भाग 005 जिज्ञासा पूर्ति महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता mahanubhav panth dnyansarita

भाग 005 जिज्ञासा पूर्ति महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता mahanubhav panth dnyansarita

 भाग 005 जिज्ञासा पूर्ति 

महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता 

mahanubhav_panth dnyansarita 



जिज्ञासा :- नाम धारक का क्या महत्त्व है, विस्तार पूर्वक बतलाएं ? 

पूर्ति :- कर्मरहाटी (देवता भक्ति) में छोटी-मोटी अनेक देवी देवताएं हैं। उनकी भक्ति करने वाले बड़े-२ सिद्धि सामर्थ्य वाले पुरुष होते हैं उनसे भी अधिक योग्यता नाम धारक की होती हैं। क्योंकि यक्षिणी से लेकर चैतन्य माया के सिद्ध साधकों को 60 लाख साल तक चौकड़ी के नरक भोगने ही पड़ते है परन्तु परमेश्वर का नाम धारक अटल श्रद्धा रखता है तो उसको कलियुग में जन्म लेकर भी चौकड़ी के नरकों में जाना नहीं पड़ता। क्रमशः वह निष्काम कर्म की ओर अग्रसर होकर परमेश्वर के परमानन्द को प्राप्त करता है।

गीता में भगवान करते हैं कि जो पुरुष मुझे अपना सब कुछ समझता है वह संसार में अति दुर्लभ है। दुर्लभ वस्तु की कीमत भी सब से अधिक होती है।

स्वामी जी भी कहते है कि संसार में अनेक विध सुख सम्पत्ति है परन्तु वह स्थिर रहने वाली नहीं है, जीव की सच्ची सम्पत्ति परमेश्वर तथा उसका परमानन्द है। जिस नाम धारक ने परमेश्वर को ही अपनी सच्ची सम्पत्ति मान लिया है, झूठी सम्पत्ति (जीव देवताओं के द्वारा मिलने वाला सुख) को ठुकरा दिया वह सब से बड़ा धनवान् और सबसे अधिक सुखी है। परमेश्वर भक्तों के पैरों की धूल की बराबरी भी देवता या देवता भक्त नहीं कर सकते।


जिज्ञासा :- भगवान मनुष्य अन्दर की बातें किस तरह समझ लेते हैं ?

पूर्ति :- जीव और देवताओं के अन्दर कुछ सोचने की शक्ति होती है परन्तु उसकी मात्रा बहुत कम होती है परन्तु परमात्मा के अन्दर "सर्वज्ञ" (अन्दर बाहर की सभो जानकारी का होना) एक महान शक्ति है। जिसके द्वारा जीव, देवता और प्रपंच के अन्दर बाहर क्या कुछ है सब कुछ पता चल जाता हैं।


जिज्ञासा :- मेरे नाना जी को उनके घरमें दफनाया था। मेरी माता जी पहले तो वहां खान-पान करती थी परन्तु जबसे उपदेश लिया है वहां नहीं जाती । क्या वहां जाना या खाना-पीना उचित है ?

पूर्ति :- जहां पर भी किसी मूर्दे को जलाया जाता है या भूमि में गाढ़ा जाता है वहां पर भूत-प्रेतों का वास हो जाता है। परमेश्वर भक्तों के लिए ऐसे स्थान पर जाना या खान-पान करना उचित नहीं है।

जिज्ञासा :- मैं घुटने के दर्द के मारे दण्डवत् नहीं डाल सकती मैं समझती हूं कि यह पाप है, मुझे आगे का डर है कि कहीं सववि का तो जन्म नहीं मिले? चौकड़ी मार कर पाठ नहीं कर सकती, लम्बे पैर करके बैठना पड़ता है। आरती बैठ कर करती हू यह सब पाप है क्या करूं मुझे समझ नहीं आता ?

पूर्ति :- परमेश्वर अन्तार्यामी है वह सब कुछ जानता है जानबूझ कर जो यथा युक्त विधियों का अनुष्ठान नहीं करता उसे अविधि होता। स्वामी ने अशक्त के ऊपर विधियों का बन्धन नहीं रखा पाठ स्मरण जो भी करते हैं जिस तरह भी कर सके करें पूर्ण विधि का अनुष्ठान न होने का दिल में दुःख जरुर मनाते रहे। पश्चाताप करने से हो सकता है कि परमात्मा की कृपा दृष्टि हो जाय जिससे आपकी बीमारी हमेशा के लिए समाप्त हो जाय और आप विधि पूर्वक धार्मिक विधि करने लग जाएं ।

जिज्ञासा :- आरती में आता है कि - ‘सत युग में सनकादिक तारे हंस रूप अवतार’ हंस तो पक्षी होता है उसने ज्ञान कैसे दिया?

पूर्ति :- देवताओं के लोक में, देवताएं ही पशु-और पक्षी के रूप में होती है. जिस तरह इन्द्र का वाहन ऐरावत हाथी, सरस्वती का मथुर, महा देव का नंदी (बैल) विष्णु का गरुड़, ब्रह्म का हंस कामधेनु और कल्प तरु, पार्यातक पेड़ के रुप में भी देवताएं होती है। उनका आपस का व्यवहार पश्यन्ति (आंखों के इशारे से) मध्यमा (होठों के इशारे से) वैखरी (वाचा के द्वारा) चलता है। 

जिज्ञासा :- पूजा करने के बाद दण्डवतें डालने से पशु पक्षी, पेड़-पौधों की योनियों का ही नाश होता है या सभी योनियों का ? 

पूर्ति :- पूजन के विधियों में दण्डवतों का बड़ा महत्व है। दण्डवतें डालने से (1) आरोग्य प्राप्त होता है। (2) अहंकार टूटता है। (3) रजोगुण नष्ट होता है। (4) नम्रता आती है। (5) भाव-भक्ति और श्रद्धा बढ़ती है। (6) पशु-पक्षी तथा पेड़-पौधे, सांप-बिच्छु आदि पेट के बल चलने वाली योनियों का नाश होता है। (7) पर मेश्वर अवतार की प्रसन्नता होती है। सारांश :- परमेश्वर विहित किसी भी विधि का साधक दुःख पूर्वक अनुष्ठान करता है तो दुःख रूप यानि नरक योनियों का नाश होता है और विधि अनुष्ठान करते हुए खुशी होती है सुख प्रतीत होता है, तो पुण्य रूप कर्म फलों का नाश होता है।

यहां प्रश्न उत्पन्न होता है कि परमात्मा तो सुख दानी है फिर पुण्य कर्मों का नाश क्यों करवाते हैं? इस का उत्तर यह है कि मोक्ष मार्ग में अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के कर्म रुकावट डालते हैं। अतः शुभ-अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों का नाश करना अनिवार्य है।

जिज्ञासा :- नाम लेने के पहले हम देवी-देवताओं की भक्ति करते थे, उनकी फोटो और पुस्तकों को क्या करना चाहिए?

पूर्ति :- जिस काम को हम अपने लिए उचित नहीं समझते उस कार्य के लिए दूसरों को भी प्रेरित करना उचित नहीं है, अतः जल प्रवाह कर देना ही अच्छा है।

जिज्ञासा :- पाण्डु राजा के द्वारा सौ यज्ञ पूर्ण नहीं होने से स्वर्ग का फल न देकर देवताओं ने उसे पत्थर में डाल दिया था। क्या उसी तरह कलियुग देवताओं के धर्म का विधान है?

पूर्ति :- देवताओं के धर्म का विधान है की, भक्ति बीच में छूट जाने पर देवताएं "प्रत्यवाय के नरक में साधक को डालती है। नरक भोग के बाद जितना धर्म-कर्म किया होता है उसके बदले में सुख फल भी देती हैं क्योंकि कोई भी किया हुआ कर्म व्यर्थं नहीं जाता।


Thank you

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