दशक्रिया विधि - प्रेतदेह से मुक्ती
बहुत लोगों को जानकारी नहीं होने से दशक्रिया क्या है? दशक्रिया क्यों करनी चाहिए? कहां करनी चाहिए? करने से क्या होता है? इत्यादि प्रश्न उपस्थित होते हैं। दशक्रिया यानि मृत्यु के बाद दस दिन के अन्दर अन्नदान करने की क्रिया । मृतक व्यक्ति की प्रीति वश, मृत्यु के बाद दस दिन के अन्दर यानि 80 प्रहर के अन्दर अन्न दान किया जाता है उसे दश क्रिया कहते है । दशक्रिया क्यों की जाती है? वह क्रिया क्या मृतक को प्राप्त होती है ? आत्मा तो अजर अमर है परन्तु एक शरीर छोड़ कर अपनी कर्म गति के अनुसार दूसरे शरीर में जीवात्मा सुख अथवा दुःख भोगने के लिए जाता है। हमें आत्मा तो दिखाई नहीं देता परन्तु शरीर की हलचल स्वांसोसोत्स्वास बन्द हो जाने पर अनुभव होता है कि- आत्मा इस शरीर से निकल गई इसी को मृत्यु कहा जाता है
विकल्प आचरण करने से शरीर त्याग के बाद आत्मा को प्रतिदेह या प्रेतदेह प्राप्त होती है। प्रतिदेह यानि अपने शरीर की ही आकृती होती है। देह में अष्ट स्वभाव होते हैं। भूख-प्यास, मत मूत्र का त्याग, सर्दी- गरमी, भय और निद्रा इंनमें से पांच स्वभाव इस प्रतिदेह में होते है। भूख-प्यास, सर्दी - गरमी और भय । इस दे को प्रतिदेह क्यों कहा जाता है? आकृती तो मनुष्य की ही होती है। परन्तु देखने में विलक्षण । जिस तरह मृतक शरीर की घृण होती है उसी तरह उस शरीर की भी घृणा होती है। इसलिए उसे प्रेत देह भी कहते हैं। उस प्रतिदेह या प्रेतदेह की रचना किस तरह होती है? उस पर विचार करें।
प्रेतदेह की आकृती मनुष्य देह के समान ही होती है परन्तु कुछ विलक्षणता उसमें होती है। मनुष्य शरीर के समान ही हाथ-पैर सिर आदि अवएव होते हैं। परन्तु हाथ- - पैर बहुत पतले, शरीर हाथी के समान बड़ा और मस्तक बड़े घड़े के जैसा। गर्दन अंगुठे के समान और उसमें छिद्र सूई की नोक के समान होता है। उस प्रेतदेह में भूख इतनी लगती है कि पहाड़ के इतना अन्न खा जाऊं और प्यास इतनी लगती है कि सारे समुद्र का पानी पी जाऊं। परन्तु गले का छिन्द्र पतला होने से खाया पीया नहीं जाता। यमदूतों के मुसल को देखकर खाना-पीना भी भूल जाता है।
गले का छिद्र छोटा होने से स्वांस लेने और बाहर निकालने में बड़ी कठिनाई होती है। और सारे शरीर पर मानो धग धगीत तिल के पौधे जलाए जाते है। इस तरह वह रातः दिन जलता ही रहता है। यमपुरी में छाया भी नहीं मिलती। क्योंकि वहां 84 प्रकार के नरक भुगवाए जाते हैं। अन्न पानी और छाया बांटी हुई होती। एक दूसरे को प्रवेश नहीं मिलता। इस प्रकार के अनेक दुःख प्रेत देह में भुगवाए जाते हैं। मृत्यु के बाद दस दिन तक वह आत्मा प्रतिदेह में अपने घर में ही रहता है। जिस जगह मृत्यु होती है उसी जगह पर एक दिन रहता है। घर के लोगों को रोते हुए देख कर बहुत दुःखी होता है। मृतक शरीर को कोई हाथ लगाता है तो उसका उसे दुःख होता है। वह सोचता है कि जल्दी जल्दी इसका अन्तिम संस्कार क्यों नहीं कर रहे?
अन्तिम संस्कार के समय सब के साथ वह श्मशान तक जाता है। उसके बाद पानी देने वाले के साथ में रहता है। अपने गाँव की सीमा तक जाता है। जिस जगह शरीर त्याग किया जाता है उस जगह पर पानी का घड़ा रखते है उसको एक धागा बांधकर सूत का एक किनारा पानी में डाल देते है। उस सूत के धागे को पकड़ कर वह पानी पीता है। इस तरह दस दिन तक घर के बराडे में या अपने गांव की सीमा के अन्दर रहता है। दस दिन के अन्दर ईश्वर अवतार या ईश्वर के ज्ञानी को उसके निमित्त भोजन खिलाने से वह आत्मा प्रतिदेह से मुक्त हो जाती है अर्थात् वह प्रतिदेह का शरीर समाप्त हो जाता है। दस दिन तक अन्न दान नहीं किया जाए तो दस दिन के बाद दुःख भोग के लिए यमदूत यमपुरी में ले जाते हैं।
इस प्रकार का प्रतिदेह क्यों प्राप्त होता? स्वामी का कहना है कि विकल्प करने वालों को प्रतिदेह यानि प्रेतदेह मिलता है। मानसिक विकल्प करने से प्रेतदेह मिलता हैं । प्रति देह प्राप्त होता है? मन में घृणा आकर पवित्र अपवित्र समझना। चुड़े चमार इत्यादि अपवित्र है। मासिक धर्म स्थित स्त्री अपवित्र है दुर्गन्धी युक्त जगह या गंन्धगी युक्त जगह को अपवित्र मानना अस्पृश हीन वर्ण के है, तथा गाय पवित्र है, ब्राह्मण पवित्र है। स्पर्श अस्पर्श मानना। खप्पर पर पैर पड़ने पर वस्त्र सह स्नान करना । सामान्यं व्यक्ति की अपेक्षा षट् कर्मी लोगों में विकल्प भावना अधिक रहती है। सम्पूर्ण जीवन भर विकल्प करने पर भी एक ही प्रतिदेह प्राप्त होती है। हाँ! विकल्प भावना जितनी अधि क उतना - 2 दुःख भोग अधिक प्राप्त होता है। विकल्प कम हो तो दुःख कम मिलता है। परन्तु दुःख भोग का समय एक जैसा ही होता है।
विकल्प करने से प्रेत देह क्यों प्राप्त होता है? मनुष्य देह में विकल्प भावना पैदा होने पर अस्पृश्य का स्पर्श हुआ पानी पीने से नफरत आती है। इसलिए भोजन को किसी का स्पर्श नहीं होने देता। दूसरे लोगों की निन्दा करता है। सुगंध दुर्गन्ध में अजड़ माया का व्याप होता है, इसलिए सुगंध - दुर्गन्ध के प्रति छी! छी! थू! थू! करने से अजड़ माया को दुःख होता है। विकल्प के कारण शरीर के अष्ट स्वभावों का पालन करते हुए कष्ट होता है, अतः जिस देवता ने शरीर दिया उसे देह अभिमानी कहते है, तथा जो देवता कर्म का अच्छा बुरा फल भुगवाती है उसे क्रिया अभिमानी कहते हैं। व युग पर जिसकी सत्ता होती है वह और माया । वैसे ही प्रकृति का संपादन करने वाली देवता इत्यादिकों की नफरत करने से उपरोक्त सभी देवताएं क्रुध हो जाती है। अतः प्रेत देह प्राप्त होता है। वे देवता ही अन्तरिक यानि संचारी तथा संयोगिक यानि बाहर यमदूत के डंडे पड़ना जिससे भयभीत होना आदि।
इस प्रति देह की आयु कितनी होती है? प्रति देह दो प्रकार के होते है एक लेपिक और दूसरा अधिकार का। लेपिक यानि जिन्दगी भर विकल्प किया जाता है। उसके बदले में प्रति देह प्राप्त होता है उसे लेपिक प्रति देह कहते हैं। दूसरे की हत्या करने से या स्वयं का घात करने से प्रति देह प्राप्त होता है। उसे अधिकार का प्रति देह कहते है। जहर खाकर या गले में फंदा डालकर, आग लगा कर, पानी में डूब कर या शस्त्र से अपने शरीर को नष्ट कर देना इसे आत्म घात कहते है। वैसे ही दूसरों की हत्या करना इसे पर घात कहते है। अपने आप का घात करने वाले को प्रति देह होता है तथा पर घात करने से मरने वाले और मारने वाले दोनों को ही अधिकार का प्रतिदेह होता है।
इस अधिकार के प्रतिदेह का भोग देवता आवेश से भुगवाती है। इस अधिकार के प्रतिदेह की आयु 12 वर्ष होती है। और लेपिक प्रति है का आयु आठ वर्ष की आयु के बाद जितने दिन मनुष्य जीवित रहता है उतने ही दिन प्रति देह का भोग भोगना पड़ता है। क्योंकि आठ वर्ष से पहले बालकों को कर्मों की निष्पत्ति नहीं होती उसे पाप पुन्य का लेप नहीं लगता। आठ वर्ष पूर्ण होने पर देह अभिमानी देवता विकल्प का संचार करती है। उसके बाद अच्छे-बुरे कर्मों की निष्पत्ति शुरू होती है। अतः आठ वर्ष से पूर्व छि! छि!, थू! थू! करने से विकल्प का दोष नहीं लगता। मनुष्य का लेपिक आयुष्य 100 वर्ष होता हैं उसमें से 8 वर्ष कम कर देने से 92 वर्ष बचते हैं। इतने वर्ष लेपिक प्रतिदेह का भोग भोगना पड़ता है।
प्रेतदेह किस तरह नष्ट होता है? प्रतिदेह के नष्ट होने के दो प्रकार है। एक तो मनुष्य विकल्प करना बन्द कर दें या अन्न दान ऐसे प्रतिदेह नष्ट होने के दो ही प्रकार है। जिस शरीर में विकल्प किया हो उसी देह में निर्विकल्प हो जाए तो प्रतिदेह नष्ट हो जाता है। ब्राह्मण, गाय, कुत्ते या स्वपच यानि कुत्तों को खाने वाले इनको एक समान देखने वालों को निर्विकल्प कहा जा सकता है। क्योंकि ज्ञान की दृष्टि से वह देखता है कि सभी शरीर पंच भूतों के बने हैं और आत्मा सभी की एक समान है। अत: वह विकल्प नहीं करता। स्वामी ने कहा है कि-योगी पुरुष को भी प्रतिदेह नहीं होता एक तो योगी यानि ब्रह्मवासना वाला सभी जगह एक समान ब्रह्म की कल्पना करता है अतः विलल्प नहीं करता या नाथ पंथी योगी होते है वे भी विकल्प नहीं करते चारों वर्णों में वे भिक्षा करते हैं। अत: उन्हें प्रति नहीं होता। निर्विकल्प हो जाने पर जिन्दगी भर निर्विकल्प रहना चाहिए। यदि दुबारा विकल्प करना शुरू कर दे तो प्रतिदेह होता है।
भावै नामक त्यौहार होता है उस दिन सभी जाती के लोग एकत्र होकर योगी के मुंह में ग्रास देते हैं। यदि गांव में योगी न हो तो किसी भी एक व्यक्ति को योगी का वेष पहना कर उसे हल पर बिठा कर उसके मुंह में ग्रास देते हैं। वह व्यक्ति भले ही विकल्प करने वाला हो परन्तु थोड़ी देर के लिए वह निर्विकल्प आचरण करता है। योग योग से यदि भोजन करते - 2 उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसे भी प्रेत देह नहीं होता। हाँ! इस क्रिया से विकल्प का प्रतिदेह नष्ट होता है। आत्म घात या पर घात के द्वारा होने वाले अधिकार के प्रतिदेह का नाश नहीं होता। मन में भले ही विकल्प हो परन्तु ऊपर-2 से निर्विकल्प क्रिया करने से प्रतिदेह नष्ट हो जाता है। परन्तु उस वेष में रहते हुए ही मृत्यु आ जाए।
दूसरा प्रकार अन्नदान है प्रति देह निर्माण होने का या उससे मुक्त होने का उपाय इसके विषय में गरुड़ पुराण में आया हुआ है। इसी लिए धार्मिक लोक अपने घर के किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर गरुड़ पुराण की कथा पढ़ते है। इस प्रकार की प्रथा सनातन धर्म की है। गरुड़ पुराण में लिखा है- “यथा पात्र विशेषेण अन्नदानेन मुच्यते किंवा मिष्टानैर्भोजयेदेकं दिनेषु दशसु द्विजम्। प्रार्थयेत्प्रेत मुक्ति च हरि ध्यात्वा कृतांजली" विशेष पात्र को भोजन खिलाने से प्रेतदेह से आत्मा मुक्त होता है। दस दिन एक ब्राह्मण को प्रति दिन मीठा भोजन खिलाए और भगवान से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें कि प्रेत को मुक्ति दें। इस प्रकार की कथा गरुड़ पुराण में आई हुई है। उसे सुन कर महदाइसा ने स्वामी से प्रश्न किया कि “जी जी"! उपरोक्त बातें पुराण में आई है क्या यह सत्य है ? स्वामी ने उत्तर दिया कि - बाई! मृत्यु हो जाने पर दस दिन के अन्दर अन्न दान की क्रिया की जाए तो उस मृतक आत्मा को वह प्राप्त होती है और आत्मा प्रेतदेह से मुक्त हो जाता है।
परन्तु वह अन्न दान की क्रिया किसको करने से आत्मा प्रतिदेह से मुक्त होता है? "दहा दिवसा भितरी ईश्वर का ज्ञानीया का ही एक स्वीकरिती तरी तया प्रेताचे सगुण आणि सुरख विशेष ही बोलिजे " अर्थात् ईश्वर अवतार उभय दर्शी से लेकर पक्षी अवतार तक किसी भी अवतार को थोड़ा भी भोजन खिलाया जाए तो प्रतिदेश नष्ट हो जाता है यदि पूर्ण भोजन खिलाया जाए तो प्रेतदेह नष्ट होकर उस आत्मा को देवताओं के सुख फल भी प्राप्त होते है। वैसे ज्ञानी का नहीं है। ज्ञानी को पूर्ण भोजन खिलाने पर ही प्रेद देह नष्ट होती है।
एक पात्र को भोजन खिलाने से प्रेतदेह नष्ट होती है और अधिक पात्रों को भोजन खिलाया जाए तो सुखफल भी प्राप्त होते हैं। ज्ञानी यानि बोधवन्त से लेकर अनुसरण युक्त तथा भक्त होने . चाहिए। ज्ञानी पात्र को ही भोजन खिलाने से प्रतिदेह नष्ट होता है। जिन्हें पूर्ण ज्ञान नहीं या बोध भी नहीं ऐसे यदि साधु भी हो फिर भी उन्हें भोजन खिलाने से प्रेतदेह नष्ट नहीं होती। वह क्रिया व्यर्थ नहीं जाती फलादिक होते हैं।
ज्ञानी को पूर्ण भोजन खिलाने से ही प्रेतदेह नष्ट होती है इतर, वस्त्र, द्रव्य, पूजा या उसके निमित्त दूसरी कोई वस्तु दी जाए उससे प्रेत देह नष्ट नहीं होता उस जाती के फलादिक होते हैं। मात्र ईश्वर अवतार कुछ भी स्वीकार कर लें प्रतिदेह निश्चित ही नष्ट हो जाती है। दशक्रिया के द्वारा विकल्प के प्रतिदेह का ही नाश होता आत्मघात या पर घात से होने वाला प्रतिदेह नष्ट नहीं होता। दस दिन के अन्दर अन्नदान की क्रिया की जाती है उसे ही दश क्रिया कहते हैं।
दशक्रिया के द्वारा प्रतिदेह से जीव का मुक्त होना यह परमेश्वर की कृपा का ही फल है। अव्यक्त कृपालु परमेश्वर ने यह व्यवस्था बनाई है। मृत्यु के बाद की यह व्यवस्था सिर्फ प्रतिदेह से मुक्त होने के लिए ही है। और वह भी यदि जीव प्रतिदेह में हो तो अन्यथा नहीं। दूसरे किसी भी प्रकार के दुःख से मुक्त होने के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं है। यह व्यवस्था अव्यक्त परमेश्वर की है। व्यक्त परमेश्वर अवतार की व्यवस्था इस तरह है। भविष्य में प्रतिदेह प्राप्त होने वाला हो यदि उसकी कणव हो तो मृत्यु के बाद प्रतिदेह में जीव को डालने से पहले या जीवित होते हुए उसके निमित्त भोजन स्वीकार करके प्राप्त होने वाले प्रतिदेह का नाश कर देते हैं। जिस तरह तिकोपाध्याय की मृत्यु होते ही श्री प्रभु बाबा ने दही-चावल का भोजन स्वीकार करके प्रतिदेह का नाश कर दिया था। श्री स्वामी ने खेई भट्ट के हाथों से जीवित होते हुए ही डवले की दश क्रिया करवा कर प्रतिदेह नष्ट कर दिया था। इस प्रकार जीव को प्रतिदेह से मुक्त होने के लिए ही दशक्रिया का विधि है।