भगवान श्रीकृष्णद्वारा अर्जुन का गर्वहरण - महानुभाव-पंथिय-ज्ञान-सरिता-Mahanubhavpanth-dnyansarita

भगवान श्रीकृष्णद्वारा अर्जुन का गर्वहरण - महानुभाव-पंथिय-ज्ञान-सरिता-Mahanubhavpanth-dnyansarita

भगवान श्रीकृष्णद्वारा अर्जुन का गर्वहरण - भगवान श्रीकृष्ण की लीला

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गर्व करना भी जीव का स्वभाव है। कौन ऐसा व्यक्ति है जिसमें गर्व नहीं है ? सभी लोग जानते हैं कि गर्व करना एक बहुत बड़ा दोष है परन्तु यह जानकर भी प्रत्येक मनुष्य गर्व करता है। गर्व का कारण मनुष्य में अहं का भाव है। प्रत्येक मनुष्य यह मानता है कि मैं भी कुछ हूँमेरा इस संसार में अस्तित्व है। इसी के कारण उसे कभी न कभी गर्व आ ही जाता है। जब किसी के पास कुछ गुण आ जाता है तो गर्व आना स्वाभाविक हो जाता है। 

भगवान श्रीचक्रधर महाराज जी कहते हैं - यदि किसी जीव के पास कोई भी गुण आ जाता है तो वह उसे बाहर प्रकट करने में कोई समय नहीं लगाता अर्थात् वह तुरन्त अपना गुण बाहर प्रकट करता है। इस संसार में किसी को धन का अभिमान है तो किसी को सम्पत्ति काकिसी को एक गुण का तो किसी को दूसरे गुण का अभिमान है। किसी को अपनी युवावस्था का तो किसी को अपनी वृद्धावस्था का अभिमान होता है। अतः अभिमान से अछूता तो कोई है ही नहीं। जो लोग गृहस्थाश्रम का त्यागकर संन्यास आश्रम में चले जाते हैं उनको भी गर्व नहीं छोड़ता । भगवान श्री चक्रधर महाराज जी उपदेश देते हैं

        किसी गुरु के दो-चार शिष्य हो जायें तो आँखे ऊपर आसमान पर चढ़ जाती हैं। अर्थात् अभिमान आ जाता है। यदि कुछ ज्ञान की बातें पढ़ ली तो ज्ञान का अभिमान भी आ जाता है। यदि वैराग्य का आचरण करने लगा तो वैराग्य का अभिमान आ जाता है कि मुझ से बढ़कर कौन वैराग्य कर सकता है। यदि संसार का त्याग कर संन्यास अवस्था में आ गये तथा फिर भी गर्व बना हीं रहा तो परमेश्वर का साह्य बिल्कुल नहीं मिलता । अतः एक साधक को सदैव यह प्रयत्न करना चाहिए कि उसे गर्व आने नहीं देना चाहिए। भगवान श्री चक्रधर स्वामी अपने साधक के बारे में वर्ते का दृष्टान्त देकर समझाते हैं - कि एक खेल दिखाने वाला रस्सी के एक कोने से चल कर दूसरे कोने तक जाने का खेल दिखाता है। 

श्री भगवान जी बताते हैं - कि जो भी व्यक्ति इस खेल को दिखाता है उसका ध्यान दाहिनी ओर नहीं होना चाहिएबायीं ओर भी नहीं होना चाहिएसभा की ओर भी नहीं होना चाहिए तथा अपनी ओर भी नहीं होना चाहिए तभी वह रस्सी के एक सिरे से चलकर दूसरे सिरे तक पहुँचने का खेल सफलता पूर्वक दिखा सकता है। यदि वह ऐसा नहीं करता है और दायें-बायेंसभा तथा अपनी ओर देखता है तथा अपने लक्ष्य की ओर नहीं देखता तो वह निश्चित ही नीचे गिर जाता हैजिससे उसके हाथ-पैर टूट सकते हैं। 

इसी प्रकार यदि एक साधक संसार की ओर नहीं देखताअपनी ओर नहीं देखता अर्थात् गर्व नहीं करताकेवल अपने लक्ष्य की ओर ही देखता है अर्थात् केवल परमेश्वर की ओर ही देखता है उसका योग (भक्ति) सिद्धि को प्राप्त हो सकता है। अत: एक साधक को कभी भी गर्व नहीं करना चाहिए। जब भी एक साधक में गर्व उत्पन्न हो तो उसे महाराज के द्वारा बताया गया। आदेश - बहुरत्ना वसुन्धरा" को याद करना चाहिए। इस संसार में एक से बढ़ कर एक लोग हैं अतः अपने आपको कभी बड़े होने का गर्व नहीं करना चाहिए। यदि परमेश्वर के भक्त को प्रयत्न करने पर भी गर्व आ जाता है तो परमेश्वर अपनी कृपा कर उसके गर्व का निवारण करते हैं। अर्जुन श्रीकृष्ण भगवान जी की कृपा का पात्र था तथा श्रीकृष्ण भगवान जी भी उसे अत्यन्त प्रेम करते थे। परन्तु जब-जब उसे गर्व आया श्री भगवान जी ने उसके गर्व को दूर किया।

        एक बार क्षीराब्धि स्थान की देवता नारायण शेषशैय्या पर लेटे हुए विश्राम कर रहे थे तथा लक्ष्मी उनके पाँव दबा रही थी। इतने में नारायण देवता उठे तथा उन्होंने सिर झुकाकर प्रणाम किया। तो लक्ष्मी ने पूछाहे नारायण ! आपने किसके लिये अपने मस्तक को झुकाया है। तो नारायण बोले- इस भूमण्डल पर करोड़ों कामदेव भी जिनकी सुन्दरता की बराबरी नहीं कर सकते ऐसे परमेश्वर अवतार श्रीकृष्ण भगवान जी के सौन्दर्य को देखकर आश्चर्यचकित होकर मैंने भी अपना मस्तक झुका दिया। तो लक्ष्मी ने पूछा- क्या आपसे भी अधिक कोई सुन्दर है ? तो नारायण जी बोले- परमपिता परमेश्वर कि श्रीकृष्ण भगवान जी के श्रीचरणों के नख के बराबर भी मुझमें सुन्दरता नहीं है। तो लक्ष्मी बोली कि मुझे श्रीकृष्ण भगवान ‘‘जी को अवश्यमेव देखना है। ऐसा उसने आग्रह किया।’’ (लक्ष्मी देवता होकर भी भगवान की मूर्ति को देख नहीं सकी। क्योंकि भगवान की प्रवृत्ती नहीं थी।) 

तब नारायण द्वारिका के एक ब्राह्मण के बच्चों को लेकर आने लगे। उस ब्राह्मण के बच्चे पैदा होते थे और मर जाते थे। तब वह ब्राह्मण द्वारिका के महाद्वार पर आया और जोर-जोर से शोर मचाने लगा यहाँ के राजा अधर्मी हैंइस राज्य में अधर्म हो रहा है। इसलिये मेरा परिवार नहीं बढ़ रहा है। मैंने तो कोई भी अधर्म नहीं किया है। प्रत्येक बालक के जन्म के समय वह महाद्वार पर आकर शोर मचाता था। जब उसका छठा बालक भी चला गया तो फिर वह महाद्वार पर आया और शोर मचाने लगा। दैवयोग से वहाँ अर्जुन भी आया हुआ था। अर्जुन ने पूछा है ब्राह्मणतू क्यों शोर मचाता है तो ब्राह्मण बोला मुझसे मेरे शोर मचाने का कारण श्री कृष्ण नहीं पूछतेबलभद्र नहीं पूछतातो तू कौन पूछने वाला होता है ? अर्जुन ने उत्तर दिया कि मैं गाण्डीव धनुर्धारी अर्जुन हूँ। ब्राह्मण ने कहा मेरे छः बच्चे कोई ले गया हैसातवाँ भी ले जायेगा तो क्या तू उसकी रक्षा करेगा

अर्जुन ने कहा कि मैं अवश्य ही उसकी रक्षा करूँगा और यदि रक्षा नहीं कर सका तो अग्नि प्रवेश कर मर जाऊँगा। जब तक बालक का जन्म नहीं हो जाता तब तक मैं तुम्हारे घर में ही रहूँगा। ब्राह्मण इस बात को सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। जब ब्राह्मण के यहाँ प्रसूति होने लगी तो उसने अर्जुन को सूचित किया। अर्जुन वहाँ आया तथा उसने उसके घर के चारों ओर बाण चलाकर एक पिजड़ा सा बना दिया और स्वयं दरवाजे पर अपने धनुष में बाण लगाकर खड़ा हो गया। अन्दर बालक का जन्म होते से ही वह अदृश्य हो गया। यह देखकर वह ब्राह्मण दरवाजे पर आया और अर्जुन से कहने लगा "अरे अर्जुन मर जादेख ली तेरे गाण्डीव धनुष की शक्ति। पहले मैं अपने बालक का मुख तो देख लेता थाइस बार तो मैंने उसका मुख भी नहीं देखा।” ब्राह्मण की बात को सुनकर अर्जुन बोला "तुम क्यों क्रोधित होते हो। मैंने प्रतिज्ञा की है तो मैं उसे स्वर्गमृत्युपाताल में से ढूंढ लाऊँगा।” 

अर्जुन अपने वचनानुसार तीनों लोकों में गया परन्तु उसे ब्राह्मण के पुत्र कहीं नहीं प्राप्त हुए। तब अर्जुन ने अपनी चिता स्वयं सजा ली तथा भगवान श्री कृष्ण महाराज जी से कहाप्रभु जीमैं अग्नि प्रवेश कर रहा हूँ। तब श्रीकृष्ण चक्रवर्ती महाराज ने कहा कि तू अग्नि प्रवेश क्यों कर रहा है। तो अर्जुन बोला मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर सका इसलिये अग्नि प्रवेश कर रहा हूँ । श्री भगवान जी बोले कि क्या तूने बच्चों की खोज कीतब अर्जुन बोला- प्रभु जीमैंने बहुत खोज की परन्तु बच्चे नहीं मिले। 

तो श्री कृष्ण चक्रवर्ती महाराज जी बोले- कि अब तुम मेरे साथ चलो। श्री कृष्ण भगवान जी तथा अर्जुन दोनों रथ पर चल पड़े। स्वर्ग लोक तक वे रथ द्वारा गये वहाँ उन्होंने रथ को छोड़ दिया तथा पैदल ही आगे जाने लगे। आगे बहुत अन्धेरा था। तो श्री कृष्ण भगवान जी अपने सुदर्शन चक्र के प्रकाश से आगे बढ़ने लगे। भगवान श्री कृष्ण तथा अर्जुन क्षीराब्धि पहुँचेजहाँ की देवता शेष शैय्या ने उठकर महाराज की पूजा की तथा प्रार्थना की- हे प्रभु जीब्राह्मण के बालक मैं ही लेकर आया हूँ क्योंकि मेरी लक्ष्मी ने आपके दर्शन करने का आग्रह किया था तथा आपकी नगरी से बच्चों को ले आना यही एक मात्र आपको यहाँ बुलाने का उपाय मैंने सोचा उसके लिये मैं क्षमा चाहता हूँ। शेष शैय्या से इस प्रकार. ब्राह्मण के बालक लेकर श्री भगवान जी तथा अर्जुन वापिस द्वारिका आ गये।

वास्तव में गाण्डीव धुनर्धारी अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या का बहुत गर्व था जैसा कि अर्जुन ने स्वयं ब्राह्मण को कहा— कि मैं गाण्डीव धुनर्धारी अर्जुन हूँ तथा मैं तुम्हारे सातवें बालक को बचा लूँगा। उसके इस गर्व का निवारण करने के लिये श्री भगवान जी ने यह लीला रची। जीव का सबसे बड़ा दोष अहंकारगर्व है जिसका निवारण भगवान अपनी कृपा कर करते हैं। अर्जुन श्री भगवान जी की कृपा का पात्र था। अतः श्रीभगवान जी ने उसके गर्व का निवारण किया।

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