कुछ भी हो शुभ कार्य शीघ्रही करें - महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता shubhkarya shighra kare - Mahanubhavpanth dnyansarita

कुछ भी हो शुभ कार्य शीघ्रही करें - महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता shubhkarya shighra kare - Mahanubhavpanth dnyansarita

 11-6-2022

कुछ भी हो शुभ कार्य शीघ्रही करें - महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता shubhkarya shighra kare - Mahanubhavpanth dnyansarita 

क्षण भंगुर नाशवान संसार में रहते हुए साधक को चाहिए कि शुभ कार्यो में विलम्ब नहीं करना चाहिए। विलम्ब करने से शुभ कर्मों की स्वर्ण सन्धि हाथों से जा सकती है। शास्त्र का कथन है कि शुभ काम को उसी समय करना चाहिए जबकि उसके करने की इच्छा हुई। आज का काम कल पर न छोड़ें इसीलिए सज्जन पुरुषों का कहना है कि "काल करे सो आज करे सो अब। पल में प्रलय होत है, बहुरी करेगों कब। दुर्जन लोगों का कहना इसके बिलकुल विपरीत है" आज करे सो कल करना, कल करना सो परसों, इतनी भी क्या जल्दी है, अभी जीना है बरसों । खैर मनुष्य जीवन में शुभ कर्मों की सन्धि कभी-कभी आती है। जीवन का अधिक भाग संसार में तथा स्वार्थ में ही व्यतीत होता है। स्वयं अनुभव करके देखिए। अपने तन, मन और धन का कितना भाग हम परमार्थ में खर्च करते हैं।

शास्त्र का कथन है कि हेतु के बिना कर्मराहटि (गृहस्थाश्रम) में कोई भी क्रिया नहीं होती। परन्तु हमारे जय कृष्णी साम्प्रदाय की प्रमुख शिक्षा है कि कामना रहित कर्म करें। अन्नदान, वस्त्रदान, द्रव्यदान आदि हम करते हैं तो उसके फल की कामना न करते हुए हम बोलते हैं "श्रीकृष्णार्पणमस्तु" परन्तु देखा यह जाता है, कि आज कल जहां तहां कामनाओं का साम्राज्य है। पूजा करते समय, स्मरण करते समय, तीर्थों पर जाते समय, साधु सन्तों को मिलते हुए या दान - धर्म करते समय। एक नहीं अनेक कामनाओं को हृदय में धारण कर लेते हैं। जिस प्रभु ने इस पंथ को जीवों के कल्याण के लिए चलाया उसके उद्देश्यों को हम क्यों भूलते जा रहे हैं?

स्वामी बिलकुल नहीं चाहते कि मेरे भक्त किसी भी नाशवान् पदार्थों की इच्छा करके कोई भी धार्मिक कर्म करें। पूर्णरूप से शुभ कर्म उसी को कहना चाहिए, जिसके बदले में किसी प्रकार की चाह न हो। प्रकृति भिन्न.2 होती हैं और पूर्व जन्म कृत कर्मों के संस्कार भी सब के भिन्न- 2 होते हैं। दो व्यक्ति श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी एक समान कर्तव्य नहीं कर पाते। कनाशी का ब्राह्मण दरिद्रता से पीड़ित था स्वामी ने उसे कुछ मांगने के लिए कहा तो उसने पुत्र, गाय, मकान और जमीन की मांग की। 

स्वामी ने उसे समझाया कि इन नश्वर वस्तुओं में क्या पड़ा है? ये तो जन्म जन्मांतरों में बार- 2 मिलती रही तथा नष्ट भी होती रही और दुःख भी देती रही। कर्मों के अनुसार अब भी मिल जाएगी। मैं दुनियां का मालिक हूँ, और देने के लिए तैयार हूँ तो उस अपूर्व वस्तु की मांग करो जो तुम्हें आज तक नहीं मिली और जिसके प्राप्त हो जाने पर संसार के संपूर्ण बन्धन समाप्त हो सकते हैं। जन्म - मृत्यु का चक्र कट सकता है जिसे प्राप्त करने पर दुःख क्लेश पाप-ताप प्राप्त न हो। परन्तु ब्राह्मण देवता बार- बार जमीन, मकान, पुत्र और गाय की ही मांग पर अड़े रहे। भगवान को तथास्तु कहना पड़ा।

इसी तरह स्वामी ने तपस्विनी आऊसा देवी को कुछ वरदान मांगने के लिए कहा तो-भोली- भोली आअसा कहती है “स्वामी जगन्नाथा ! मुझे मांगने की जांच नहीं है क्या मांगु? स्वामी ने कहा जो तुम्हें अच्छा लगता हो। आऊसा क्या मांगती है। प्रभो! मुझे किसी वस्तु की चाह नहीं है, लोक परलोक की चाह नहीं है। परन्तु आप प्रसन्न होकर देना ही चाहते हैं तो बस! एक ही इच्छा मेरे मन में है कि जब तक इस नश्वर तन में प्राण रहे तब तक आप की चापेगौर और भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी की श्यामगौर श्री मूर्तियों के मुझे सदा दर्शन होते रहें। स्वामी ने हंसते हुए कहा- वाह रे भोली आऊसा ! एक तरफ कहती है कि मुझे मांगने की जांच नहीं है परन्तु वह वस्तु मांगी है जिसको आज तक किसी ने नहीं मांगा। यदि मांगने की जांच होती तो पता नही क्या कुछ मांगती ? श्रीचक्रधर स्वामी जी ने अति प्रसन्न होकर कहा- आऊसा ! ऐसा ही होगा आप जब भी चाहोगी आपको दोनों ही अवतारों के दर्शन होते रहेंगे। 

इसको कहते हैं शुभ कर्म। ऐसे शुभ कर्मों में विलम्ब नहीं करना चाहिए। इस विषय को समझाने के लिए स्वामी जी ने सुनाया कि शुभ कर्मों में विलम्ब करने से राजा और प्रधान बड़ी भारी सिद्धि से वंचित रहे थे। स्वामी जी ने कहा कि राजा और प्रधान अपनी फौज के सहित सैर के लिए जा रहे थे। रास्ते में “लुई। पाई" नामक एक सिद्ध विदेह अवस्था में बैठे हुए थे। प्रधान सिद्ध साम्प्रदाय का अनुयायी था। राजा ने हँसते हुए कहा - देखिए ! प्रधान के गुरु किस तरह बैठे हैं ? “लुई पाई" ने राजा के शब्द सुन कर कहा- राजा! तू हंसा तो तूही हंसा, यदि मैं हंसुगां तो तेरा सारा परिवार हंसेगा। 

राजा ने कह दिया "हंस - 2 बापेया" अपने तन की तो संभाल नहीं कर सकता और मेरे सारे परिवार को “लुई पाई" ने थोड़ा हंसने का अनुकार किया जिससे अपार हास्य शक्ति प्रकट हुई राजा और प्रधान को छोड़ कर सारी सेना हाथी घोड़े सहित इतनी हंसने लगी कि प्राणान्त होने की बारी आ गई। यह देख कर प्रधान ने कहा- राजन् ! क्षमायाचना करो। वरना कोई भी नहीं बचेगा। सब मौत के मुंह में चले जाएंगें। अतः राजा और प्रधान ने सिद्ध के चरणों में गिर कर गिड़गिड़ाते हुए क्षमा याचना की कि हमने अज्ञानता सामर्थ्य को न समझकर मजाक ही है हमें माफ करें। सिद्ध ने हंसना बन्द कर दिया, सारी सेना शान्त हो गई।

राजा ने प्रधान को कहा कि- इस सिद्ध की सिद्धि के सामने हमारा राज्य बल कुछ भी नहीं है! अत: राज्य-पाट छोड़कर हमें भी इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए। दोनों ने सिद्ध से प्रार्थना की कि गुरूदेव! यदि उचित समझें तो जो सिद्धि आपके पास है हमें भी उसका दान करें। सिद्ध ने कहा- ठीक है। परन्तु हमारी आज्ञा का पालन करना पड़ेगा। दोपहर के समय कुम्हार के घर से टूटे घड़े का खफर लेकर गांव में जाकर पाँच घर से भिक्षा लेकर आओ आज ही सिद्धि दे देंगे। राजा और प्रधान दोनों वहां से चल पड़े। 

रास्ते में राजा ने प्रधान से कहा कि मैं इस शहर का राजा मैं और तू प्रधान दिन के समय भिक्षा मांगना तो बड़ी शर्म की बात है। ऐसा करते हैं कि अन्धेरा पड़ने पर कोई नहीं देखेगा, उस समय भिक्षा मांग कर ले जाएंगे। वैसा ही किया। भिक्षा लेकर “लुई पाई" के पास गए तो उन्होंने कहा- बेटा! “सिद्धि गई बारह वर्ष" शर्म के कारण आप दो प्रहर को भिक्षा नहीं ला सके। यदि सिद्धि की इच्छा रखते हैं तो 12 वर्ष हमारे साथ रहना पड़ेगा। राजा और प्रध न ने अपने पुत्रों के सुपुर्द राज्य कर दिया और दोनों गुरु की सेवा में रहने लगे। सिद्धि की लगन थी बारह वर्ष गुरु की सेवा में लगे रहे तो राज और प्रधान दोनों को ही वैसी ही सिद्धि प्राप्त हो गई।

भगवान श्रीचक्रधर स्वामी जी ने यह घटना इसी लिए समझाई कि शुभ कार्यो में विलम्ब करने से एक तो वह सन्धि हाथ से ही चली जाती है या उसमें अन्तर पड़ता है। दूसरी बात स्वामी ने यह भी बतलाई कि गुरु की आज्ञा भंग करने से राजा और प्रधान को सिद्धि प्राप्त होने में बारह वर्ष का अन्तर पड़ गया। दुबारा गुरु की आज्ञा का पालन करने पर सिद्धि प्राप्त हो गई। तात्पर्य यही था कि- साधारण सिद्धि को प्राप्त करने के लिए राजा और प्रधान को राज-पाट छोड़कर गुरु की आज्ञा का पालन करना पड़ा तब वह सिद्धि प्राप्त हुई। 

वैसे ही परमार्थ की सिद्धि यानि मोक्ष प्राप्त करने के लिए विलम्ब न करते हुए। गुरु की आज्ञा का पालन करना शुरू कर दें। यथार्थ वादी गुरु के वचनों पर विश्वास रखें। गुरु के साथ अधिकता का वर्ताव न करें। गुरू के ऊपर विपरीत भाव न आने दें। गुरू अपना कुछ भी नहीं बतलाता। गुरूओं का गुरु परमात्मा है उसकी बतलाई हुई बातें ही गुरू बतलाता है। अतः गुरु आज्ञा का पालन करने वाला शिष्य ही परमार्थ की सिद्धि "ब्रह्मविद्या" ज्ञान को प्राप्त कर सकता है।

अब समय बहुत बदल गया है। इस बदलते हुए समय में परमेश्वर के वचनों पर जितना चाहिए उतना विश्वास क्या भक्त? क्या महात्मा ? नज़र नहीं आता। न ज्ञान प्राप्ति की भी आज कल जरूरत समझी जाती है। कुछ लोग तो गुरु को गुरू कहना भी पाप समझते हैं। किसी भी सत्पुरूष के दर्शन से संभाषण से धर्म का वेध होता है, बोध होता है, ज्ञान होता है, अनुसरण की वासना होती है। उन निमित्तों को गुरू न मान कर कहते हैं कि हमारे तो गुरू भगवान हैं। यह अन्य था ज्ञान की परम्परा अब शुरू हो रही है।

दूसरी बात यह भी स्पष्ट है कि स्वामी ने बतलाए हुए आचार धर्म का पूर्णरूप पालन करना सभी लोग जरूरी नहीं समझते। शास्त्र दृष्टि से देखा जाए तो हम जो कुछ आज-कल पूजा-पाठ, दान - धर्म, तीर्थ यात्रा या सेवा करते हैं मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए संक्षेप में स्वामी ने बतलाया है कि विकार- और विकल्प का त्याग करें। स्वभावों पर नियंत्रण रखें आलिम्बनों का त्याग करके प्रभु चिन्तन में समय बिताएं। क्या हम उपरोक्त नियमों का पालन कर रहे है? यदि पालन कर रहे हैं तो ठीक है। नहीं कर सकते तो मुक्ति की आशा करना व्यर्थ है।

उपरोक्त विधियों का पालन करने के लिए देश ग्राम को छोड़ करके रिश्तेदारों की ममता का पूर्ण रूप से त्याग करें। द्रव्य का त्याग भी अत्याधिक जरूरी हैं। निन्दा-चुगली आदि अन्यबातों से मन हटाए बिना परमेश्वर का चिन्तन संभव नहीं है। द्रव्य की ममता और संग्रह सभी दोषों का मूल है। यदि सेवा के निमित्त द्रव्य प्राप्त होता है तो तुरन्त उसे सेवा में खर्च कर डालें। तन को भी अपना न समझें यह तन स्वामी को दान किया हुआ है, अत: इस पर हमारा कोई अधिकार नहीं, यह प्रभु की धरोहर है। स्वामी ने जिस ढंग से इसे रखने की आज्ञा की है उसी ढंग से रखें।

इस तन का कोई मान करता है तो वह स्वामी का मान कर रहा है ऐसा समझें। यदि कोई अपमान करता है तो वह भी भगवान का अपमान कर रहा है ऐसा समझ कर स्वयं बदले की भावना न रखें। इस तन के निमित्त द्रव्य प्राप्त होता है तो वह द्रव्य भगवान का है मेरा नहीं है, अत: उसको प्रभु के साधनों की सेवा में खर्च कर दें। जब तक साधक इस तन को प्रभु की धरोहर नहीं समझता तब तक वह मान-अपमान सुख-दुःख, लाभ-हानि, आदि द्वन्द्वों से मुक्त नहीं हो सकता। और जब तक द्वन्द्वों से मुक्त शत्रु - मित्र नहीं होता। तब तक मुक्ति का मिलना कठिन ही नहीं असंभव है। 

स्वामी ने इस बात का खेद व्यक्त करते हुए कहा है कि अधम नींच जीव, दोषों का त्याग तो करते ही नहीं। परन्तु भविष्य में कर देगें ऐसी इच्छा भी नहीं करते। वैसे ही विधियों का पालन भी नहीं करते परन्तु भविष्य में पालन करेंगे ऐसी सद्भावना भी नहीं रखते। करने वालों के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। अत: दिल से दोषों का त्याग करके विधि पालन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। प्रयत्न करने पर परमात्मा की सहायता जरूर होती है। अतः विलम्ब न करते हुए शुभ कर्म (विधि) करने चाहिए। शुभ कर्म किए बिना सद्गति नहीं है। सद्गति के लिए परमेश्वर आज्ञा का पालन करना चाहिए। परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने से वे प्रसन्न होंगे। और परमेश्वर की प्रसन्नता से सब कुछ संभव है।

Thank you

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