अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा परमो तपः

अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा परमो तपः

 अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा परमो तपः



अहिंसा शब्द (अहिंसा = अ + हिंसा) हिंस् (मारना) धातु + अ + टापू (आसिन) हिंसा अहिंसा बना है, जिसका अर्थ होता है मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना । शंकर भाष्य के अनुरूप भी यही अर्थ दृष्टिगोचर होता है - (प्राणिनामपीडनम्-शं.भा. १७-१४) अर्थात् प्रणियों को पीड़ा न देना अहिंसा है।

कोई भी कर्म चाहे वह शुभ हो या अशुभ तीन स्तरों से होकर ही पूर्ण होता है मोगाहि होता है याने मनसा, वाचा तथा कर्मणा (शरीर से) हुआ कर्म पूर्ण होता है। "प्रारब्धा भोगे क्षयो -" श्रीचक्रधर स्वामी के इस सूत्र से पूर्ण कर्म होने पर वह भोगने योग्य होता है। केवल मानसिक या वाचिक भोगहि नही है। जैसे किसी को भोजन खिलाना शुभ कर्म है। किसी महात्मा या साधु का भोजन खिलाने के विषय में मन में सोचना मानसिक कर्म (आगांतुक कर्म) है उसे भोजन का आमंत्रण देना 'वाचिक' (अनारब्ध) और उसके भोजन खाने पर कर्मणा (प्रारब्ध) कर्म होता है ।

इसी प्रकार अशुभ कर्म-किसी की हत्या करना यह भी मन में व्यक्ति की हत्या के विषय में विचार करना मानसिक कर्म (आगांतुक कर्म) है उसे मारने के लिए किसी दुकान से जहर, छुरा या गोली लाना 'वाचिक' (अनारब्ध) और उसको मार देने से प्रारब्ध (शारीरिक) कर्म परिपूर्ण होता है। जब तक शुभ या अशुभ कर्म पूर्ण नहीं होता उसका शुभ या अशुभ (नरक) भुगवाया नहीं जाता। एक बार मानसिक कर्म हुए तो वे तो कभी न कभी पूर्ण होंगे ही। क्योंकि मानसिक कर्म हो जाने पर जीवात्मा के साथ जुड़ा संलग्न (माया का अंश) उसे पूर्ण करवा देता है प्रेरणा करके । अतः कर्म करने में सावधानता होनी चाहिए जिससे नरको से बचा जा सके। हिंसा रूप कर्म नरकों का जनक होने से वह त्याज्य है। क्योंकि भगवान श्रीचक्रधरजी का कथन - "हिंसा, पाप, पापास्तव नरक-' याने हिंसा करने से पाप होता है और पाप से नरक । अतः विविध प्रकार की हिंसा से बचने पर नरकों से बचा जा सकता है। अतः हम उसी त्रिविध प्रकार के हिंसा रूप कर्मों के प्रमाण रूप त्रिविध सर्वज्ञ श्रीचक्रधर जी की लीलाओं को देखकर उनसे शिक्षा ग्रहण कर सकते है। 


मानसिक हिंसा

के प्रमाणार्थ सर्वज्ञ के कहा गया वचन इस लीला से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है - वह लीला है

एक बार स्वामी श्रीचक्रधरजी के लिए लाये गये केलोके ग्रहण करने प्रश्चात् वही पड़े हुए छिलकों को स्वामी ने हाथी का आकार देना प्रारंभ किया। सूंड, मुंह, पांव, पाठ आदि आकृति प्रदान कर स्वामी उधर निहार ही रहे थे कि स्वामी के सम्मुख पड़े छिलकों के का अच्छा न जानकर महादाइसा ने झट उन्हें इकट्ठा कर दिया तो स्वामी बोले- महादाइसा ! तुम अपराध कर बैठी हो। हमारे द्वारा आकृति प्रदान किये गये हाथी का तुमने भंग किया है फलस्वरूप तुम्हें वट वृक्ष की योनि में जाना पड़ सकता है। महादाइसा ने उसके नाशार्थ स्वामी से प्रार्थना पूर्वक प्रायश्चित किया सो उससे प्राप्त नरकों से उसे छुट्टी प्राप्त हुई। इसके साथ स्वामी ने चीटी तक का भी साधक को बुरा चिंतन नही करना चाहिए आदि उपदेश किया ।


वाचिक हिंसा -

वाचा से मानव ऐसे अपशब्दों का उच्चारण कर बैठता है कि जिसका क्षालन (नाश) अनंत जन्मोतक भी नहीं हो सकता- इस विषय में स्वामी का कथन है कि जीव एकही क्षण मे हजारो पाप करता है

अतः स्वामी ने कहा कि हंसते हुए भी मानव को झूठी बात नही करनी चाहिए । बाई “हासता ही लटिके न बोलिजे की-" इस संबंध में यह लीला दृष्टव्य है-सर्वज्ञ के एकाकी परिभ्रमण के समय प्रेमीभक्त महदादेवराज को प्रेमदान प्राप्त होने पर वे स्वामी के साथ के साथ हो लिए। सर्वज्ञ उनके साथ एक गांव में जा पहुंचे। वह नदी किनारे था। वैसा ही दूसरा गांव नदी के दूसरे तीर पर था। इस गांव में स्वयं रहते हुए वे भक्त से बोले 'भट्ट! तुम इस गांव में रहा हम दूसरे गांव में रहेंगे। महीना पंद्रह दिन में हम तुम्हें दर्शन देंगे।' 'आपकी आज्ञा' कहकर भक्त उस गांव में रहने लगे और स्वामी दूसरे गांव में चले गये। स्वामी जिस गांव में थे उस गांव में एक ब्राह्मण प्रतिदिन भक्त के गांव से भिक्षार्थ आया करता था। भक्त गांव की सीमा तक उसके साथ आते और उसके पूछते "श्रीमान ! आपके गांव में एक महापुरुष निवास करते है जिनकी आकृति गुजरात के लोगों की तरह की है। उनकी श्री मूर्ति गोरवर्ण की है, लम्बे कान, बड़ी-बड़ी विशाल आँखे लम्बी-लम्बी विशाल भुजायें, बत्तिस लक्षणों से वे परिपूर्ण है। उनके पहनावे में एक अंगोछा ही केवल कटि प्रदेश में उन्होनें पहना हुआ है तथा सिर पर एक रूमाल और हाथ में ही वे भिक्षा ग्रहण करते है। इस प्रकार के प्रभु आपके गांव में निवास कर रहे हैं। उसके प्रति उत्तर मे हां कहने पर भक्त ने फिर पूछा- क्या वे सकुशल तो है।" ब्राह्मण बोला "हां वे सकुशल है।" दुःखपूर्वक फिर पूछते - "चे किस प्रकार से रह रहे है?" ब्राह्मण उत्तर देता "वे बड़ी अच्छी प्रकार से रह रहे है।" ऐसा उनका प्रतिदिन का कार्यक्रम होता। एक दिन ब्राह्मण ने सोचा यह अजीब बात है। स्त्री पुरुषों के प्रेम की बात तो समझ में आती है. किन्तु पुरुष पुरुष के प्रति यह कैसा विचित्र आकर्षण है। एक दिन प्रतिदिन की भांति जब भक्त ने ब्राह्मण से पूछा तो उत्तर में ब्राह्मण बोला क्या तुम नहीं जानते ? भक्त के ऐसे कहने पर ब्राह्मण ने झूठ मूठ ही उत्तर दिया-उनका तो सांप के काटने से देहान्त हो गया। है रात । भक्त का अगला प्रश्न था- क्या यह सत्य है? तीन बार भक्त से ऐसा पूछने पर ब्राह्मण के तीनों बार हां सत्य है, सत्य है कहने पर भक्त का (शरीर) धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। ब्राह्मण के मुख से बरबस यह फूट पड़ा कि मैंने बहुत बुरा किया। अब क्या करूंगा ? यह सोचकर ब्राह्मण सर्वज्ञ से बताने उनके पास दौड़ा-दौड़ा जा पहुंचा। सर्वज्ञ ने इत्थंभूत सभी वृतांत सुनाने पर ब्राह्मण से कहा- तुमने बहुत ही बुरा किया! मला ऐसी बात यदि सत्य भी हो तो भी नहीं करनी चाहिए, फिर भला तुम इतना बड़ा झूठ कैसे बोल गये। अब इससे प्राप्त फल को कहां भोग पाओगे। तब उससे कुदाली फावड़ा मंगवाकर भक्त की सुश्रूषा कराके उसके पापों का नाश किया। भक्त के वियोग में सर्वज्ञ ने पलभर वहां न रुककर अन्यत्र चल दिये। ब्राह्मण ने ऐसे असत्य वचन कहने से महानू पातक प्राप्त कर लिया। इससे यह विदित होता है कि वाणी के द्वारा मानव अपना बहुत कुछ बुरा कर लेता है अतः वाचिक हिंसा का त्याग होना चाहिए । पारलौकिक बात को यदि कोई नजरअंदाज कर भी ले तो प्रस्तुत उसे महान् कष्ट भोगने पड़ते है। इसके प्रमाणार्थ महाकवि "रहीम खानखाना" का यह दोहा देखने योग्य है। 

रहिमन जिह्वा बावरी कह गई सरग पाताल

आपु तो भीतर गई जूते खात कपाल"

 इसीलिए पापों से तथा कष्टों से बचना हो तो कबीरदास के इस दोहे को भी नहीं भूलना

चाहिए

ऐसी बानी बोलिए मनका आपा खोय' 

औरों को शीतल करे आपु ही शीतल होय ।"

भगवान् श्रीचक्रधरजी ने तो अपने सान्निध्य में अन्य महात्मा के प्रति कहे गये शब्दों वाले साधक पद्मनाभी को तब तक अपने सान्निध्य में नहीं आने दिया जब तक वह जाकर उनसे माफी नही मांग आया। देखिए यह लीला परमाणु अनुभव देव नामके एक अन्य महात्मा बड़े ही वैभव संपन्न एवं प्रसिद्ध थे। वे इतने धनी थे कि हर रोज साढ़े रुपयों के पान खा लिया करते। एक बार सर्वज्ञ का शिष्य पद्मनाभी वस्त्र धोने नागझरा की और गया। वही पर परमाणु अनुभव का शिष्य भी आया हुआ था। उसे पद्मनाभी ने पूछा- आपके गुरु का नाम क्या है? उत्तर में उसने परमाणु अनुभव देव बताया तो पद्मनाभी ने तर्क पूर्ण अर्थ किया कि आपके गुरू को क्या परमाणु इतना ही अनुभव है? उसने अपने गुरू के पास जा यह बात बतला दी तो वे बड़े कुपित एवं नाराज हुए जब पद्मनाभी कपड़े धो वापस आया तो सर्वज्ञ ने कहा- माता दरवाजा बंद कर दो, इसे भीतर मत आने दो। तब नागूबाई ने पूछा - भगवन्! क्यों क्या बात है? सर्वज्ञ ने बताया "यह प्राणी के दिल को दुखी करके आया है अब हम इसका मुंह भी नहीं देखना चाहते" । सर्वज्ञ की आज्ञा के अनुरूप जब नागुबाई ने दरवाजा बंद कर दिया तो पद्मनाभी रो पड़े। नागुबाई ने दयार्द्र हो प्रभु से कहा- "प्रभो! अकेला वह बाहर रो रहा है भीतर आने दीजिए न।" बाईसा की प्रार्थना पर सर्वज्ञ बोले गोबर मिट्टी से अपना शरीर पोतकर वह उनसे जाकर माफी मांगे और वे माफ कर इसे अपना व्यक्ति कहकर हमारे पास भेजेंगे तो हम इसे अपने पास रखेंगे अन्यथा नहीं। तब नागुबाई ने उसे समझाया-बेटे! गोबर मिट्टी से अपने को पोतकर उनसे माफी मांग लो। तब पद्मनाभी वैसा ही करके उनके पास गया तो उन्होंने पूछा- तुम कौन हो ? उत्तर में उनके ही शिष्य ने बताया कि यह वही व्यक्ति है जिसने आपके प्रति अपशब्द कहे थे। तब तो उनके और भी अधिक कुपित होने पर पद्मनाभी द्वारा साष्टांग नमस्कार डाल माफी मांगने पर उन्होंने उठाया तो पद्मनाभी ने कहा- “यदि आप अपना व्यक्ति कहकर मुझे सौपेंगे तो ही वे मुझे अपने पास रखेंगे, अन्यथा नहीं।" यह सुनकर परमाणु अनुभव देव कह उठे कि श्री चांगदेवराऊवल बहुत ही सज्जन पुरुष है, उनमें इतनी नम्रता है। फिर स्नानादि के पश्चात् अपना शिष्य साथ भेज कर कहा - "स्वामी! इसे हमारा व्यक्ति समझकर रख लीजिए।" प्रत्युत्तर में स्वामी बोले हम इसे आपके द्वारा भेजा गया ही व्यक्ति समझकर रख रहे है, अन्यथा न रखते ।

इस लीला से प्रतीत होता है किसी का दिल वाणी के द्वारा दुःखी करना भी स्वामी को अभीष्ट नही है। ऐसे ही स्वामी ने एक बार अपने उपदेश में कहा कि किसी के दिल को चोट पहुंचाने वाले शब्दों से नरक भोगने पड़ते है- 'वर्मस्पर्शेनरक' । अतः वाणी पर संयम रखकर वाचिक हिंसा से बचना चाहिए । 


शारीरिक हिंसा

किसी भी प्राणी या व्यक्ति को नष्ट करना शारीरिक हिंसा में आता है। सर्वज्ञ श्रीचक्रधरजी की अनेकों ऐसी लीलाये है। जिनमें प्राणिमात्र की हिंसा का निषेध किया गया हैं। देखिए सर्वज्ञ के एकाकी परिभ्रमण के समय की यह लीला -

सालबर्डी नामक स्थान के वनप्रदेश में सर्वज्ञ गये तो रात मे वे एक स्थान पर सोये प्रातःकाल परिभ्रमण करते समय स्वामी एक वृक्ष के नीचे जा विराजमान हुए तो दो शिकारियों ने आपस में शर्त लगाकर एक खरगोश छोड़ा। सीधे सरल मार्ग को लांघता, बेतहाशा भागता हुआ कुत्तों के डर से डरा खरगोश स्वामी को देख उनके निकट आ खड़ा हो गया तो अपनी जंघा ऊंची कर सर्वज्ञ बोले- “आओ महात्मा आओ!" स्वामी की जंघा को सुरक्षित जान झट खरगोश वहाँ आ छिपा और स्वामी को लगा। पीछे से शिकारियों के कुत्ते वहां आ पहुंचे और शिकारी भी। सर्वज्ञ को आकर्षक तेजपुंज श्रीमूर्ति को देख, साष्टांग प्रणाम कर बोले- "भगवन् इसे छोड़ दीजिए। इस पर हमारी शर्त लगी हुई है। इसके लिए हम लड़ मरेंगे।" सर्वज्ञ ने उन्हें समझाते हुए कहा - "भला! हमारी शरण में आये हुए को कभी मृत्यु प्राप्त हो सकती है?" तब स्वामी की और देख वे कह उठे - "भगवन! आपने इसकी रक्षा कर ही ली तो क्या किया जा सकता है?" प्रणाम कर जब वे जाने लगे तो सर्वज्ञ ने कहा- "अरे भाई। ये जंगल के निरीह है, घास खाते है, नदी नालों का पानी पीते है भला ऐसे निरीह प्राणी की आप लोग हत्या क्यों करते है ? तुम्हारा क्या बिगाड़ते है?" स्वामी के उपदेश से प्रभावित हो उन्होनें तबसे हिंसा न करने का प्रण किया। और वहां से चल दिये। अपनी जंघा को ऊंचा कर अपने कर से स्पर्शित कर वे बोले - "महात्मा! अब जाओ। तुम्हारा कोई बाल भी बांका नही कर सकेगा।" इस लीला से स्पष्ट उपदेश किया गया है कि किसी भी प्राणी की हिंसा नही करनी चाहिए। इसी प्रकार हिंसा करने वाले व्यक्ति का साथ छोड़ते हुए स्वामी ने उसे प्रताड़ित भी किया है, यह विशेष दृष्टव्य लीला है। देखिए -

सर्वज्ञ खिखिद पर्वत के तरफ मार्ग में जा रहे थे तो उन्हें घोड़ा चूड़ी का शिष्य जो दक्षिण दिशा में आकर उत्तर दिशा की और जा रहे थे, मिला। उसने स्वामी से पूछा आप कहां से आ रहे है और कहां जा रहे है।? स्वामी ने बिना उत्तर दिये गर्दन के इशारे से ही आने जाने का संकेत कर दिया। उसने स्वामी से प्रार्थना भरे शब्दों से अपने मार्ग की प्रशंसा करते हुए कहा आप उस पर्वत की ओर चलिए। वहां अनेक सिद्ध साधक है, हमारे गुरु घोड़ा चूड़ी वहीं है । और बहुत से सिद्ध साधकों का आपको दर्शन प्राप्त होगा ।

अच्छे वन प्रदेश है, घोड़ों जितने विशाल विशाल वहां बंदर रहते है। आप हमारे साथ उधर ही चलिए । सर्वज्ञ उसकी प्रार्थना स्वीकार कर उसके साथ हो लिए। सर्वज्ञ अपने करकमलों में भिक्षा लेते और वह चाटनी करता । इस प्रकार से कुछ दिन साथ साथ चलते-चलते उनके कुछ दिन व्यतीत हुए।

एक दिन स्वामी भिक्षा कर एक पेड़ के नीचे बैठे तो सर्वज्ञ से बिना पूछे ही वह चाटनी करने चल पड़ा और एक देवी के घर जा पहुँचा वहाँ उसके अलख जगाने पर देवी ने उसकी परीक्षार्थ गरम-गरम खिचड़ी उसने हाथ पर डाल दी, क्रोध वश उसने खिचड़ी तो चट कर दी परन्तु हाथ उसके दरवाजे को पोंछ जल जाओ कहने पर अग्नि भड़क उठी। देखते देखते सारा गांव आग की भेंट होने लगा। स्वयं आगे बढ़, पीछे जलते हुऐ गांव की आरै देख हंसता हुआ वह स्वामी के पास आ पहुंचा तो सर्वज्ञ ने आंख के इशारे ही उसे कारण पूछा तो उसने इत्थंभूत वृतान्त सुनाते हुए कहा- उस देवी द्वारा मेरी परीक्षा लेने के कारण मैने सारा गांव जला दिया है। उसकी बात सुन सर्वज्ञ ने उसे प्रताड़ित करते हुए कहा - "महात्मा! इतने प्राणियों की हिंसा होने पर तुम्हें जरा भी दया नहीं आई अपितु तुम हंसे चले आ रहे हो । चले जाओ हमारे पास से, हम तुम्हारे साथ नहीं आयेंगे।” स्वामी का साथ ना छोड़ने पर स्वामी चुपचाप रात उसे छोड़कर चले गये। 

अब तक के किये गिये हिंसा के विवेचन से हमें यह भलीभांति ज्ञान होता है कि हमे मनसा, वाचा तथा कर्मणा हिंसा को त्यागना चाहिए। क्योंकि “हिंसा पाप, पाप से नरक होते है।" सर्वज्ञ के इस उपदेश से नरकों से बचने के लिए त्रिविध हिंसा से बचना चाहिए, अन्यथा नरकों का द्वार खुला ही मिलेगा सदैव हमारे लिए।

पू. श्री. दत्तराजबाबा शास्त्री

 

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