क्षमा याचना(प्रायश्चित) का महत्व

क्षमा याचना(प्रायश्चित) का महत्व

 क्षमा याचना(प्रायश्चित) का महत्व 



ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त ज्ञानी का प्रथम कर्तव्य यह है कि वह दोषों दुगणों का परित्याग करके सावधानी पूर्वक शास्त्र आज्ञा के अनुसार आचरण करें। गुणों को अपनाएं। परन्तु पूर्व आर्जक के अनुसार अच्छे और बरे दोनों ही प्रकार के कम मनुष्य के हाथों से होते हैं। न चाहते हुए भी मनुष्य के हाथों से बुरे कर्म हो जाते हैं। जिस तरह अच्छा भला वाहन चालक सालों का वाहन चलाने का अनुभव होते हुए भी उसके हाथों से कभी-2 वाहन का टकराव हो जाता है। उसी तरह कभी-2 अच्छे अनुभवो “साधक" के द्वारा भी गलती हो जाती है। गलतियों से बचने के लिए साधक हमेशा प्रयत्नशील रह कर परमेश्वर से क्षमा याचना करता रहे और दोषों से बचाव के लिए परमात्मा से प्रार्थना करें ।

'साधक' को चाहिए कि मूल-सृष्टि से लेकर आज तक अनन्त सृष्टियां बीत चुकी हैं। गत अनन्त सृष्टियों में अनन्त बार परमेश्वर ने हमें ज्ञान दिया परन्तु मैनें प्रत्येक सृष्टि में ज्ञान मार्ग को छोड़ कर कुमार्ग अपनाया। भोग विलासों की लालसा से जीवों की चाकरी की और देवताओं का दास बना। जिसके कारण परमेश्वर को उदास किया। और अविधि मार्ग पर चल कर जीवों की हिंसा करता रहा तथा देवताओं को खेद पहुंचाता रहा। जिससे परमात्मा को खती आई । गत सृष्टियों में या गत जन्मों में अथवा इसी जन्म में ज्ञान होने से पूर्व जो 2 भी पाप कर्म किए उनके विषय में प्रति दिन दुःख करें। पिछले दोषों दुष्कृतों को याद करके दुःख किया जाता है इसे "निर्वेद" कहते हैं।

ज्ञान होने के बाद समय पर परमेश्वर आज्ञा का पालन न करना, विषय-विकारों में फंसा रहना विकार विकल्प दोषों का त्याग न करना, निन्दा चुगली झूठ-कपट दोषों का आचरण करता रहा इस तरह बार-2 दुःख करना भगवान से क्षमा मांगना इसे "अनुताप" कहते हैं।

भविष्य में दुष्कर्मों से किस प्रकार बचाव होगा अतः दुःख किया जाता है इसे 'अनुसोच' कहते हैं।

परमेश्वर किस प्रकार प्राप्त होगा ऐसी चिन्ता रात-दिन करते हुए दुःख करते रहना इसे 'आर्ती' कहते हैं।


जो साधक' प्रतिदिन निर्वेद, अनुताप, अनुसोच और आतीं करता है वह परमात्मा की कृपा से पिछले पापों से मुक्त होकर परमेश्वर की कृपा का पात्र बनता है। और जो 'साधक' उपरोक्त चतुविध दुःख नहीं करता उसे शास्त्रों में कहा गया है कि वह 'भिक्षुक' होकर 'भिक्षुक' नहीं है, 'वासनीक होकर 'वासनीक' नहीं है। फिर ऐसे व्यक्ति को क्या कहना चाहिए ? शास्त्र कहता है कि ऐसे भिक्षुक वासनीक को जीवित 'प्रमादी' समझना चाहिए ।

पुराने समय में आश्रमों में साधु-सन्त सुबह जल्दी उठ कर सौ, दो सौ चार सौ, पांच सौ तक दण्डवतें डालते थे । दण्डवतें डालते समय रदन करते थे । भगवान से प्रार्थना करते थे । महन्त श्री केशराज दादा सातार कर (फलटण) कहा करते थे कि हम ग्यारह सौ दण्डवतें रोज डालते थे। उपरान्त पच-2 किलो ज्वारी का आटा पीसते थें। साधनों के प्रति अटूट श्रद्धा और प्रेम एक दूसरे के मन में होता था। एक दूसरे के प्रति नम्रता का बर्ताव होता था। एक दूसरे 'साधनों' का सम्मान किया जाता था ।

सारांश : -'साधनों' की प्रीति और दोषों से घणा होनी चाहिए। और परमेश्वर की कृपा को प्राप्त करने के लिए देश, ग्राम और परिवार का त्याग जरुरी है। द्रव्य जमा करने वाले व्यक्ति पर परमेश्वर की कृपा नहीं होती। द्रव्य जमा करने वाले व्यक्ति में धीरे 2 सभी दोषों दुगुणों का निवास होता है। अतः घर से द्रव्य साथ में लेकर न चलें, यदि दान रूप में द्रव्य प्राप्त होता है तो उसे परमेश्वर की सेवा में खर्च कर डालें। जिस विधि के लिए द्रव्य प्राप्त हो उस विधि में उसे खर्च कर देना चाहिए । निर्वेद, अनुताप अनुसोच और आर्ती इस तरह चतुविष दु:ख करते हुए निर्मल जीवन व्यतीत करने वाले साधकों पर परमेश्वर की कृपा की वर्षा होती है। ऐसा व्यक्ति दोषों दुगुणों से छड़ कर परमेश्वर के परमानन्द को प्राप्त करता है।


परमेश्वर की अनन्य शरण में आने पर  और प्रायश्चित करणे पर पूर्व जन्मों में किए हुए कर्मों के संस्कार उसको डावाडोल कर सकते हैं परन्तु परमेश्वर ने उसकी व्यवस्था पहले ही कर रखी है। जैसे ऋणी (कर्जदार) का दृष्टांत ।
एक मनुष्य ने अनेक लोगों से कर्ज ले लिया। जब वह बाहर निकलता है तो एक उसको पकड़कर मांगत्ता है उसको कुछ देकर हटता है तो दूसरा पकड़ लेता है, उसको कुछ देकर हटता है तो तीसरा पकड़ लेता है। इस प्रकार उसका जीना कठिन हो गया। दुःखी होकर वह राजा की शरण में जाता है। जिन २ लोगों का कर्ज होता है, राजा उन सबको बुलाकर उसके कर्ज की व्यवस्था करता है ।
आधा कर्ज तो माफ करवा देता है और आधे की व्यवस्था करता है । राजा कहता है कि यह अति गरीब निधन हो गया है अतः इससे एक रुपए के बदले एक कोड़ी मिलेगी। कोड़ी के बदले में जो भी दे, जिस समय दें, एक समय में दे अथवा अनेक समय में दे, लेना पड़ेगा। जबरदस्ती नहीं करनी ।

उसी तरह इस जीव ने सभी देवताओं के कम (दुःखफल) जोड़े होते हैं। देवताएं इस जीव को कभी यमपुरी के नरकों में डाल देती है. कभी चौरासी लाख योनियों में दुःख भुगवाती है कभी चौकड़ी के नरकों में डालती हैं, कभी भूत-प्रेत की योनि में दुःख भुगवाती है। मनुष्य योनि में आने पर भी किसी को अन्धा, किसी को लंगड़ा-लूला बहरा आदि अव्यव भंग कर देती है। कभी पागल बना देती है या अनेक प्रकार के रोग शरीर में लगा है। किसी-२ को महारोग भी हो जाते हैं अथवा गरीबी का कष्ट जीव भोगता रहता है। इस तरह अत्यन्त दुःखी होकर जीव परमात्मा की शरण में जाता है तो देवताए कुछ कर नहीं सकती परन्तु उसके कर्ज का ध्यान रखती है। परमेश्वर उस अनुसरणय त पुरुष से नित्य विधि, निमित्य-विधि का अनुष्ठान करवाकर कों का नाश करवाते है जिस तरह साधु दोप्रहर की कठोर धूप के समय गांव में भिक्षा के लिए जाता है। किसी देवता के कर्म जोड़े हैं कि उसको बुखार आना चाहिए परन्तु भिक्षा विधि के समय धूप का कष्ट ह ता है वह देवता मान लेता है कि यह स्वयं हो दुख है इसे क्या दुःख दें। इसी तरह अलग-२ विधियों के द्वारा अलग-२ कर्मों का नाश हो जाता है।



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