28-5-2022
प्रातःकाळ की मराठी आरती हिंदी अर्थ
महानुभाव पंथीय कविता रसग्रहण - Mahanubhav panth kavita
आरती
प्रातःकाळी आठवा श्री चक्रपाणी ।
देईल प्रेम तिन्ही हे दोष नासौनि ॥धृ०॥
अर्थ:- सुबह उठ कर श्री चक्रधर महाराज का स्मरण करें जिससे वे तिन्हों दोषों को (अन्यथाज्ञान आद्यमल और जीवत्व या विकार, विकल्प और हिंसा) नष्ट करके प्रेम देंगे ।
सृष्ट रचना करविली स्वामी मज साठी ।
देऊनि ज्ञान सांगिसी निजहित गोष्टी |
विहित आचार दाविला कि बा जग जेठी।
त्यासी मी भंग पाडिला कि वा सेवटी ।
मज सम खोटा जगतीत नाहीं बा कोणी ॥१॥
प्रातः खाली........
अर्थ :- मेरे स्वामी ने मेरे लिए सृष्टि की रचना करवाई। ज्ञान देकर मेरी भलाई की बातें बतलाई। सबसे श्रेष्ठ मेरे प्रभु ने आचार का मार्ग दिखलाया आखिर मैंने उन आज्ञाओं भंग किया। मेरे जैसा बुरा इस संसार में दूसरा कोई नही है ।
सर्व अवएवी ओतीले पाप मज देही ।
जेवि पे मीना सुन्दर भासतो राही ।
रज तम ग्रसित अंतरी सदा भरलो हो ।
स्थान काली पात्र हो चुकविले नाहीं ।
कुमरत्वा च्या पात्री मी दोष कल्पुनी ॥२॥
अर्थ :- मेरे शरीर की सभी इन्द्रियां पापों से ओत प्रोतभरी है। जिस तरह मच्छली देखने में सुन्दर होती में परन्तु बदबू से भरी होती है (उसी तरह मैं पाप रूपी बदबू से भरा हूं) रजोगुण तथा तमोगुण से अन्दर बाहर भरा हुआ हूं। सात्विक स्थान पर सात्विक समय में और सात्विक पुरुषों को भी नहीं छोड़ा। परमेश्वर की पूर्ण आज्ञाओं का पालन करने वाले सत्पुरुषों के अन्दर भी दोषों की कल्पना करता रहा।
पूर्व प्रसव मागिल आला टाकीत
विश्वहननादि अर्जिल्या राशी अनंत।
अश्या किये चा अनुताप नाहीं किंचित ।
कठिन दुर्भेद्य पत्थरा परीस अनन्त ।
आता मज गति होईल कशी जगदानी ॥३॥
अर्थ :-पिछली सृष्टि का प्रसव मेरा पिछा करके यहां पहुंच गया. हनन आदि अगणित पाप कर्म कर लिए उन क्रियाओं को दुःख पूर्वक क्षमा याचना भी नहीं की पत्थर से अनन्त गुणा अधिक कठोर न टूटने वाला । हे जगदानी। अब मेरी किस तरह सद्गति होगी ?
असा मी कुटिल, अधम पतित दुर्गुणी ।
आणिली खंत श्रीपती दुज लागौनी ।
पाहसी ना मुख गेलासी मज सांडुनि ।
कुमर अविराज प्रार्थितो जोडोनि पाणी ।
अर्थ : - इस प्रकार का मैं कपटी, नीच तथा दुर्गुणों से युक्त हूं । हे मैं मायापती ! आपको खंती (नफरत) पैदा की जिससे आप मेरा मुंह न देखते हुए उत्तर की तरफ चले गए। इस प्रकार की हाथ जोड़ कर प्रार्थना कुमर (कोठी) आम्नाय के आवेराज 'कवि" कर रहे।।
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इसी विश्वास का सहारा
समझ नहीं आता, कैसे नादान बने हो तुम
जानझ बूकर भी, कंसे अनजान बने हो तुम
प्रभु ! तुम्हें पुकारा है, सदा सच्चे दिल से
ये सुनकर भी कैसे न मेहरबान बने हो तुम।
मैं तो न सुन सको, कभी मधुर आवाज तुम्हारी
तरसती रही हूं जिन्दगी भर, देखने को सूरत तुम्हारी
किन्तु सर्वदर्शी अन्तर्यामी होकर भी कैसे अर्न्तध्यान बने हो तुम ।
मैं नहीं जानती, कहां है निवास स्थल तुम्हारा
सुनती रही हू हमेशा हर जगह है बसेरा तुम्हारा
किन्तु मेरे मन-मन्दिर के सुनेपन में कैसे न विराजमान बने हो तुम ।
तुम्हारी तलाश ही में भटका, मेरा जीवन सारा
पा लूंगी तुम्हें इक दिन, है इसी विश्वास का सहारा
किन्तु कभी कभी विवलित हो जाता है,
ये जो मनः इसे सम्भालने को कैसे न सावधान बने हो तुम।
मेरी कल्पना न जो साकार हुई ।
मेरी नइया न जो पार हुई ।
उसकी कुदरत ही क्या रह जायेगी।
जिसकी छवि पर दुनियां निसार हुई।
- सीमा मेहता (दिल्ली)