सुख-शान्ति और ईश्वर प्राप्ति

सुख-शान्ति और ईश्वर प्राप्ति

सुख-शान्ति और ईश्वर प्राप्ति


ईश्वर प्राप्ति मनुष्य देह में ही संभव है और मनुष्य देह की प्राप्ति दुर्लभ है; यह बड़े पुण्यबल तथा सुसंस्कारों से मिलता है, स्वइच्छा द्वारा नहीं मिलता। मूल सृष्टिरचना के समय ईश्वर ने प्रत्येक जीवात्मा को ईश्वर प्राप्ति के उद्देश्य से यह शरीर प्रदान किया था। जो जीव मनुष्य शरीर को पाकर भगवद् प्राप्ति के साधनों का अनुष्ठान करता है उसका तो जीवन सफल हो जाता है। जो मनुष्य अपनी आत्मा के कल्याण के लिए सदा सावधान होकर अधोगति से बचते हुए स्वयं प्रयत्नों में लगा रहता है वह अपने आप का मित्र है क्योंकि वह मन और इन्द्रियों को जीतकर सुख-शान्ति और ईश्वर की प्राप्ति कर लेता है। इसके विपरीत जो मनुष्य अपनी आत्मा ही अपना महान शत्रु है। (गीता: ६.५) के उद्धार के लिए प्रयत्नशील नहीं है वह स्वयं मनुष्य का सांसारिक दुःख-सुख भोगना तो प्रारब्ध के अधीन है, अर्थात् के कर्मों के अनुसार है, परन्तु ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में उन्नति और अवनति भाग्य के अधीन नहीं है, वह तो मनुष्य के अपने प्रयत्न पर निर्भर है। कलयुग में जन्म मात्र से मनुष्य को चौकड़ी अर्थात् चार युगों की आयु (६० लाख वर्ष) तक के लम्बे नरक भोगने पड़ते है; मनुष्य देह का कुछ पता नहीं, ये कब चल बसे, इसलिए मनुष्य को अनासक्ति पूर्वक आचरण करके तत्परता के साथ ईश्वर प्राप्ति के प्रयत्नों में जुट जाना चाहिए तभी वह चौकड़ी के नरकों से बच सकता है; और मनुष्य देह की प्राप्ति के उद्देश्य को पूरा कर सकता है। मन को वश में करने का महत्त्व सुख शान्ति और ईश्वर की प्राप्ति तो ईश्वर अवतार के मुखारबिन्द द्वारा बताये हुए वचनों के द्वारा ही हो सकती है। भगवान श्री कृष्ण ने अपनी श्रीमद्भगवद्गीता में सुख शान्ति और ईश्वर-प्राप्ति के कई उपाय बताये है; कर्म-योग, ध्यान-योग, ज्ञान-योग, भक्ति योग आदि जिनते भी साधन बताये है, उनमें से प्रत्येक साधन के अनुष्ठान में मन को वश में करना अनिवार्य बताया है। बिना मन को वश में किये किसी भी साधन का अनुष्ठान सम्पूर्ण नहीं होता और फलस्वरूप ईश्वर-प्राप्ति की सिद्धि नहीं होती। श्री भगवान अपने परमानन्द की पराकाष्ठा रूप शान्ति को प्राप्त करनेवाले मनुष्य के बारे में

निम्न श्लोक में कहते हैं :

युञ्जनेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । 

शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ (६.१५) 

मन को भली-भांति वश में किया हुआ साधक अपने मन और बुद्धि के द्वारा निरन्तर मेरे स्वरूप का चिंतन करता हुआ और उसमें अटल भाव से तन्मय हुआ अपनी आत्मा को मुझ परमेश्वर स्वरूप में लगाता है इस प्रकार वह मुझ में रहनेवाली परमानन्द की पराकाष्ठा रूप शान्ति को प्राप्त करता है। जिसका मन वश में नहीं है, जिसकी बुद्धि ईश्वर में स्थिर नहीं है उसकी क्या गति होती है? इसके बारे में भगवान श्री कृष्ण बताते

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥ (२.६६)

न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना (श्रद्धा) भी नहीं होती तथा भावनाहीन पुरूष को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित पुरुष को सुख कैसे मिल सकता है?॥ श्री मद्भगवद्गीता के अन्तर्गत कई स्थानों पर निश्च त्मका बुद्धि, व्यवसायात्मिका बुद्धि, स्थिरबुद्धि तथा समबुद्धि जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनके द्वारा यही बताया गया है बिना मन को वश में किये ऐसी निश्चयात्मिका (एक ईश्वर में निरन्तर स्थित) बुद्धि की प्राप्ति नहीं होती ।

इसमें कोई संदेह नहीं कि मन बहुत चंचल है और इसको वश में करना अत्यंत कठिन है। अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण को मन की चंचलता और उसको वश में करने की कठिनाई प्रकट की थी (गीता: ६.३४) । भगवान श्री कृष्ण ने उत्तर में स्पष्ट रूप से बताया कि मन चाहे कितना ही चंचल क्यों न हो उसको अभ्यास तथा वैराग्य द्वारा वश में किया जा सकता है (गीता : ६.३५) ।

अभ्यास की परिभाषा

परब्रह्म परमेश्वर अवतार भगवान श्री कृष्ण को लक्ष्य बनाकर मन को उनमें तदाकार करने के लिए मन को विषयों से और चित्त वृत्तियों के प्रवाह से खींच खींचकर बार-बार ईश्वर अवतार की ओर लगाने के लिए जितने भी प्रयत्न किये जाये उन सबका नाम अभ्यास है। प्रतिदिन ईश्वर अवतार के नाम, गुण, रूप, ज्ञान, लीलाओं आदि का श्रवण, कीर्तन, मनन आदि और निष्काम भाव से ईश्वरीय सेवा कार्यों में इन्द्रियों को लगाना तथा धारणा शक्तिद्वारा इन्द्रियों की क्रियाओं को ईश्वर के अनुकूल बनाना और साथ ही साथ उनमें स्वेच्छा का दोष न पैदा होने देना अभ्यास का अनुष्ठान है। इस बात का विशेष ध्यान बुद्धि से,

मच्चित्ता मगतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ (१०.९)

अभ्यास के साधन द्वारा जो लोग सगुण साकार ईश्वर अवतार भगवान श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकंद को अपना परमप्रेमी, परम आत्मीय, परम-बन्धु और परमगति मानकर अपने मन को अनन्य भाव से उनमें लगाये रखते है, संसार की समस्त वस्तुओं, पदार्थों और प्राणियों से अपने प्रेम को हटाकर केवल उन्हीं से सम्पूर्ण प्रेम करते है, उन्हीं का सतत चिंतन करने है, प्रतिदिन सम्पूर्ण श्रद्धा और प्रेम के साथ गीता ज्ञान का नियमपूर्वक पढन-पठन, मनन, श्रवण, चर्चा करते है तथा भगवान के नाम, गुण, लीला आदि का भजन कीर्तन और स्तुति करते है, वे इस प्रकार से शीघ्र ही मन की विषय भोगों और सांसारिक पदार्थों में आसक्ति से निवृत्त होकर नित्यनिरंतर संतुष्ट और आनन्दित रहते है।

वैराग्य

इस लोक तथा परलोक के समस्त पदार्थों में आसक्ति तथा सम्पूर्ण कामनाओं का पूर्णतया से नाश हो जाने का नाम वैराग्य है। वैराग्य के चार मुख्य साधन है :- (१) विषयों का बाहर से त्याग (२) इन्द्रियों के विषयों में अंदर से राग-द्वेष का त्याग (३) विषयों मे आसक्ति की निवृत्ति और (४) कामनाओं का त्याग विषयों का बाहर से त्याग

मन को वश में करने के लिये विषयों का बाहर से त्याग अत्यंत आवश्यक है। समस्य इन्द्रियों की वृत्तियों को इन्द्रियों के सम्पूर्ण विषयों से हटाने से विषयों का बाहर से त्याग होता है। ऐसी अवस्था में इन्द्रियाँ विषय भोगों की ओर आकर्षित नहीं होती और तब उनमें मन और बुद्धि को विचलित करने की शक्ति नहीं रहती। इस प्रयत्न में जो इन्द्रियों द्वारा सूक्ष्म विषयों का उपभोग स्वप्न और मनोराज्य की संभावना बनी रहती है उसे भी इन्द्रियों से सर्वथा हटा लेना चाहिए। कछुवे के उदाहरण द्वारा भगवान श्रीकृष्ण इस बात को निम्नलिखित श्लोक में बताते हैं : 

यदा संहरते याचं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (२.५८)

समस्त इन्द्रियाँ वश में न होने के कारण यदि मनुष्य बुद्धि को परमात्मा में लगाना भी चाहे, तो भी जो एक ही इन्द्रिय वश में नहीं है वह उसे परमात्मा से हटाकर नाना प्रकार के भोगों की प्राप्ति और उनके उपायों में लगा देती है और पापों में प्रवृत्त करके उसका अधःपतन करा देती है। इसके अतिरिक्त साधक को सदैव ईश्वर के परायण होकर अभ्यास के साधन का अनुष्ठान करना है। यदि इन्द्रियों का संयम तो हो गया परन्तु मन वश में नहीं है तो मन के द्वारा विषय-चिंतन होने से साधक का पथ से भ्रष्ट हो जाता है; और यदि साधक सदैव ईश्वर परायण नहीं है तो ईश्वर का आधार न रहने से उसके मन और बुद्धि स्थिर नहीं रह सकते।

इन्द्रियों को उनके विषयों से सर्वथा नगृहीत करने के लिये, साधक को उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति को रोकना है, उनके विषयलोलुप स्वभाव को परिवर्तित करके ईश्वर की ओर लगाना है, और उनमें विषयासक्ति का अभाव कर देना है तथा उनमें जो मन और बुद्धि को विचलित करने की शक्ति है उसे हटा लेना है। इस प्रकार से वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा इन्द्रियों की क्रियाओं का त्याग हो जाता है और साधक की बुद्धि स्थिर हो जाती है।

राग और द्वेष

बाहर से विषयों का त्याग कर देने पर भी विषयों में जो राग और द्वेष छिपे रहते है उनकी निवृत्ति नहीं होती। भगवान श्रीकृष्ण राग और द्वेष के बारे में निम्न श्लोक द्वार बताते है :

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषो व्यवस्थितौ । 

तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ (३.३४)

अन्तःकरण के सहित समस्त इन्द्रियों के जितने भी विषय हैं जिनके साथ इन्द्रियों का संयोग वियोग होता रहता है तब राग-द्वेष का प्रादुर्भाव प्रतीत होता है; उन सब विषयों के पीछे राग और द्वेष अलग-अलग छिपे रहते है। राग और द्वेष मनुष्य को मित्र की तरह प्रतीत होते है और इस प्रकार मित्रता का भाव दिखाकर उसके मन और इन्द्रियों में प्रविष्ट हो जाते है, फिर उसकी सांसारिक विषय-भोगों का प्रलोभन देकर पापाचार में प्रवृत्त कर देते : है। मनुष्य राग और द्वेष के वशीभूत होकर क्या नहीं करता ? यहां तक की ईश्वरीय धर्म का त्याग भी कर देता है, अन्यधर्म को ग्रहण करके निषिद्ध कर्मों के आचरण में लग जाता है, फलस्वरूप घोर नरकों को प्राप्त होकर भयानक दुःखों को भोगता है। भगवान श्रीकृष्ण नीचे दिये गये श्लोक के द्वारा उस साधक के बारे में बताते है जिसने अपनी इन्द्रियों को राग और द्वेष से रहित कर लिया है :

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति । (२.६४)

जब मनुष्य इन्द्रियों को वश में कर लेता है उनमें जो राग-द्वेष होते है उनका त्याग कर देता है, ऐसी अवस्था में उसे जो योग्यता प्राप्त होती है उसके कारण पदार्थों को भोगते हुए भी वह उनके बन्धनों से बचा रहता है। उसकी क्रियाओं में राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारों का अभाव होने के कारण उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है इस शुद्धता के द्वारा ऐसा मनुष्य अध्यात्मिक सुख और शान्ति का अनुभव प्राप्त करता है। अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का बना होता है पूर्व अर्जित पाप और दोष रूप संस्कारों का नाश करके जो अन्तःकरण विशुद्ध हो जाता है उससे युक्त होकर तथा अटल धारणाशक्ति द्वारा साधक को सांसारिक विषयों के चिंतन से रहित होकर इन्द्रियों को उनमें प्रवृत्त नहीं होने देना चाहिए। संयम द्वारा मन, इन्द्रिय और शरीर को अपने अधीन बनाकर उनमें इच्छाचारिता और बुद्धि को विचलित करने की शक्ति का अभाव कर देना है। इस लोक और परलोक के किसी भी भोग पदार्थ, प्राणी, वस्तु, क्रिया या घटना में जरा सी भी आसक्ति या द्वेष न रखकर, सुख, शान्ति और ईश्वर-प्राप्ति से वंचित करनेवाले महान शत्रु, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट कर देना चाहिए । आसक्ति राग-द्वेष, हर्ष-शोक, प्रिय-अप्रिय, सिद्धि-असिद्धि आदि सब अन्तःकरण के विकार है । इनसे रहित होने के लिए आसक्ति का त्याग अर्थात्, वैराग्य की परम आवश्यकता है। जो पुरूष आसक्ति का त्याग कर देता है, उसमें राग और द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाता है, और जिसमें राग-द्वेष नहीं उसमें समस्त विकारों का अपने आप नाश हो जाता है। सुख-शान्ति और ईश्वर प्राप्ति के जितने भी साधन गीता में बताये गये है; उन सब के लिए आसक्ति का त्याग अत्यंत आवश्यक है। आसक्ति के त्याग का महत्त्व भगवान श्रीकृष्ण नीचे दिये गये श्लोक द्वारा प्रकट करते है :

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् । 

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ (५.२१)

अन्तःकरण में स्थित आनन्द की प्राप्ति की योग्यता पाने के लिए मन को ईश्वर में लगाना और सांसारिक पदार्थों से आसक्ति का त्याग करना अत्यंत आवश्यक है; बाहर के विषयों में वास्तविकता में कोई आनन्द नहीं, केवल सुख की प्रतीति मात्र होती है। इससे कई गुणा अधिक आनन्द वैराग्य में पाया जाता है, और वैराग्य के सुख की अपेक्षा उपरति का सुख तो और भी ऊँचा होता है। इन सुखों के अतिरिक्त ईश्वर में मन लगाने से और उनके ध्यान आदि में ही लीन रहने से जो सुख और आनन्द प्राप्त होता है वह इन उपर्युक्त तीनों प्रकार के सुखों से अत्यंत श्रेष्ठ है। परन्तु साधन काल के इन सुखों में से किसी को भी के अक्षय सुख नहीं कहा जा सकता। अक्षय सुख तो ईश्वर प्राप्ति होने पर ही मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण आसक्ति से छुटकारे के बारे में बताते हैं :

अश्वत्थमेनं सुविरूदढमूल : मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्वा ॥ (१५.३ उत्तरार्ध) 

भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को दृढ़ मूलोंवाला बताया है; अहंता, ममता और वासना इसके दृढ़ मूल है जो अनादि काल से पुष्ट होने के कारण अत्यंत दृढ़ हो गये है। जब

ज्ञान मोचक जाफेमा २००२ तक विवेक ज्ञान द्वारा समस्त संसार को नाशवान और क्षणिक समझकर, स्त्री-पुरुष, पुत्र पुत्री, धन-मकान तथा मान प्रतिष्ठा और स्वार्थ आदि समस्त भोगों में सुख की प्रतीति और रमणीयता में आसक्ति का सर्वथा अभाव नहीं हो जाता तब तक इस दृढ़ जड़ोंवाले संसार के झूठे सुखदायक बन्धनों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता ।

जब मनुष्य इन्द्रियों के राग-द्वेष का नाश कर लेता है और संसार के पदार्थों, मनुष्यों, घटनाओं और परिस्थिति में आसक्ति का त्याग कर देता है, तब उसमें संसार के भोगों और कामनाओं का भी अभाव हो जाता है। परन्तु जब तक मनुष्य में तनिक भी कामना विद्यमान है और उसके मन तथा बुद्धि में सूक्ष्मरूप से राग और द्वेष रहते हैं तब तक सुख, शान्ति और ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं। इस लोक और परलोक में कामना ही एक मात्र मूल बंधन है, दूसरे सारे बंधन कामना के कारण ही होते हैं। जो कामना के बंधन से छूट जाता है वह सुख, शान्ति और ईश्वर प्राप्ति के लिये समर्थ हो जाता है। । काम से मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है, क्योंकि काम ही मनुष्य को पापों में प्रवृत्त कर उसे नरकों का भागी बनाता है ।

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । 

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥ (३.३७)

यह काम कभी न तृप्त होनेवाला है, जैसे जैसे मनुष्य भोगों में प्रवृत्त होता है वैसे-वैसे उसकी उतनी ही अधिक भोगों में तृष्णा बढ़ती जाती है। कामनाओं की पूर्ति के लिए जो सामग्री इकट्ठी करने के लिए कर्म करने पड़ते है, वो सब पापयुक्त होते है। यह ध्यान रखना है कि मनुष्य को न तो कभी ईश्वर पापों में प्रवृत्त करता है और न ही प्रारब्ध उसे पापों में नियुक्त करनेवाला है; यह काम ही मनुष्य को नाना प्रकार के भोगों में जबरदस्ती पापरूप कर्म करवाने वाला है। आसक्त करके

काम ज्ञान को ढ़क देता है, परन्तु ज्ञान इस तरह से ढके होने पर भी काम से कई गुणा अधिक बलवान है; जब किसी सन्त, ज्ञानी, महात्मा, गुरुजनों द्वारा बताये ब्रह्मविद्या, गीता उपदेश से मनुष्य में तत्त्वज्ञान को जाग्रति हो जाती है तब उस समय काम से आवृत हुआ ज्ञान काम का नाश करके प्रकाशित हो बैठता है, काम के दुर्जत्व का सर्वथा नाश हो जाता है, आत्मा अपने स्वरूप को जानकर बुद्धि, मन और इन्द्रियों पर अपना अधिपत्य जमा कर उन्हें अपने वश में कर लेता है। भगवान श्रीकृष्ण निम्नलिखित श्लोक द्वारा साधक के लिये सम्पूर्ण आचरण का उपदेश देते हैं :

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृतकामाः ।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुख-दुःख संज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ (१५.५) 

इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो ईश्वर में स्थित होकर अर्थात् निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा मन, मोह, आसक्ति और इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में कामनाओं का सर्वथा पूर्ण रूप से त्याग देता है; तथा मन बुद्धि और इन्द्रियों सहित शरीर में और उसके साथ सम्बंध रखने वाले सारे जड़-चेतन पदार्थों में ममता का त्याग कर देता है; और द्वंद्वों से रहित हो जाता है वही ज्ञानीजन सुख-शान्ति और मेरे अविनाशी परम पद को प्राप्त होता है। भगवान श्री चक्रधर ने अपने ब्रह्मविद्या शास्त्र के असतिपरि प्रकरण में असन्निधान धर्म का निरूपण करते हुये भी उपर्युक्त आचरण द्वारा ही ईश्वर प्राप्ति बताई है।

परमानंददास महानुभाव 

Thank you

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post