मंजिल अभी दूर है - महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता
नामधारक से लेकर संन्यासी तक हम सभी मोक्ष मार्ग के राही हैं। इस मोक्ष मार्ग पर चलते हुए जितनी सावधानी और जितनी शीघ्र गति होती है उतना उतना वह अपनी मंजिल को तय कर सकता है। जिस तरह कई बुद्धिमान् अभ्यासु बालक एक वर्ष में दो दो क्लासे भी पास कर लेते हैं। कुछ साल दो साल में, कुछ तीन-2 वर्ष में भी एक एक क्लास पास करते हैं और कुछ मन्द बुद्धि तीन वर्ष में भी एक क्लास पास नहीं कर सकते। उसी तरह मोक्ष मार्ग पर चलने वाले भी, जितनी अधिक श्रद्धा, जितना अधिक प्रेम, जितना अधिक प्रयत्न, उतने-2, शीघ्र गति से संसार बन्धनों से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त कर लेते हैं।
जो "साधक" "साधना" करते हुए भी मुझ से कुछ बहुत अच्छे ढंग से भी नहीं हो रहा दुःख मनाते हैं उसे उत्तम "साधक" समझना चाहिए। जो "साधक" बहुत अधिक "साधना” करते है परन्तु अहंकार वश समझते हैं कि मैं तो बहुत "साधना" कर रहा हूँ उसे मध्यम "साधक समझना चाहिए। और जो "साधक” साधना कम करता है परन्तु दूसरों को बतलाता रहता है कि मैं इतना कुछ करता हूँ उसे अधम “साधक" समझना चाहिए। क्योंकि अहंकार यह बड़ा भारी रोग हैं जिस "साधक" को यह रोग लग जाए उसका अधोपतन निश्चित है।
श्रीम्हाइंभट एक अद्वितीय विद्वान और भक्तिवान् थे। श्री प्रभु की सेवा करते हुए उन्होनें बहुत कष्ट उठाएं। सर्वज्ञ श्री चक्रधर महाराज को वे अतिशय प्रिय थे। फिर भी अन्त समय में उन्होनें आचार्य श्री नागदेव जी से प्रश्न किया- भट्टो क्या मुझे भगवान मिलेंगे? भट्टोबास जी नें कहा यदि तुम्हे नहीं मिले तो फिर किसको मिल सकते हैं? अर्थात् आपको भगवान अवश्य प्राप्त होंगे। प्रत्येक "साधक" को चाहिए कि वह अहंकार का त्याग करके "साधना" करे अपने द्वारा जो भी "साधना" की जा रही हो उसमें सन्तुष्टी माननें वाला "साधक" भी आगे नहीं जा सकता।
यदि कोई नाम धारक है, प्रति दिन पूजा-पाठ, नाम स्मरण करता है और अपनी शक्ति के अनुसार दान-धर्म करता है, साधु सेवा करता है तीर्थ यात्रा भी करता है तो इतने में सन्तुष्टि न माने। उसको चाहिए कि मन में दुःख करता हुआ अपने प्रभु से प्रार्थना करें कि मुझ से कुछ भी "साधना" नहीं हो रही, हे महाराज! मेरी सहायता करो मैं आपकी कृपा के बिना "साधना" में सफल नहीं हो सकता और जितनी भी "साधना" करता हूँ उसको अधिक बढ़ाएं और यह दिल में निश्चय करलें की मेरी मंजिल अभी बहुत दूर है।
यदि कोई बोधवंत - ज्ञानी है तो उसे सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए कि, मुझे ज्ञान हो गया है, मेरा उद्धार हो जाएगा, और नाम धारकों कि तरफ देख कर अहंकार भी नहीं करना चाहिए कि- मुझे तो धर्म के विषय में बहुत जानकारी हो चुकी है और इन्हें तो कुछ भी नहीं आता। ज्ञानी को चाहिए कि- मैं संसार के नरक में फंसा हूँ पता नहीं परमात्मा कि कृपा कब होगी कि मैं - इस संसार के बन्धनों से मुक्त होकर स्वामी की आज्ञा के अनुसार देश ग्राम और परिवार का त्याग करके एकान्त स्थल में निश्चिंत होकर प्रभु का स्मरण-ध्यान करके उसकी कृपा के योग्य बन सकुंगा।
कहीं ऐसा न हो कि बिना संन्यास के ही यमराज का निमन्त्रण आ जाए। कहीं संन्यास के बिना ही जीवन समाप्त हो गया तो प्रमाद का तिलक मेरे मस्तक पर लग जाए जिससे मेरे लिए यह सृष्टि ही व्यर्थ चली जाए! अतः रात-1 दिन दुःख पूर्वक साधन दाता से प्रार्थना करें, क्षमा याचना करे कि हे महाराज! मुझे इस संसार के नरकों से निकाल लो अनन्त सृष्टियों में अनन्त बार आपने मुझे ज्ञान का दान दिया परन्तु मेरे से आपकी आज्ञा का पालन नहीं हुआ। मैनें अनन्त सृष्टियाँ अनुसरण के बिना गवा डाली, कही ऐसा न हो कि - यह सृष्टि भी मेरी व्यर्थ चली जाए? है प्रभो! आपनें कृपा करके मुझे ज्ञान दिया वैसे ही आप मेरे बन्धन तोड़ कर संन्यास के योग्य बनाओ क्योंकि संन्यास के बिना मेरी मंजिल अभी बहुत दूर है।
यदि कोई " वासनिक" है यानि संन्यास लेने की हार्दिक इच्छा है ऐसी कुछ रूकावटें संन्यास के मार्ग में हैं जिस लिए संन्यास परन्तु आश्रम में प्रवेश नहीं कर रहा। जिन कारणों से संन्यास नहीं ले रहा उनको दिल से निकाल दें कि मैं नहीं रहा तो यह कार्य नहीं होगा
दिल में निश्चय कर लें कि यदि मृत्यु आ जाती है तो फिर भी कार्य ने होही जाना है। किसी के बिना संसार का कोई भी कार्य रूका नहीं ऐसा समझ कर संन्यास के लिए कदम आगे बढाएं। यदि अन्तःकरण पूर्वक वासनीय संन्यास लेने के लिए प्रयत्न करता है तो परमात्मा पूरी तरह सहायता करते है जिस तरह मनुष्य कर्ज या झगड़े के डर से देश छोड़ कर भाग जाता है, उसी तरह सम्बन्धियों को सबसे बड़े दुष्मन समझ कर उनसे किनारा करें क्योंकि धर्म के मार्ग से विमुख करने वाले या धर्म से गिराने वाले बड़े दुश्मन तो परिवार वाले ही हैं। परिवार की भलाई के लिए परमेश्वर की कृपा से वंचित रहना, इसमें इन्सानियत नहीं है। कल का क्या भरोसा है कि हम नींद लेकर उठेंगे या हमेशा के लिए गहरी नींद में ही सोए रहेंगे। कल के कार्य की गारंटी दिल में क्यों बिठा कर अपने जीवन के अमूल्य क्षण व्यर्थ न गवाएं। यह समझ कर चले कि हमारी मंजिल अभी दूर यदि संन्यास धारण कर लिया है यानि भगवा वेष धारण कर लिया है तो इतने मे सन्तुष्ट न हो जाएं कि अब मेरा उद्धार हो जाएगा।
संन्यास धारण करने के बाद बहुत कुछ करना शेष रहता है। सन्यास धारण करने के बाद "ब्रह्मविद्या " का ज्ञान पूरी तरह प्राप्त करें। ज्ञान प्राप्ति के बाद लोक परलोक के खान-पानादि पदार्थों से मन को हटाकर शरीर यात्रा चलाने के लिए भिक्षा का रुखा-सूखा अन्न ग्रहण करें। शरीर हृष्ट-पृष्ट रहे इस ममता को दिल से निकाल कर जहां पर कोई जान-पहचान का न हो ऐसे प्रदेश में जाकर अटन-विजन आदि विधियों का अनुष्ठान करें। इस प्रकार शब्द ज्ञान की परिक्षा में पास हो जाने पर पुनः सम्बन्ध होगा। उसके बाद अपरोक्ष ज्ञान होगा, वहां पर असंख्य कर्मों का नाश होगा। अपरोक्ष ज्ञान में उत्तीर्ण हो जाने पर सामान्य ज्ञान होगा वहां पर बचे हुए कर्मों का नाश होगा, सभी मलों का नाश होगा, उसके बाद विशेष ज्ञान होगा। विशेष ज्ञानी आद्यमळ सहित चरमदेह (अन्तिम देह में रहता है परमात्मा उसे दूर कर देते है)। उस चरमदेह में हजारों वर्ष बीत जाते हैं, अतः वहां उसे चिन्ता लगी रहती है।
जिस समय उसकी अयोग्यता का नाश हो जाता उस समय साधन दाता अवतार उदासीनता को त्याग करके उस पर कृपा करते हैं। फिर परमेश्वर कृपा शक्ति के द्वारा उसकी अनादि अविद्या को नष्ट करके संलग्न को भी अलग करके अपना परमानन्द प्रदान करते हैं। कितनी उपरोक्त बातों से पाठक समझ गये होंगे कि हमारी मंजिल दूर है। जो ज्ञानी समय पर संन्यास लेकर परिवार की ममता त्याग देते हैं, अहंकार को निकट नहीं आने देते और परमेश्वर के अधीन होकर उसकी आज्ञा का पूर्ण रुप से पालन करते हुए दुःख पूर्वक नित्यविधि निमित्य विधि का अनुष्ठान करते हैं, उनके लिए भी मंजिल बहुत दूर है। यदि संन्यास लेकर भी सम्बन्धियों की ममता न छूटे तथा द्रव्य का त्याग न हो, तो मंजिल तय करने की आशा करना व्यर्थ है और संन्यास लेकर भिक्षा करने में शरम आती है,
अटन-विजन व स्मरण के नाम से बुखार चढ़ता है और शरीर पालन के लिए अच्छे-अच्छे पदार्थ चाहिए, उसके लिए रिश्तेदारों से द्रव्य लेना या संन्यास लेने से पहले ही बैंक में बहुत अधिक द्रव्य जमा कर रख देना उसका व्याज लेना अथवा पेन्शन का द्रव्य लेकर अपने लिए खर्च करना, धर्म से पतित हो का सुगम मार्ग है इसके सिवाय दूसरों की निन्दा - चुगली में मस्त रहना या लडाई-झगडे करते रहना, वैसे ही शिष्य की, धन की और मान की आशा मन में हो तो फिर तो स्वप्न में भी न सोचें कि मैं किसी समय भगवान के पास पहुंच जाऊंगा। इसलिए साधक को चाहिए की बड़ी सावधानी से धर्म आचरण करें। जो परमेश्वर से दूर करने वाली बातें हैं उन्हें छोड कर ब्रह्मविद्या शास्त्र के अनुसार संन्यास धर्म का पालन करें। क्योंकि हमारी मंजिल बहुत दूर है।
नोट: पंथी संत महंत व विद्वत् समाज को चाहिए कि- सिंहावलोन करके देखे कि हमारी आचार संहित कितनी खंडित हो चुकी है। पुर्वजों की आचार संहिता को हम तिलांजली दे चुके है। श्रुति की ओर हमारा ध्यान ही नहीं है। आधुनिक समय को देखते हुए आचार संहिता में परिवर्तन करना आज की जरूरत है। हमारे पूवर्ज आश्रम बनाना महापाप समझते थे परन्तु आज छोटे-बड़े सन्त महन्त सभी आश्रम बना बैठे हैं। गीता के सिद्धांत के अनुसार हमारे पूर्वजों का युक्त आहार विहार होता था परन्तु आज कल हमारा आहार विहार युक्त नहीं रहा।
हमारे पूवर्ज भिक्षा का रूखा सुखा भोजन और वह भी नापा तोला खाते थे परन्तु आज कल आश्रमों में खाना पकाया जाता है प्याज लसुन और दुनियाँ भर के मिर्च मसाले डाल कर चटपटा स्वादी भोजन पकाया जाता है साथ में अलग- प्रकार की चटनीयाँ और आचार होने से तृप्ति पर्यन्त भोजन किया जाता है कहाँ रहा युक्त आहार अयुक्त होने से विहार भी अयुक्त चुका है हमारे पूवर्ज अटन - विजन और एकांत पेड़ के निचे बैठ कर नाम सिमरण करते थे परन्तु आश्रम स्थाई हो जाने से आने-जाने वाले तीर्थ यात्रियों का लाना लगा ही रहता है तीर्थ यात्रि नहीं देखते कि हमारे बे वक्त जाने से आश्रम वासियों को बे आरामी होगी, वे सुबह उठ कर नाम सिमरण नहीं कर सकेंगे। वे तो अपनें बचाव की तरफ देखते हैं आश्रमों में बाईयाँ बेचारी रोटियाँ पका पका कर और बर्तन साफ कर-कर थक जाती हैं। आजकल आश्रम - आश्रम नही रेस्ट हाऊस" बन गए हैं।
जिन मुमुक्षर्थियों ने सर्व संग परित्याग करके संन्यास धारण किया उन्हें ब्रह्मविद्या पढ़ने और पढ़ाने का समय ही नहीं मिलता। हमारे पुर्वज चातुर्मास में एक जगह रह कर आठ महिने परि भ्रमण करते थे। गाँव-गाँव जाने से अनेक लोग धर्म में लगते थे। गृहस्थ लोगों में साधु-सन्तों के प्रति अपार श्रद्धा और प्रेम होता था, निमंत्रण देकर अपने गाँव में साधु-सन्तों को बुलाते थे। परन्तु अब आश्रम चलाने के लिए साधु-सन्तों को गाँव-गाँव जाना पडता है। बिना निमंत्रण के ही घर जाना पडता है गृहस्थ भक्त कुछ प्रेम से भिक्षा देते हैं और कुछ दुःखी होकर देते हैं क्योंकि घर पर आए हुए साधु को खाली वापस कैसे लौटाए। कुछ लोगों की दान करने की शक्ति न हीं होती उन्हें साधुओं को गाँव में आता देखकर गाँव छोड़कर बाहर गाँव जाना पड़ता है क्योंकि न सामने रहेंगे और न कोई मांगेगा।
हमारे पूवर्ज भिक्षा का या अति प्रीति का भोजन करते थे परन्तु आज-कल तो इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया जाता किसी के घर जा बैठे तो उसे खाना तो पूछना ही पड़ता है। चाहे श्रद्धा हो अथवा न हो। हमारे पूवर्ज क्रय-विक्रय नहीं करते थे। परन्तु आज-कल तो विक्रय करना पड़ता है क्योंकि महाराष्ट्र में भिक्षा में किसानों के घरों से अनाज ही मिलता है और आश्रम का खर्च चलाने के लिए अनाज बेचना पड़ता है। शास्त्र की तरफ देखें तो भगवान कहते है कि भिक्षा-पके हुए अन्न की ही करें सुका अनाज न माँगे। सन्त- महन्तों को चाहिए कि संन्यास लेलिया तो हमारा उद्धार हो जाएगा सन्तुष्टी न माने या चार व्यक्तियों के सिर मुण्ड दिये संन्यास दे दिया तो हमें भगवान प्रेम दे देंगे इस भ्रम में न रहें। आश्रम बना लिया तो हमारी नाँव किनारे लग जाएगी दिल से निकाल दें चार चेले बना लिए या दो भजन गा लिए अथवा चार लोगों के सामने भाषण कर लिया तो निश्चिंत न हो जाएं कि हम भगवान के पास पहुँचने के लिए, तथा उसका प्रेम प्राप्त करने के लिए और संसार बन्धन से मुक्त होने के लिए अभी बहुत कुछ करना शेष रहता क्योंकि अभी हमारी मंजिल बहुत दूर है।
लेखक :- कै. प. पू. प. म. श्रीमुकुंदराज बाबाजी महानुभाव