25-5-2022
जो भी करना हैं वो एकाग्र हो के करें - महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता
Mahanubhavpanth dnyansarita
जीव का स्वभाव एक देशीय होने से एक समय में दो कार्य नहीं कर सकता । एक समय में एक ही कार्य करे तो उसमें सफलता प्राप्त कर सकता है। दूसरी बात यह भी जरूरी है कि - मन पूर्वक शरीर से जो भी कार्य किया जाता है उसी कर्म का फल मिलता है । शरीर से तो कार्य करता है परन्तु मन किसी दूसरी जगह की सैर कर रहा हो तो उस कार्य के करने में स्वाद भी नहीं आता । ब्रह्म विद्या शास्त्र के गहन सिद्धान्तों को समझाने के लिए स्वामी ने 114 दृष्टांत दिए हैं ।
और शास्त्र की विशद व्याख्या करते हुए हमारे महान आचार्यों ने भी अनेक दृष्टांत दिए हैं। प्रति दिन के अनुभव के होते हैं । शास्त्र में आता है “दूचीते गोडि न फवे” यानि दो जगह चित्त होने पर किए जाने वाले कार्य में आनन्द नहीं आता । जिस तरह घर में दही दूध, मक्खन होते हुए भी सास अपनी पुत्र वधू को खान-पान के लिए नहीं देती। ऐसे समय में पुत्र वधू खान-पान के लिए तरसती रहती है। किसी समय सास कहीं बाहर गई होती है उस समय वह मक्खन मिश्री निकाल कर दरवाजे में खड़ी होकर खाना शुरू करती है कि अचानक आकर देख न लें । ऐसी हालत में मक्खन मिश्री खाकर भी उसका सही स्वाद नहीं आता । उसी तरह धार्मिक विधि का अनुष्ठान करते हुए दुनियावी बातों को बीच में प्रवेश दे देने से धार्मिक विधि का आनन्द नहीं आता । न ऐसी क्रिया का परमेश्वर को ही स्वीकार होता है।
इसी तरह हिन्दी के “दादू” नामक कवि हो गए है उन्होंने भी परमार्थ सिद्धि के लिए एक सुन्दर सा दृष्टांत दिया है। एक बार वे बैठे हुए थे । सामने से एक किड़ी एक चावल का दाना लेकर जाती हुई उन्हें दिखाई दी। कुछ ही दूरी पर एक दाल का दाना किड़ी को दिखाई दिया । किड़ी ने उस दाल के दाने को भी उठाना चाहा । किड़ी दाल के दाने को भी उठाने लगी तो चावल का दाना छूट गया । बहुत देर तक “दादू" ने कड़ी का यह खेल देखा और उन्होंने एक दोहा बनाया।
चिंटी चावल ले चली बिच में मिल गई दाल ।
दादू दो दो न चले, एक ले एक डार ।।
यह दृष्टांत तो सामान्य है परन्तु इसका सिद्धान्त बहुत ही ऊँचा है। दादू कवि - दुनियां वालों को देख कर यह बतलाना चाहता था कि स्वार्थ और परमार्थ दोनों एक साथ नहीं चलते स्वार्थ करले अथवा परमार्थ करले । स्वार्थ यानि शरीर का भला और परमार्थ यानि आत्मा का भला । स्वार्थ और परमार्थ दोनो के मार्ग भिन्न-2 है । वैसे ही गृहस्थी और संन्यासी के कार्यों में भी जमीन आसमान का अन्तर होता है ।
ऊपर से देखने में दोनों के कर्म एक जैसे ही दिखाई देते हैं परन्तु उद्देश्य दोनों के अलग-2 होते हैं। स्वामी ने अपने श्री मुख से कहा है कि दुनियावी लोगों का व्यवहार सत्य और झूठ मिश्रित होता है परन्तु साधु का व्यवहार पूर्ण सत्य होता है। अधिकतर मनुष्य तो परमार्थ से दूर ही रहते है । यदा-कदा परमार्थ की ओर मुंह करते भी हैं तो वे गृहस्थ में रह कर ही परमार्थ के स्वप्न देखते हैं । ऐसे व्यक्तियों को देख कर “दादू” कहते है - परमार्थ का आनन्द प्राप्त करना है तो संसार के विषय विकार झूठ-कपट, ईर्षा-द्वेष, मद - मत्सर आदि दोषों का त्याग करना पड़ेगा। विषय विकारों का सुख भी लेते रहें और परमेश्वर का परमानन्द भी प्राप्त करलें ऐसा संभव नहीं है । जब तक इन्सान किसी भी कार्य के लिए अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित नही करता उस कार्य में उसे सफलता नहीं मिलती । विषय विकारों के सुखों का त्याग न करते हुए परमेश्वर का परमानन्द प्राप्त नहीं हो सकता।
आचार्य श्रीनागदेव जी के परम प्रिय अतिशय विद्वान शिष्य “केशिराजव्यास ” उन्होंने अपना अनुभव बतलाया है कि मैंने जिस समय परमार्थ (संन्यास आश्रम) में प्रवेश किया उस समय मेरे सामने बड़े -२ विघ्न उपस्थित हुए। उन विघ्नों से बचना बड़ा ही कठिन कार्य था । परमेश्वर नाम के स्मरण के सिवाय उनसे बचने का दूसरा कोई मार्ग नहीं था । केशिराज व्यास ब्राह्मण कुल में जन्में संस्कृत के विशेष ज्ञाता थे । तरूण अवस्था में ही उन्हें आचार्य श्री के सत्संग का योग आया । शादी हो चुकी थी । परन्तु प्रभु मिलन की उत्कट अभिलाषा उनके अंत: करण में जागृत हो चुकी थी अतः उन्होंने संसार के भोग विलासों को तिलांजली देकर संन्यास धारण कर लिया ससुराल वाले उन्हें जबरन घर लेगए। उन्हें गृहस्थ में रहने के लिए आग्रह किया परन्तु उन्होंने उनकी बात नहीं मानी । काशी से बड़े - 2 विद्वानों को बुलाकर उनसे चर्चा करने का निश्चय किया गया कि एक तो उन विद्वानों को चर्चा में हराए यदि उन्हें नहीं हरा सके तो गृहस्थाश्रम का स्वीकार करें ।
केशिराज को नजर कैद में रखा गया। एक, दो या चार दस दिन नहीं महिनों चर्चा चलती रही । इनका अपना नियम था कि सुबह उठकर विजन के लिए गंगा के किनारे जा कर एकान्त में बैठते थे। नाम स्मरण करते थे और काव्य रचना करते थें। वहां पर उन्होंने स्वामी की लीलाओं का संस्कृत में अनुवाद किया जिसका नाम "रत्न माला" स्तोत्र रखा । वैसे ही स्वामी की लीलाओं का मराठी पद्य में अनुवाद किया जिसका नाम “मूर्ति प्रकाश” रखा । इन दो महाकाव्य “ग्रन्थों” की रचना की और तीसरे स्तोत्र की रचना भी उन्होंने वहीं पर की। विजन से आने पर भिक्षा के लिए जाते थे भाजन के बाद चर्चा होती थी । एक तरफ ए अकेले थे और दूसरी तरफ अनेक विद्वान । ए अकेले ही उन सबके प्रश्नों के उचित उत्तर देते थे । परन्तु इनके अकेले के प्रश्नों के उत्तर वे सब मिल कर भी नहीं दे सकते थे । अन्य विद्वानों के प्रश्न होते थे कि - शादी के बाद संन्यास लेने की शास्त्र की आज्ञा है क्या ? या घर में रह कर परमेश्वर की भक्ति नहीं की जा सकती क्या ? उन विद्वानों के प्रश्नों के प्रमाण सहित ये उत्तर देते थे ।
इन्होंने उन्हें समझाया कि संसार यह सुख-दुःखों का ऐसा कीचड़ है जिसमें रह कर मनुष्य सुख दुःख रहित नहीं हो सकता । जिस तरह शरीर के पति को प्राप्त करने के लिए लड़की को अपने माता पिता भाई बहन घर बार सबका त्याग करना पड़ता है तब कहीं पति का सुख मिलता है। वैसे ही आत्मा के पति परमात्मा का आनन्द प्राप्त करने के लिए गृहस्थाश्रम का त्याग करना अनिवार्य है। काशी के माने हुए विद्वान केशिराज को चर्चा में हरा नहीं सके। उन्होंने काशी का रास्ता पकड़ा । परन्तु जाते-2 एक उपाय बतला गए कि - हन तो चर्चा में इन्हें हरा नहीं सके परन्तु आपकी लड़की ही इन्हें पराजीत कर सकती है। लड़की और जवाई दोनों को रात के समय एक कमरे में बन्द करना शुरू कर दें स्त्रियाँ तो बड़े-2 ऋषियों का जप भग कर सकती है वहां इसकी क्या गिनती है ।
आखिर अन्तिम उपाय ससुराल वालों की ओर से किया गया । रात को एक कमरे में लड़की और जवाई दोनों को बन्द कर दिया जाता था। चार पाई पर लड़की आती थी तो ये चार पाई से उतार कर नीचे बैठ कर नाम स्मरण करते थे । जब लड़की नीचे इनके पास आकर बैठती थी तो ए उठ कर चार पाई पर जाकर बैठ जाते थे। इसी तरह रात- बीत जाती थी। कुछ दिन इस प्रकार व्यतीत हुए परन्तु केशिराज के मन को वह जीत नहीं सकी ।
आखिर हार कर लड़की ने माता पिता से निवेदन किया कि ये पूर्ण योगी हो चुके है । इन्हे अब कष्ट न पहुंचाए इन्हें जाने की आज्ञा दे दें । इस तरह करने से मुझे पाप लगता है । लड़की के कहने पर ससुराल की कैद से केशिराज मुक्त हुए थे। ऐसा ही एक बार और भी प्रसंग इनके सामने आया था । ये अटन क्रम से जा रहे थे । एक गांव में भिक्षा के लिए गए । एक श्रीमंत की सुन्दर कन्या भिक्षा देने के लिए आई । केशिराज का तरूण तथा सुन्दर शरीर देख कर उसके मन में विषय वासना पैदा हो गई । उसने पूछा- महात्मा जी ! आप कहां ठहरे है? इन्होंने स्वभाविक ही इशारा कर दिया कि गांव से बाहर मन्दिर में का हूँ । केशिराज उसके मन के पाप को समझ नहीं पाए ।
रात के समय बारीक- 2 पानी की बूंदे गिर रही थी । केशिराज मन्दिर के अन्दर सोए हुए थे । वह साहुकार की कन्या रान के समय कम्बल ओढ़ कर मन्दिर में पहुंच गई । वह लड़की इनकी जया पर आकर बैठ गई । केशिराज खड़बड़ा कर उठे । इन्होंने उससे पूछा रात के समय अकेली यहां किस तरह आई ? उसने हंसते हुए कहा बस ! आपका प्रेम ही मुझे यहां तक खींच कर लाया है। केश ने उसके जाल से छूटने के लिए बहाना बनाया कि- जरा में बाथरूम करके आता हूँ । वह विश्वास में आ गई ।
केशिराज मन्दिर से बाहर निकले और श्री चक्रधर ! कह कर वहां से चल दिए । कुछ देर इन्तजार करके निराश होकर वह घर चली गई । केशिराज रात भर चलते रहे आचार्य जी के दर्शन के लिए । केशिराज के पहुंचने से पूर्व ही आचार्य जी ने अपने शिष्यों को बतलाया कि “माझा केशव सुक योगिन्द्र काळाते पाठि मोरा करूनि येत असे” अर्थात् मेरा केशिराज सुकदेव काल पर विजय प्राप्त करके आ रहा है । मिलने पर उन्होंने सारी घटना बतलाई ।
इस प्रकार का विषय-विकारों का त्याग परमेश्वर प्राप्ति की लगन होने पर ही संभव है। स्वामी ने अपने श्री मुख से कहा है कि जिस साधक के अन्तः करण में अन्त रहित अनन्त परमेश्वर का निवास होता है उस अन्तः करण में रजो गुण तमोगुण का नहीं और जिसके अन्त:करण में रजोगुण तमोगुण का निवास होता है उसके अन्तःकरण में अन्तः रहित अनन्त परमेश्वर का निवास नहीं होता । अब दिन प्रति दिन कलियुग के कुप्रभाव से समय बदलता जा रहा है ।
आज का प्रत्येक मनुष्य अपने आपको दूसरों से अधिक व्यस्त और चुस्त समझता है । एक ही समय में अनेक कार्य करना चाहता है । एकाग्रचित्त से कोई भी कार्य नहीं कर पाता अतः सफलता की जगह विफलता का ही सामना करना पड़ता है। परमार्थ का भी यही हाल है । पूजा करने के लिए बैठता है तो एकाग्रचित्त से पूजा नहीं कर सकता । पास में बैठे हुए व्यक्ति से इधर उधर की बातें करना चालु ही रखता है । यदि साधु महात्मा कह दें कि थोड़ी देर बोलना बन्द रखें तो आग बबूला हो जाता है। खास कर वृद्ध माताएं तो चुप रह नहीं सकती । दुनियावी बातें करती ही रहती है ।
कथा प्रवचन चल रहा हो यदि कोई रिश्तेदार या परिचित दिखाई देता है तो उठकर खड़ी हो जाएगी। गले मिलने लग जाएगी। बातें शुरू कर देगी । बहिन ठीक ठाक है ? बाल बच्चे सब ठीक ठाक है ? पता नहीं पुराने गडे पत्थर उखाड़ना शुरू कर देती है । ठीक है या नहीं यह तो उसकी शकल से ही पता चल जाता है जब यह मन्दिर कर आई है इसका मतलब ठीक है तभी तो आई हुई है। यदि ठीक न होती तो आ नहीं पाती ।
इसी तरह नाम स्मरण करने के लिए माला हाथ में घुमाती रहेगी और बातें भी चालु रखेगी । बहिन ! काका पास हो गया । लड़की का रिश्ता हो गया ? काम काज किस तरह चल रहा है ? मन्दिर या सत्संग में आकर भी सत्संग का लाभ न उठा सके तो फिर कब समय मिलेगा ? यदि कोई कार्य क्रम होता है तो देर से पहुंचने में अपना गौरव समझते हैं । और कार्य क्रम की समाप्ति से पूर्व ही वापस जाने की योजना बना लेते हैं
मेरा इन बातों को बतलाने का यही मतलब है कि परमार्थ का आनन्द प्रात्प करना हो तो समय से पहले पहुँचना चाहिए । प्रत्येक धार्मिक कार्य क्रम में भाग लें। घर से चलते समय घर के कामों को दिल से निकाल दें । मन्दिर में या सत्संग में पहुँचने पर दुनियावी किसी भी प्रकार की बातें न करें। पूजा करते समय प्रभु चरणांकित विशेष या प्रसादों को बड़े प्रेम से देख कर उनकी श्रेष्ठता को दिल में बिठाएं कि- ए सम्बन्धित वस्तुएं मेरे से कितनी अच्छी हैं। इन्होंने मेरे प्रभु की सेवा की है । मेरे प्रभु के स्पर्श से ये परम पवित्र हो चुकी है। इनको वन्दन करने से पापों के पहाड़ के पहाड़ नष्ट हो जाते हैं। आत्मा निर्मल होकर प्रभु के समीप जाने के योग्य बनती है । मैं कितना दुर्भागी हूँ मेरा जन्म होने से पहले ही मेरे प्रभु उत्तर दिशा की ओर चले गए क्योंकि मेरा मुंह देखना उन्होंने उचित नहीं समझा
प्रवचन में देरी हो तो एकान्त में बैठकर नाम स्मरण शुरू कर दें या सेवा उपस्थित हो तो नाम स्मरण भी करते जाएं और सेवा भी करना शुरू रखें । धर्म उपदेश ज्ञान चर्चा चालु हो तो चारों तरफ से मन को हटा कर कथा वार्ता में लगा दें। जितने भी धार्मिक विधि है उन सबसे अधिक महत्व का विधि है प्रभु के ज्ञान का श्रवण करना । ब्रह्मविद्या ज्ञान के श्रवण से जितना अधिक लाभ होता है दूसरे विधियों से नहीं होता । अतः ब्रह्मविद्या के एक-2 शब्द को ध्यान पूर्वक श्रवण करें। श्रवण करके मनन करें । मनन करते हुए विचार की बातें हो तो हमेशा के लिए हृदय में बिठाएं । और आचार की बातें हो तो उसके अनुसार आचरण में लाएं । विचार की बातें सुनने से साधक धर्म में दृढ होता है और आचार करने से योग्यता बढ़ती है ।
ज्ञान के बिना पूजा प्रसाद का वन्दन विधि पूर्वक नहीं हो सकता। ज्ञान के बिना नाम स्मरण भी विधि पूर्वक नहीं होता । ज्ञान के बिना तीर्थों का विधि भी विधि पूर्वक नहीं किया जाता । ज्ञान के बिना मठ मन्दिर या तीर्थ स्थानों की सेवा के लिए द्रव्य का दान विधि पूर्वक नहीं होता । ज्ञान के बिना साधु सन्तों को विधि पूर्वक भोजन नहीं खिलाया जाता या वस्त्र द्रव्यादि दान भी विधि पूर्वक नहीं किया जाता। वैसे ही ज्ञान के अभाव में प्रभु भक्तों से अथवा साधु-सन्तों से किस प्रकार मिलाप करना चाहिए या उनके साथ किस प्रकार का बर्ताव करना चाहिए ? विधि पूर्वक नहीं होता ।
विधि का आचरण करके भी उसका फल नहीं मिलता । क्योंकि ब्रह्मविद्या शास्त्र का सिद्धान्त है कि प्रत्येक धार्मिक विधि श्रद्धायुक्त प्रेम पूर्वक और = निष्काम भाव से होनी चाहिए । ज्ञान होने पर ही श्रद्धा, प्रेम और निष्कामता के अंकुर निकलते हैं । गीता में भगवान ने स्पष्ट कहा है कि- बिना श्रद्धा के किया हुआ यज्ञ सफल नहीं होता । बिना श्रद्धा के दिया हुआ दान किया हुआ तप या कोई भी धार्मिक कार्य किया जाता है उसे असत ऐसा कहा जाता है । इस प्रकार बिना श्रद्धा के किए हुए कर्मों का न तो इस लोक में कोई फल मिलता है न मृत्यु के बाद ही पर लोक में कोई फल मिलता है ।
सारांश “दादू” कवि के कहे अनुसार एक कार्य को ही जी जान से करने से उसमें सफलता प्राप्त होती है । पूजा कर रहे है तो पूजा का ही विधि करें दूसरी बातों को भूला दें । नाम स्मरण करते समय नाम स्मरण ही करें इधर उधर की बातें न करें । ज्ञान चर्चा सुन रहे हैं तो सुनने का ही कार्य करें इधर उधर मन को न जाने दें । यदि पूजा हुए या नाम स्मरण करते समय अथवा धर्म चर्चा श्रवण करते समय हम एकाग्र चित्त से विधि नहीं करेंगे तो धार्मिक विधि का भी लाभ नहीं होगा और न दुनियावी बातें ही ठीक ढंग से कर सकेंगे । अतः विधि पूर्वक विधियों का आचरण करने के लिए सर्व प्रथम ज्ञान प्राप्त करना अत्याधिक जरूरी है। ज्ञान प्राप्ति के लिए सत्संग करना पड़ेगा ।
सत्संग करने से ब्रह्मविद्या ज्ञान व प्रभु की अमोघ लीलाएं सुनने का सौभाग्य प्राप्त होगा । भगवान की लीलाएं और ब्रह्मविद्या का श्रवण करने से मोह दूर होता है । मोहदूर होने पर ही साधन दाता के श्री चरणों में अनुराग उत्पन्न होता है । सत्संग किए बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता, ज्ञान के बिना विधियों का अनुष्ठान नहीं होता । विधि पूर्वक विधियों का अनुष्ठान किए बिना मोह ममता दूर नहीं होती और मोह ममता जब तक दूर नहीं होती तब तक परमेश्वर के श्री चरणों में अनुराग भी उत्पन्न नहीं होता ।
लेखक :- कै.प. पू. प. म. महंत श्री मुकुंदराज बाबाजी (चंढीगढ)