कोई किसी का साथ नहीं देता - महानुभाव-पंथिय-ज्ञान-सरिता-Mahanubhavpanth-dnyansarita-

कोई किसी का साथ नहीं देता - महानुभाव-पंथिय-ज्ञान-सरिता-Mahanubhavpanth-dnyansarita-

 कोई किसी का साथ नहीं देता

 दुनियाँ देख कर अन्धी हे और सुन कर भी बहरी है. धर्म ग्रन्थों में लिखा हुआ हम पढ़ते हैं. गुरुजनों से सुनते हैं,  दुनियाँ को देखते हैं और अनुभव करके देखते हैं कि इस संसार में एक परमात्मा के सिवाए कोई किसी का साथ नहीं देता. फिर भी हम समझ नहीं पाते  यही हमारा अज्ञानता का कार्य है , यही हमारी ममता  मोह है.

परिवार के लिए दु:ख उठाते हैं और परिवार के धक्के मुक्के भी खाते हैं  फिर भी पराए ( परिवार ) को अपना समझते हैं. और अपने परमात्मा को पराया समझते है और उनसे से दूर हो जाते हैं. हमारे सर्वज्ञ श्री महाराज  ने कोढ़ी का दृष्टांत देकर इस बात को समझाया है कि कोई नहीं है हमारा सब स्वार्थ के नाते जुड़े हुए हैं. एक दूसरे के साथ और जब तक हम स्वस्थ हैं स्वार्थ की पूर्ति दे रहे हैं ले रहे हैं तब तक ही साथ हैं. 

रिश्ते नाते स्वार्थ की पूर्ति नहीं हो तो आप कौन और हम कौन ऐसा हो जाता है. जैसे यह कौढी का दृष्टांत देकर महाराज ने बताया है एक व्यक्ति बहुत श्रीमंत था  बड़ा भारी परिवार तथा सुख - सुविधा की कोई कमी नहीं थी. घर में बहुत दबदबा था उसका बहुत ही ठाट वाट की जिंदगी जी रहा था अब थोड़ा बूढ़ा हो गया और थोड़ी-थोड़ी बीमारियां भी आना शुरू हो गई देवयोग से अचानक उसे कोढ़ हो गया. इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी.

भोग तो भोग ही हे रोग बढ़ता ही जा रहा था  घर में बदबू फैलती थी अतः उसकी खाट बरामदे में डाल दी गई  घर वाले लाला जी से घृणा करने लग गए .सेवा से भी दिल चुराते थे। जो बच्चे लाला जी की आवाज सुन कर दौड़ते हुए सामने जाते थे, सेवा करते थे , अब तो उन्हें बुलाने पर भी वे निकट नहीं आते थे. और तो और घरवाली भी दूर से ही थू मर कोढ़ी मरो का  अझुई का जीताए. यू अरे कोढ़ी मर जा, अभी जिन्दा क्यों है ? ये शब्द लाला जी के अन्त : करण में बाण के समान चुभते थे, 

परन्तु लाला जी परवश हो चुके थे, हाथ - पैर की अंगुलियाँ सड़ गई थीं, मुँह चिपक गया था, जाएं तो जाएं कहाँ ? - माता और पत्नी सेवा करती थीं वह भी जी चुराके, उन्हीं के सहारे वह दिन बीता रहा था. एक दिन तो पत्नी ने लाला जी के मुंह के ऊपर ही बोल दिया  थू मर कोढ़ी मरो का  अझुई का जीताए " पत्नी के द्वारा अपशब्द सुन कर लाला जी का दिल बहुत ही टूट गया. फिर भी माता सेवा करती थी. 

उसी की आशा पर वे जिन्दा थे. एक दिन तो माता के मुँह से भी यही शब्द निकल गए , जिन्हें सुन लाला जी ने निश्चय कर लिया कि- अब इस घर में नहीं रहना और जैसे तैसे गांव के बाहर चला गया गाँव के बाहर एक दुबलेश्वर का मन्दिर था. लाला जी घीसते घीसते वहाँ पर पहुँच गये चौरवट पर मस्तक रख कर बहुत रोया बहुत ज्यादा रोया ढाईयां मार मार के रोया फिर उसने कहा , हे प्रभो ! आप ही मेरे हैं और मैं आपका हूँ . और वहीं पर रहने लग पड़ा गांव वाले मंदिर में देवता की पूजा करने के लिए आते थे तब गाँव वालों ने बिछोने- ओढ़ने का, खाने - पीने का उचित प्रबन्ध कर दिया और बिमारी भी रुक गई धीरे-धीरे ठीक होने लग पड़ा. 

गाँव वालों की डाँट - फटकार तथा शर्म के मारे घर वाले उसे मनाने गए परन्तु लाला जी वापस घर पर नहीं आए. घर वालों को कह दिया कि- आप मेरे नहीं हैं और मैं भी आपका नहीं हूँ . मेरा तो परमात्मा है, मैं परमात्मा का हूँ। स्वामी ने कहा ! कि - एक साधारण देवता की शरण में जाने से रोग से भी मुक्ति मिल गई तथा जीने का उचित प्रबन्ध भी हो गया और परलोक में भी देवता ने अपना फल दिया यदि यह जीव परमात्मा की शरण में आ जाए तो मुझ ( स्वामी ) से असख्य गुणा लाभ मिल सकता है नर्कों से बच सकता है. 

और मेरा प्रेम भी हासिल कर सकता है मैं ईसे जन्म मरण के चक्कर से मुक्ति भी दिला सकता हूं. लेकिन जीव स्वार्थी होने की वजह से दृष्ट पर जो भी दिखता है उसी को भजता पूजता है उसी के चक्रों में फंसा रहता है मेरी शरण में नहीं आता और इस भवसागर में हमेशा के लिए फंसा रहता है परिवार के मोह ममता में फंसा रहता है .

हालांकि इस दुनियाँ में एक परमात्मा के सिवाय कोई किसी का नहीं है इस बात का भी यथार्थ ज्ञान इस जीव को पता होता है. फिर भी यह मेरी शरण में नहीं आता और दुख भोगता रहता है.



Thank you

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