छुताछुत अस्पृश्यता निवारण- महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता
asprishyata nivaran Mahanubhav panth dnyansarita
removal of untouchability
सर्वज्ञ श्री चक्रधर महाराज ने अस्पृश्यता निवारण का विड़ा ऐसे समय में उठाया जिस समय वैदिक धर्म अवलम्बि लोगों के दिल दिमाग और व्यवहार में छुत-अछूत की बीमारी चरम सीमा तक पहुंची हुई थी । वैदिक धर्म ग्रन्थों में वैश्य शूद्र और स्त्रियों को धर्माचरण का अधिकार नहीं दिया गया था।
अन्यथा ज्ञान का इतना अधिक प्रचार हो चुका था कि स्त्रियों को धर्म कर्म व्रत-नियम, पूजा-पाठ व परमेश्वर के नाम स्मरण करने की कोई जरुरत नहीं थी। स्त्रियों के लिए पति ही परमेश्वर है, पति की तन, मन, धन से सेवा करना खाना पकाना और बच्चों का पालन-पोषण करना ही उस समय का धर्म माना जाता था। स्त्रियों के लिए किसी प्रकार की भी स्वतन्त्रता नहीं थी । यदि कोई अपने विचार प्रकट करती थी तो उसके लिए पिटाई का प्रसाद मिलता था। कर्मों के अनुसार यदि पति की मृत्यु हो जाती थी तो पत्नी को भी साथ चिता में जलना पड़ता था। यदि कोई आना कानी करती थी तो रिश्तेदार जबरदस्ती हो पकड़कर चिता में डाल देते थे ।
ऐसा था उस समय का हिन्दु धर्म। एक तरफ तो कहते थे कि किसी भी प्राणी को कष्ट पहुंचाना पाप है और दूसरी तरफ जीवित स्त्रियों को चाहे वह जवान हो या वृद्ध चिता में जलाने का रिवाज आम चालु था। ऐसे समय में स्वामी ने क्रान्ति उत्पन्न की। स्त्रियों का स्वतन्त्रता दिलाने और कुरुढ़ियों को समाप्त करने के लिए स्वामी को भारी प्रयास करना पड़ा। श्रीचक्रधर स्वामी जी ने स्त्रियों को जागृत करने के लिए स्पष्ट बतलाया कि स्वतंत्रता से ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है । और पराधीनता ही बन्धन का कारण है शरीर सम्बन्धी पति तो प्राण त्याग करके साथ छोड़ देता है अतः जन्म-जन्मान्तरों में साथ निभाने वाले आत्मा के पति परमेश्वर की ही आराधना करनी चाहिए।
उस समय के विद्वानों के विचार स्त्रियों के प्रति किस प्रकार के थे निम्नोक्त लीला से समझे जा सकते हैं। डोमेग्राम स्थित छिन्नस्थली के समीप गुफा में स्वामी का निवास था। सारंगपंडित स्वामी के दर्शन के लिए आए। दूर से ही उन्होंने देखा कि कुछ माता-बहिनें स्वामी के पास बैठी हुई हैं। स्वामी उन्हें धर्मोपदेश कर रहे हैं।
परम्परा गत दूषित विचारों के कारण सारंग पंडित क्रोधित होकर मन ही मन सोचने लगे कि "इन सभी स्त्रियों को महाराष्ट्र से बाहर निकालकर तेलंग देश में भेज देना चाहिए और इनके हाथों से अनाज साफ करवाना वा पिसवाना चाहिए और हमने यानि पुरुषों ने ही स्वामी के सन्निधान में रहना चाहिए। सर्वान्तर्यामी परमेश्वर श्री चक्रधर स्वामी जी ने उनके मन के कुविचारों को जानकर भक्तों को आज्ञा की कि-सारंग पंडित को ठंडे पानी में खड़ा कर दिया जाय" ।
सारंग पंडित ने कहा प्रभो ! में स्वयं ही दण्ड स्वीकार करता हूं। वस्त्र के सहित पानी में बैठ गए। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर बाइसा ने स्वामी से प्रार्थना की कि, जी महाराज बहुत देर हो चुकी है, अब उसे बुला लीजिए । स्वामी ने कहा कि दण्ड पूरा हो जाने पर वह स्वयं ही आ जाएगा। कुछ देर के बाद सारंग पंडित ने स्वामी के पास आकर दण्डवत प्रणाम किया और श्री चरणों पर नमस्कार करके के पास बैठ गए।
स्वामी ने उनसे कहा कि स्त्रियों के प्रति तुम्हारे कितने गलत विचार है कि उन्हें देश से बाहर निकाल दिया जाय। धर्म की चाह से सैकडों स्त्रियां ही तुम्हारी अपेक्षा तो हमारे पास रहे तो अच्छा है। क्या तुम्हारा जीव है और स्त्रियों को जीउलियां हैं? क्या तुम्हारी रक्षा करने वाला एक परमेश्वर है और इनको रक्षा करने वाला दूसरा परमेश्वर है ? हमारे पास क्या स्त्री पुरुष का भेद-भाव है ? इस प्रकार स्वामी ने सारंग पंडित को क्रोधित होकर समझाया।
इसी प्रकार के दुविचार छोटो जाती वालों के प्रति थे। उन्हें छता तो दूर रहा छोटी जातिवालों की छाया भी अपनें उपर नहीं पड़ने देते थे। यदि गलती से छाया पड़ जाती ता वस्त्र के सहित स्नान करते थे, फिर उनके हाथों का अन्न-जल ग्रहण करना तो दूर हो रहा। यदि कोई छूताछूत के नियमों का पालन नहीं करता तो उसे जाति से बाहर कर देते थे। ऐसे विकट समय में स्वामी ने किसी की परवाह नहीं की और क्रान्ति करके दिखलाई ।
भिंगार प्रदेश में दाको नामक चमार को स्वामी के दर्शन हुए थे। स्वामी के लिए एक पांच रंग की चादर और चंवरी बनाकर लाया स्वामी को भेट की उसका स्वामी ने स्वीकार किया। उसको स्वामी ने अपने सामने पंक्ति में बिठाकर भोजन करवाया। इसी तरह एक मातंग के हाथों का लड्डु स्वामी ने स्वीकार किया और भक्तजनों को भी प्रसाद दिया। इसी तरह पान पोही जि. बीड़ में चमार के हाथों का पान का बिड़ा स्वामी ने स्वीकार किया।
इसी तरह श्री गोविन्द प्रभु अपने अवतार काल में कई बार अस्पृश्यों के साथ लीलाएं करते रहे। उनके घरों में जाना उनके हाथों का खान-पान करना, उनके दुःख-कष्ट सुनकर उनका निवारण करना। इस तरह दोनों ही अवतारों ने स्त्रियों का तथा अस्पृश्यों का अभिमान लेकर तकरीबन 700 वर्ष पूर्व ही अस्पृश्यता का निवारण और स्त्री मुक्ति का आन्दोलन शुरू किया।
मनुष्य मात्र को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष अथवा चारों वर्गों में किसी भी जाति का क्यों न हा। सभी की आत्माएं एक समान है और सभी के शरीर भी पंच भूतों के एक जैसे ही है । संसार की अहंता ममता को त्याग कर प्रभु चरणों में अनुराग रखने वाला व्यक्ति संसार चक्र से छटकर, नित्यानन्द, परम पद को प्राप्त कर सकता है। इसी परम्परा को हमारे पूर्वजों ने आगे चलाया। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि आज भी हजारों की संख्या में "हरिजन" लोग जय कृष्णी समाज के अनुयायी है।
मीट-शराब, हिंसा, चोरी आदि दुर्व्यसनों से दूर रहकर एक परमेश्वर की अनन्य निष्ठा से उपासना करते हैं सैकड़ों "हरिजन" समाज के महात्मा हुए हैं। अपने-२ अधिकारों के अनुसार धर्मांचरण करते आए और कर रहे हैं। और परमेश्वर की प्राप्ति के योग्य हो गये है। हमारे महानुभाव धर्म के समाज में छोटे-बड़े का ऊंच-नीच या जात-पात का भेद-भाव माना नहीं जाता। एक देव एक धर्म के नाते से सब आपस में मिलकर एक दूसरे के साथ परम प्रीति का व्यवहार करते हैं।
नोट :- आजकल हमारे धर्म-बन्धु हरिजनों की और से कुछ शिकायतें आई हैं कि कुछ आश्रमों में जात-पात का भेद समझकर समानता का व्यवहार नहीं किया जाता। मेरी उन सज्जनों से विनती है कि स्वामी के बतलाए और करके दिखलाए उपदेशों को ध्यान में रखते हुए पूर्वजों ने आचार किया है उसे अपनाएं। चाहे दुनियां को देखने में भले ही आज कोई छोटी जाति में जन्मा हो। परन्तु पर मेश्वर की अनन्य भक्ति करने वाला दुनियां के अन्य जीव-देवताओं से श्रेष्ठ है। भगवान का प्यारा है। दुनिया में दुर्लभ है। सबसे अधिक मूल्यवान है।
उन लागों की धर्म-निष्ठा की ओर ध्यान देना चाहिए। सनातन धर्म के लोगों ने "हरिजनों" को नहीं अपनाया उन्हें दूर-२ रखा जिसके फलस्वरूप डॉ० आम्बेडकर ने हिन्दु धर्म का बहिष्कार किया स्वयं बौद्ध धर्म को स्वीकारा। उनके पीछे हजारों "हरिजन" स्वखुशी से बौद्ध हो गए। अनेकों को जबरन बौद्ध होने के लिए मजबूर किया गया ।
जय कृष्णी (महानुभाव) नाम धारकों के साथ भी जबरदस्ती का व्यवहार किया गया, अतः गिने-चुने जय कृष्णी भी बौद्ध हो गए। परन्तु निष्ठावान सज्ञान तथा प्रेमी भक्तों ने अनेक प्रकार के कष्ट झेल कर भी धर्म को कायम रखा। डॉ० आम्बेडकर के धर्मान्तरित होने के समय जयकृष्णी (हरिजनों) ने बड़े हौसले के साथ जाति-बन्धुओं का रोष धारण किया, उनका बहिष्कार भी मान्य किया परन्तु धर्म को नहीं छोड़ा। यह उनका हमारे पंथ पर बड़ा भारी उपकार हैं।
आज हजारों की संख्या में विशेष करके नागपुर भाण्डारा विभाग में इनकी संख्या अधिक है। बड़े प्यार के साथ धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, नाम-स्मरण करते हैं। गृहस्थ की जिम्मेवारी समाप्त हो जाने पर अनेक व्यक्ति सर्व संग परित्याग करके संन्यास भी धारण करते हैं। अतः अच्युतगोत्र के नाते से नाम धारकों से लेकर (चाहे वह किसी भी जाति का हो) भिक्षुक तक सभी से प्रीति का बर्ताव करना चाहिए।