भगवान श्रीकृष्णद्वारा पवनपूत्र हनुमान का गर्वहरण
श्रीकृष्ण भगवान जी ने कृपा कर हनुमान जी का भी गर्व दूर किया। परब्रम्ह परमेश्वर अवतार श्रीचक्रधर भगवान जी सुनाते हैं - कि एक बार हनुमंत देव तथा अर्जुन समुद्र के किनारे बैठे थे। तब अर्जुन देव बोले- "राम बहुत बड़े धनुर्धारी योद्धा होते हुए भी उन्होंने पत्थरों का पुल बनाया, बाणों का पुल नहीं बनाया।” तब हनुमंत देव - बोले कि इतने बड़े समुद्र पर बाणों का पुल टिक नहीं सकता।”
तो अर्जुन देव बोले - “मैं बाणों का पुल बनाऊंगा" । तो हनुमंत देव बोले - “मैं उसको तोड़ दूँगा।” अर्जुन देव तथा हनुमंत देव में शर्त लग गई। अर्जुन देव बोले - “यदि तुम मेरे द्वारा बाणों से बनाये पुल को तोड़ दोगे तो मैं लकड़ियों की चिता बनाकर उसमें स्वयं आत्मदाह कर लूंगा। यदि तुम उस पुल को न तोड़ सके तो" हनुमन्त देव तुरन्त बोले - “मैं अमर हूं मर नहीं सकता । पर अगर मैं हारा तो तुम्हारे रथ की ध्वजा में रहूंगा" ।
अर्जुन ने बाणों से पुल बना दिया। तब हनुमन्त देव ने दोनों हाथों में दो पर्वत लेकर उस पुल पर छलांग लगाई, तो वह पुल टूट गया। अपनी शर्त के अनुसार अर्जुन ने लकड़ियों से अपनी चिता रचाई तथा अग्नि जला दी। तभी श्रीकृष्णचक्रवर्ती महाराज वहां आ गये और पूछने लगे - " अर्जुन यह क्या है?" तो अर्जुन बोला- “श्री भगवान जी, मेरी तथा हनुमन्त जी की यह शर्त लगी थी कि मैं बाणों का पुल बाँधूगा और यदि यह इसे तोड़ देंगे तो मैं अग्नि प्रवेश करूँगा यदि यह न तोड़ सके तो ये मेरे रथ की ध्वजा में रहेंगे। इन्होंने पुल तोड़ दिया है इसलिये मैं अग्नि प्रवेश कर रहा हूँ।”
तो श्रीकृष्ण चक्रवर्ती महाराज बोले - जब तुम दोनों ने शर्त लगायी तो इसका कौन गवाह था? । क्योंकि तुम्हारा कोई गवाह नहीं था इसलिये तुम दोनों झूठे हो अब तुम दोनों शर्त लगाओ हम तुम्हारे गवाह बनेंगे। दोनों ने इस बात को मान लिया। तब अर्जुन देव ने पुल बांधा तथा हनुमन्त देव दोनों हाथों में पहाड़ उठाकर उस पर कूदे। तो श्रीकृष्ण चक्रवर्ती महाराज जी ने उस पुल के नीचे सुदर्शन चक्र लगा दिया और हनुमन्त देव उछल कर दूर जा पड़े। तब श्रीकृष्ण चक्रवर्ती बोले - यह देखो अर्जुन तुम्हारे सामने है। तब हनुमन्त देव में अर्जुन के रथ में रहना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण महाराज जी की कृपा से हनुमन्त देव जी का गर्व दूर हुआ।
जीवात्मा का बहुत बड़ा दोष अभिमान करना है। जीव में कोई शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान न होते हुए भी वह व्यर्थ ही मैं-मैं करता है तथा हर बात में अपने आप को कर्त्ता मानता है। जीव को अपने कर्त्ता पन का बहुत अभिमान होता है । मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाता है परन्तु उसका मैं पन छूटता नहीं है। अतः जीव का स्वभाव ही अभिमान करना है। जब तक जीव परमेश्वर की शरण में चला न जाये तब तक उस पर परमेश्वर की कृपा नहीं होती। परमेश्वर की शरण जाने पर जब वे जीव पर कृपा करते हैं तभी उसके गर्व का निवारण होता है।
अतः नित्य प्रति श्री भगवान जी से प्रार्थना
करनी चाहिए—हे प्रभु मेरे अन्दर भरे हुए इस गर्व (अहंकार)
रूपी पौधे को जड़ से उखाड़ दो तथा उसके स्थान पर शान्ति की बेल लगा दो। भगवान श्री
चक्रधर महाराज जी भी उपदेश देते हैं-अहंतेचे मूळ सकंदी उपडावें नाएकाः एन्हवीं
अंकुर निगतिः मग शांतिचें रोप लावावे: अर्थात् अहंकार के पौधे को जड़ से उखाड़ देना
चाहिए क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसमें फिर अंकुर फूट सकते हैं। अतः इस
पौधे को जड़ से उखाड़ कर वहाँ शान्ति की बेल लगानी चाहिए। अर्थात् मनुष्य में
अहंकार दूर होने पर ही उसके मन में शान्ति आ सकती है। जहाँ अहंकार है वहाँ शान्ति
कहाँ ?
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