मनुष्य के तीन प्रकार - देवगण मनुष्यगण राक्षसगण manushy ke teen prakaar - devagan manushyagan raakshasagan

मनुष्य के तीन प्रकार - देवगण मनुष्यगण राक्षसगण manushy ke teen prakaar - devagan manushyagan raakshasagan

मनुष्य के तीन प्रकार - देवगण मनुष्यगण राक्षसगण 

manushya ke teen prakaar - devagan manushyagan raakshasagan



ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मनुष्यों के तीन विभाग होते हैं ( 1 ) देवगण ( 2 ) मनुष्यगण ( 3 ) राक्षसगण। 

पूर्व जन्मों के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार मानव शरीर प्राप्त होता है। देह अभिमानी देवता पूर्व जन्म में किए हुए कर्मों के अनुसार किसी शरीर में सात्विक परमाणुओं की रचना करती है किसी शरीर में रजोगुण के परमाणु की रचना करती है किसी शरीर में तमोगुण के परमाणु की रचना करती है। 

इन राजस, तामस और सात्विक परमाणु के फल स्वरुप मनुष्य का स्वभाव बनता है और वैसी-2 ही राजस, तामस और सात्विक क्रियाएं मनुष्यों के द्वारा होती है।

सात्विक व्यक्ति के अन्तःकरण में ज्ञान का उदय होता है, विचार-विवेक से मनुष्य कार्य करता है। सात्विक व्यक्ति के द्वारा किसी को कष्ट नहीं होता। राजस व्यक्ति लोभी होता है, किसी के द्वारा प्राप्त वस्तुओं को वह वापस करना अच्छा नहीं समझता। 

तामस व्यक्ति बार-2 गलती करता रहता है विचार विवेक उसका साथ नहीं देते इसलिए वह सदा सर्वदा अज्ञान निद्रा में सोया रहता है। सतोगुणी व्यक्ति सन्तोषी होने से सुखी रहता है तथा रजोगुणी व्यक्ति भोग विलासों की तृष्णा में फंसा होने से दुखी रहता है और तमोगुणी अज्ञानता के कारण स्वयं दुःखी रहता है और दूसरों को भी दुःखी करता है। 

देवताएँ सज्ञान होती है भूत भविष्य को जानती है वैसे ही देवगण वाला व्यक्ति कर्मों की फल श्रुति को समझता है अत: जिन कर्मों का नतीजा गलत निकलने वाला हो उन कर्मों को नहीं करता अतः दुःख दैन्य, पाप- संताप और अपयश से बचा रहता है। मनुष्यगण वाला व्यक्ति दूसरों को गिरते हुए, दुःख भोगते हुए देख कर सावधान हो जाता है या किसी के समझाने पर समझ जाता है अतः गलत रास्ता छोड़ देने से सुखी रहता है। 

राक्षसगण वाले व्यक्ति मूर्ख होने स्वयं तो वे अज्ञान होते है दूसरों के द्वारा समझाने पर भी नहीं समझते अतः वे स्वयं तो दुःखी रहते ही है उनके सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति भी दुःखी रहता है।

अतः नीति शास्त्र और धर्म ग्रन्थ बतलाते हैं कि किसी भी कार्य के आरम्भ अन्त और मध्य की, फल श्रुति को समझ कर कदम रखना चाहिए। जैसे कि एक कार्य आरम्भ में तो अच्छा दिखता है परन्तु मध्य में कठिनाई आ जाती है, दुःख प्राप्त होते है या एक कार्य आरम्भ में सुखदायी होता है तथा मध्य में भी कष्ट नहीं होते परन्तु अन्त में दुःखदायी होता है। 

नीति ग्रन्थ में दूसरा प्रकार भी बतलाया है कि- जिसको आरोग्य प्रिय हो उसको चाहिए कि जो वस्तु अच्छी न लगे न खाएँ। जो वस्तु खाने में तो अच्छी लगे परन्तु हजम न हो फिर भी न खाएँ। जो वस्तु खाने में स्वादी लगती है, हजम भी हो जाती है परन्तु कुछ समय बाद उसका दुष्परिणाम होता हो वह वस्तु भी न खाएँ।

सारांश:- प्रयत्न करने पर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। दैवयोग से यदि हमें सात्विक प्रकृति प्राप्त हुई है तो अच्छी बात है यदि राजस तामस प्रकृति प्राप्त हुई हो फिर भी चिन्ता न करें प्रयत्न और पुरुषार्थ के द्वारा प्रकृति में बदल किया जा सकता है। 

राजस तामस प्रकृति वाले मनुष्यगण के या राक्षसगण प्रकृति के व्यक्ति परमेश्वर भक्ति के लिए अपात्र होते हैं, अयोग्य होते हैं। ऐसे व्यक्ति यदि शास्त्र का सहारा लेकर अपने आप में बदल करना चाहे तो कठिन जरुर है परन्तु असंभव नहीं है। 

जिस तरह सोने चाँदी में मिलावट होती है उसको स्वर्णकार शुद्ध कर लेता है। वैसे ही सच्चे स्वर्णकार तो सद्गुरु ही होते हैं वे शिष्य की खोट को दूर करके शुद्ध "साधक" बना देते हैं। अत: श्रद्धा पूर्वक सद्गुरु के पास जाने वाला शिष्य ही शुद्ध साधक बन सकता है। अतः किसी कवि ने कहा है:


चलो सद्गुरां दे पास ज्ञान बुद्ध ले आईये ।

होईये बहुत अधिन परम सुख पाईये । 

अर्थात् अधिनता धारण करने वाले शिष्य को सद्बुद्धि आती है, ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्ति के बाद ही परमानन्द की प्राप्ति होती है।


Thank you

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