28-5-2022
आरती सालबर्डी की हिंदी अर्थ - महानुभाव पंथीय कविता रसग्रहण - Mahanubhav panth kavita
आरती सालबर्डी की हिंदी अर्थ
रोज वाटते मनास आधि साल बर्डी पाहु ।
देह द्रव्याचा राशी घेऊनं चाल सख्या जाऊ ॥धृ०॥
अर्थ : (कवि अपने मित्र को कहता है) हे मित्र ! शरीर सम्पत्ति लेकर साल बर्डी के तीर्थों के दर्शन के लिए जाने को प्रति दिन मन करता है आप भी साथ चलें !
जग उद्धारक, जगद् गुरु हा अवतार अधि ।
निजानन्द आनन्द स्वरुपी वोळगत नवनिधि |
मुनिवेषाचा स्विकार केला कर्मभूमिमधीं ।
जिवास ज्ञान देऊनिसनि पूरभजन साधि ।
तयाचे चरणी नाम स्मरोनि चार घडी राहूं ।
भाव मोगरा चित्त चमेली हेचि फुले वाहू ।।१।।
अर्थ: (हमारे साधन दाता सर्वज्ञ श्री चक्रधर महाराज के प्रति कवि कहता है) संसार के गुरु संसार के उद्धार के लिए अवतार धारण किया है । स्वयं के आनन्दमय स्वरूप में नौ निधियां सेवा करने के लिए तत्पर रहती हैं। उन्होंने कर्म भूमि में (अवतार मनुष्य का वेष धारण किया है। वे जीवों को ज्ञान देकर प्रेम के अधिकार की क्रिया भी करवाते हैं। उनके श्री चरणों में चार घड़ी नाम स्मरण करते हुए बैठा रहू। भक्ति रुपी मोगरा मोतिया तथा चित रूपो चमेलों के फूल चढ़ाऊं ।
भर्तृहरीचि मुक्ता बाई ती योगिन झाली ।
वन उपवन रम्य स्थल कशी धुंड़ित आली।
नाथ निरंजन लिंग देऊळी त्या गुंफे बसली ।
योग साधना घडली तिजला समाधिस्त झाली ।
दिव्य प्रकाश मूर्ति देखनि आनन्दली बहू।
कन्दमुळांची आरोगण नित वाढीत जेऊ ।।२।।
अर्थ : -भर्तृहरी राजा की मुक्ता बाई नामक भाभी ने योग (नाथ पंथ का) धारण किया था। वह वनों पर्वतों में घूमती हुई वहां (सालबर्डी) आ पहुंची और निरंजन नाथ के (महादेव के) मन्दिर में रहने लगी। योग साधन करते हुए १३ सौ वर्ष बीत चुके थे, उसको हमारे स्वामी को तेज मूर्ति के दर्शन हुए जिससे उसे अपार आनन्द हुआ वह स्वामी को प्रतिदिन कन्दमूल खिलाया करती थी।
विवर देऊळी पटीशाला तळी माडु दिसती ।
चितर सामर दुग्धा धेनु मृग रोही चरती ।
व्याघ्र स्वापदे पोर गर्जना सिंहनाद होती ।
राम दुतांची पहा उड्डाणे भु-भुक्कार करती ।
चण्डोल मोर चकित चकोर कोकील करति कुहू कुहू । शुक साळुंका पक्षी बोले, पपिहा बोले पिहू पिहू ।।३।।
गुफा के ऊपर छोटा सा मन्दिर तथा पटिशाला बनी है जहां से अर्थ के - नीचे बहती हुई माडु नदी नजर आती है। समीप ही चीतल, सामर, गऊएं, हिरण, रोही चरते हुए नजर आते है। शेर तथा चारों पर वाले पशुओं को आवाज तथा सिंह की गर्जना सुनाई देती है। बन्दर पेड़ों पर छलांग मारने हुए भु -भुकार करते हैं। चण्डोल, मोर, चकोर पक्षियों की अवाज आती है, कोयल कुहू कुहू करती है। तोता सालुकादि पक्षी बोज रहे हैं और उपोहा पीहू -पीहू की रट लगा रहे हैं।
उचाट माळी लावून टाळी नित विजनी राहे ।
आला पारधी धाऊन तेथे न धरिता सोये।
ससा रक्षिला जानुस्थली केला निर्भय ।
सुवर्ण काया करुन त्याची चिरं जिवित रहे।
प्रवृत्ति झाली विशालडोही कच्छ मच्छ पाहु ।
गरम शोतल जल कुंडा मधी जन यात्रा न्हाऊ ॥४॥
अर्थ :- हमारे स्वामी पहाड़ी के किनारे स्वस्थ विजन करने के लिए बैठा करते थे। वहां एक दिन एक खरगोश घबराया हुआ आया उसे स्वामी ने अपने घुटनों के नीचे बिठा लिया। पीछे-२ शिकारी भी दौड़ते हुए वहां पहुंच गए। स्वामी ने खरगोश का स्वर्णमय शरीर बनाकर उसे चिरंजीव करके निर्भय कर दिया। माडु नदी के बड़े डोह में स्वामी ने मछलियां तथा कछुओं को देखा जहां एक डोह में गरम तथा एक डोह में ठण्डा पानी रहता है वहां पर तीर्थ यात्री स्नान करते हैं ।
लीला लाघव वर्णन करिता जरी चुकलो स्वामी ।
शास्त्र मती चे गुढ मज न कळे भजू एक नामी |
विनवी वाकू ऋद्धपुरीचा वेली वर्धन ग्रामी |
भव रोगाच्या गळा गुंतलो म्हणून पडलो भ्रमणी |
युगान युगी भक्त तारिले द्रोपदी चा भाऊ ।
कागद शाई काही पुरेना कितीक चरित्र लिहुं ।।५।।
अर्थ :- हे स्वामी ! संक्षेप में लीलाओं का वर्णन करते हुए गलती हो सकती है क्योंकि शास्त्रों के गहन तत्त्वों का मुझे ज्ञान नहीं है, मैं तो आपका नाम स्मरण करने वाला हूं। ऋद्धिपुर नामक गांव का रहने वला (वाकू नामक कवि) प्रार्थना कर रहा हू जिसकी बीड़कर वेली (वंश परम्परा है। संसार रोग से पीड़ित हू अतः भ्रमण (जन्म-मृत्यु के चक्र) पड़ा हू | हे द्रौपदी के भाई श्रीकृष्ण चंद्र जी महाराज ! आपने युग-२ में भक्तों का उद्धार किया है। आपके अनन्त चरित्र हैं जिनको लिखने के लिए कागज तथा स्याही पर्याप्त नहीं है ।
अर्थ कर्ता :- प. पू. प. म. कै. महंत श्री मुकुंदराज बाबाजी (चंडीगढ)