नामधारक की प्रसादसेवा और पूजनविधी महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता Mahanubhavpanth dnyansarita

नामधारक की प्रसादसेवा और पूजनविधी महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता Mahanubhavpanth dnyansarita

27-5-2022

नामधारक की प्रसादसेवा और पूजनविधी 

महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता

Mahanubhavpanth dnyansarita 

प्रतिज्ञापूर्वक जयकृष्णी धर्म का अनुयायी बनने पर उसने सर्वप्रथम परमेश्वर के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं की उपासना को त्यागना चाहिए। इसलिए घर में बने हुए मन्दिर से देवी देवताओं की मूर्तियां तथा तसवीरों को उठाकर किसी देवी-देवताओं के मन्दीर में आदर पूर्वक रखनी चाहिए। हमारे द्वारा उन देवी-देवताओं का अपमान या तिरस्कार नहीं होना चाहिए क्योंकि जो कोई देवता मूर्ति की अवहेलना करता है उसे एक हजार वर्ष तक जड़त्व' नामक नरक भोगने पड़ते है, ऐसा जयकृष्णी धर्म का सिद्धान्त हैं।

घर में स्थित देवी-देवताओं की प्रतिमा को हटाने के बाद भगवान श्रीकृष्ण श्री दत्तात्रेय प्रभु श्री चक्रपाणी, श्री गोविन्द प्रभु और श्री चक्रधर महाराज इन पांच पर मेश्वर अवतार के चरण स्पर्श से पवित्र हुए संबंधी पाषाण को या उस पाषाण की बनी हुई मूर्ती की स्थापना करनी चाहिए। जिस वस्तु कों परमेश्वर अवतार जानबूझकर स्पर्श करते हैं उस वस्तु में परमेश्वर अवतार कि कृपाशक्ति तथा मायाशक्ति कार्यरुप होती है अर्थात् जिस वस्तु को परमेश्वर अवतार का संबंध होता हैं वह वस्तु पवित्र तो होती है साथ ही साथ उसमें कृपा तथा माया दोनों शक्तियां विद्यमान होती है। 

अन्य देवी-देवताओं को बनी हुई मूर्तियों अथवा अन्य पाषाण को सिंदूर लगाकर माने हुए प्रतिभा का पूजा जब तक होती है, तब तक उस मूर्ति में या प्रतिमा में अधिष्ठात्री देवता का अधिष्ठान सामर्थ्य कायम रहता है अगर कुछ दिन पूजा करना बन्द हुई हों अधिष्ठात्री देवता का अधिष्ठान उस प्रतिमा से मूर्ती से निकल जात है। अतः वह मूर्ति अथवा प्रतिमा सामर्थ्य हीन बनती है। परन्तु हमारे परमेश्वर अवतारों द्वारा चरणांकित पवित्र पाषाणों का ऐसा नहीं है, हजारों वर्ष पर्यन्त उनकी पूजा न करने पर भी उनकी पवित्रता तथा उनमें स्थित माया तथा कृपा ये दो शक्तियां सृष्टि के संहार तक कभी नष्ट नहीं होती यह उनकी विशेषता होने से उन्हें "विशेष" नाम से सम्बोधित किया जाता है। 

जो वस्तु परमेश्वर अवतार प्रसन्न होकर अपने भक्तों को देते हैं उसे "प्रसाद" नाम से सम्बोधित किया जाता है परमेश्वर चरणांकित पाषाणों की या मूर्ति की अर्थात् विशेषों की स्थापना करने पर रोज सुबह, दोपहर तथा शाम को उनकी पूजा अवश्य करनी चाहिए। हमने यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि उसे नमस्कार किए बिना अन्नपाणी कभी भी ग्रहण न करें पूजा नमस्कार करने की विधि इस प्रकार है।

प्रतिदिन सुबह स्नान करने पर प्रथम उन विशेषो के आगे पांच साष्टांग नमस्कार डालने चाहिए। तदनंतर अपने दोनों हाथ वस्त्रपूत अर्थात् किसी वस्त्र से छाने हुए पानी से हाथ धोकर एक अलग वस्त्र से सुकाने चाहिए। एक अलग वस्त्र सदैव मन्दिर के पास रखना चाहिए। उस वस्त्र को "परिमार्जन” कहा जाता है। एक बार उस परिमार्जन से हाथ सुकाने पर अपने शरीर के वस्त्र का स्पर्श न हो इस बात का ध्यान रखना चाहिए। 

बाद में विशेष अपने दोनों हाथों में लेकर वह जिस परमेश्वर अवतार द्वारा सम्बधित हो उस परमेश्वर अवतार की लीलांएं याद करनी चाहिए तथा "परमेश्वर अवतार के सेवा संबंध को मेरी दंडवत प्रणाम" ऐसा मुख से उच्चारण कर नम्र होकर अपना मस्तक तीन बार उस विशेष पर रखना चाहिए। जिस प्रकार विनम्र बालक अपने पिता के चरणों पर मस्तक रख कर नमस्कार करता है उसी प्रकार परमात्मा के प्रत्येक विनम्र बालकों ने अपने परमपिता के चरणांकित विशेषों पर नम्र भाव से मस्तक रख नमस्कार करना चाहिए । 

बाद में उन विशेषों को यथाशक्ति दूध, दही, केले, चीनी, तथा शहद इस प्रकार के पंचामृत से स्नान कराए। शद्ध वस्त्र से उसे साफकर उत्कृष्ट सुगंधित अत्तर लगाकर चंदन का तिलक । फूल अर्पण करने चाहिए। पंचारती बाए से दाए सात बार उतारनी चाहिए। पंचारती उतारते समय "जयतु मंगल मंगला, परम मंगलरुपा ऐसे मुख से उच्चारण करें। पंचारती के बाद भगवान की आरती बोलनी चाहिए। वह समाप्त होने पर ।

वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूर मर्दनम् । 

देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥१॥ 

सैह्याद्रि शिखरे रम्य, अनुसूयात्रिनन्दनम्। 

तं वंदे परमानन्दं दत्तात्रय जगद्गुरुम् ।।२।।

फलस्थनगरे जातं द्वारावस्यां निवासिनम् । 

नौम्यहं चक्रपाणी तं जनकद्विज नन्दनम् ।।३।।

नेमाम्बोदर संभूतं काण्वादनन्तनायात् । 

प्रभु नमामि गोविन्दं जीवाविद्या विभंजकम् ॥४॥ 

पुत्रं विशाल देवस्य नित्य मुक्ति प्रदायकम् ।

मालिनी परमानन्दं वन्दे चक्रधरं विभुम् ॥५॥ 

इस "नमनपंचक" को कहकर पांचों अवतारों का वंदन करना चाहिए और अन्त में दुःखपूर्वक अतःकरण से परमेश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए कि

हे प्रभु ! विभो ! सच्चिदानंदघन परमेश्वर ! करूणा के सागर ! आप दयालु, मयालु कृपालु हैं। आप आतंदानी, अनिमित्त बन्धु, जीवोद्धरण व्यसनी शरणांगत वज्र पंजरु हैं। आप अनाथों के नाथ, भक्तवत्सल, पतित पावन, नित्य मुक्तिदायक हैं। आप सकलगुणनिधान, सर्वसाक्षी, अच्युत, अविनाशी मंगलकारक हैं। मैं मूल सृष्टि से अनन्त जन्मों का अनाचारी हूं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि अनेक दोषों से भरा हू । अनंत सृष्टि का प्रमादिया, अधम, पामर, क्रूर, निष्ठुर हिंसक, घातकी, राजसी, तामसी, अहंकारी, अविचारी, दोषदर्शी, वर्मस्पर्शी, गुरु द्रोही, मार्ग द्रोही, विश्वास घातकी, नित्य नरकी और अपवित्रों से भी अपवित्र हू । 

किंबहुना मैं सभी दोषों का भण्डार हूं । मुझ से जानते हुए, न जानते हुए जो अनेक प्रकार के पाप हुए होंगे उन सभी को अन्तःकरण पूर्वक क्षमा करना जी। मुझ से कोई उचित क्रिया करवाकर अनिष्ट से रक्षा करना जी। अपना ज्ञान-दान, प्रेमदान, भक्ति दान तथा सेवा दास्य देकर मुझ अपवित्र को पवित्र करो जी। इस दुःखमय संसार से छुड़ाकर मुझ दास को अपने स्व आनन्द रुप में पावन कराओ जी । ऐसी प्रार्थना होने के पश्चात परमेश्वर के पांच अवतारों को कम से कम पांच तो भी साष्टांग दंडवतें डालनी चाहिएं। दंडवते डालते समय शरीर को जो कष्ट होता है उससे अनेक दोषों का नाश होता है और परमेश्वर प्रसन्न होकर कृपा करते है ।

इस प्रकार परमेश्वर के आगे प्रायश्चित करने पर किसी स्त्रोत्र का पाठ बाद में विशेषों स्नान कराए गए पानी का चरणामृत लेकर अपने करें। कार्य में लगना चाहिए यह सुबह का पूजा विधि है मध्यान्ह समय में व संध्या समय में विशेषों के स्नान विधि को छोड़कर बाकी सभी विधि कार्य सुबह जैसा ही होना हैं। इस प्रकार प्रतिदिन त्रिकाल ग्रहस्थाश्रमी परमेश्वर भक्त ने 'विशेषों की पूजा कर उसके द्वारा परमेश्वर का भजन पूजन करना चाहिए।

Thank you

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