते, जितने नजदीकी मदद कर सकते हैं। वैसे ही सदा-सर्वदा मनुष्य के पास रहने वाला मन मित्र का पार्ट भी बहुत अच्छा अदा करता है और दुष्मन का पार्ट अदा करने में भी कसर नहीं रखता।

जिन हाथों से मनुष्य अपनी प्यारी बेटी को स्पर्श करता है तो उसके मन में पवित्र भावना होती है और उन्हीं हाथों से पत्नी को स्पर्श करते हुए अपवित्र, विकार भावना होती है। इसीलिये नीति शास्त्रों में मन को ही मुक्ति और बन्धन का कारण बतलाया है। धर्म - शास्त्रों में भी मन को ही मुक्ति और बन्धन का कारण बतलाया है। जैसे कि सुबह जल्दी उठना, दण्डवतें डालना, नामस्मरण करना, पूजा-पाठ करना, साधु-सन्तों की अन्न - जल, द्रव्य - वस्त्रादि से सेवा करना, आश्रमों में जाना, पंगतें करना, ज्ञान सुनना, समझना अथवा संन्यास लेकर धर्माचरण करना इत्यादि कार्य करने में मन सहायक होता है, तो मन के जैसा दूसरा कोई मित्र नहीं और उपरोक्त धार्मिक कार्यो में रुकावटें डाले, तो मन के जैसा दूसरा कोई दुष्मन भी नहीं है।

मन ही आत्मा को मारता है और मन ही आत्मा को तारता है। जिनको मन ने साथ दिया ऐसे अनन्त जीव अविद्या बन्धन से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त हो गये। और हम जितने भी जीव 84 लाख योनियों में चक्कर काट रहे हैं, हमारे मन ने हमारा साथ नहीं दिया। पीछे अनन्त सृष्टियों में अनन्त बार हमने परमात्मा की आज्ञा का पालन नहीं किया, अब भविष्य के बारे में भी निश्चित नहीं कहा जा सकता कि हमारा उद्धार हो ही जाएगा। फिर भी जीव उद्धरण व्यसनी सर्वज्ञ श्रीचक्रधर स्वामी ने आश्वासन दिया है कि - भक्तों! निराश नहीं होना, स्वतंत्र रह कर प्रयत्न करो, हमारी ओर से सहायता होगी।

जीव भले ही लाख शक्तिशाली हो, संसार सागर से पार होने में अधूरा ही है। परमात्मा की कृपा के बिना, दुःखरुप, पापमूल, नाशवान्, सुख- रहित, दुःखों के घर संसार सागर से पार नहीं पहुंचा जाता। क्योंकि यह जीव समस्त दोषों का आश्रय स्थान है। खडकुली नामक स्थान पर स्वामी का निवास था। न एक दिन सुबह का पूजाअवसर होने के उपरान्त पत्थरिली : जगह पर स्वामी विराजमान थे। समीप भक्त जनता भी प्र बैठी हुई थी। देमाईसा भी पहुँच गई। अ- प्राप्ति विषय पर स्वामी उपदेश कर रहे थे। स्वामी ने बतलाया प कि- परमेश्वर किसी भी वस्तु से प्राप्त नहीं होता। दे मुत्र सम्पत्ति से परमात्मा प्राप्ति नहीं होती। द्रव्य-सम्पत्ति से से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। ईश्वर प्राप्ति दुर्लभ है।

इस प्रकार उपदेश हुआ, भक्त जनता ने उपदेश ध्यान पूर्वक सुना। भट्टोबास ने प्रश्न किया प्रभो ! ईश्वर प्राप्ति क्यों नहीं होती? स्वामी ने बतलाया कि एक जीव कर्म चाण्डाल है। एक जीव कृतघ्न है। एक परतारक (दूसरों को धर्म से गिराने वाला है। एक वंचक (बचा कर रखने वाला) है। एक विश्वासघात करने वाला है। एक माता से दोह करता है। एक गोत्र से दोह करता है। एक स्वामी से द्रोह करता है। एक परमेश्वर से दोह करता है। उपरोक्त दोषों से बचा हुआ कोई भी दिखाई नहीं देता। इसलिये परमात्मा की प्राप्ति इन जीवों को नहीं होती।

उपदेश समाप्त हो जाने पर भट्टोबास ने पूछा कि- प्रभो ! उपरोक्त दोषों से बचा हुआ कोई जीव नज़र नहीं आता और मेरे अन्दर तो ये सभी दोष हैं अतः अब क्या करना चाहिए? भट्टोबास दुःख कर रहे थे। स्वामी गुफा में चले गये। भट्टोबास रुदन कर रहे थे। दुबारा स्वामी भट्टोबास के पास आये और बोले कि - क्यों नागदेव ! रो क्यों रहे हो ? रुदन समाप्त हो जाने पर भट्टोबास ने कहा प्रभो ! परमात्मा तो किसी प्रकार से प्राप्त नहीं होगा, फिर जीवित रह कर क्या करें ? स्वामी ने उत्तर में कहा कि अरे नागदेव ! रोने से क्या परमेश्वर प्राप्त होगा? इस पत्थर पर सिर पटक कर देख लो, क्या परमेश्वर मिलता है ? वह जिस प्रकार से प्राप्त होता है, उसी प्रकार को अपनाने से प्राप्त होगा। सो नागदेव! बहुत अधिक रुदन नहीं करना चाहिए।  जिस तरह दीपक के ऊपर काजली पड़ने से दीपक बुझ जाता है, उसी तरह अधिक रुदन करने से अन्तःकरण भ्रष्ट हो जाता है। परमेश्वर "साधकों ने धैर्यवान् और शूरवीर होना चाहिए।

परमात्मा जिस तरीके से प्राप्त होता है, उसके बारे में चर्चा करनी चाहिए और अनुष्ठान करना चाहिए, तब वह परमात्मा प्राप्त होता है। भट्टोबास ने पूछा प्रभो! किस प्रकार से परमात्मा मिल सकता है? स्वामी ने उत्तर दिया नागदेव ! जो "साधक" हिंसा नहीं करता, देवताओं की शरण में नहीं जाता, विषय - विकारों का सेवन नहीं करता, वह परमात्मा के आनन्द का अनुभव करता है।

यह सुन कर फिर श्रीनागदेव जी ने पूछा प्रभो! इतने न दोष होने पर परमात्मा किस प्रकार प्राप्त हो सकता है? दुबारा स्वामी ने बतलाया कि - कुछ “साधकों" के दोषों को परमेश्वर सहन कर लेते हैं अर्थात् पेट में छिपा लेते हैं और कुछ "साधकों" को व्यतीत हो जाने पर प्राप्ति करवाते हैं, मात्र उद्धार कुछ समय जरुर होता है और जो परमेश्वर का अनुसरण नहीं करता उसका उद्धार कभी भी नहीं होता। इसलिये परमेश्वर “साधकों" को चाहिए कि- अपने मन को अपने वश में रख कर "साधना" करें। मन के अधीन न होकर, मन को मित्र बना कर रखें, शत्रु नहीं। है

श्री चक्रधर स्वामी प्रसन्न

Thank you

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