श्रीमद्भगवद्गीता की १६ ऐसी बाते जो आपकी जिंदगी बदल देगी - 16 things from Shrimad Bhagavad Gita that will change your life

श्रीमद्भगवद्गीता की १६ ऐसी बाते जो आपकी जिंदगी बदल देगी - 16 things from Shrimad Bhagavad Gita that will change your life

श्रीमद्भगवद्गीता की १६ ऐसी बाते जो आपकी जिंदगी बदल देगी - 

16 things from Shrimad Bhagavad Gita that will change your life

किसी वरदान से कम नहीं है गीता श्रीमद्भगवद्गीता की 16 बाते 

1) गीता मे बताई गयी समस्या कोई ऐसी समस्या नहीं है, जो किसी के जीवन में पहली बार सामने आकर खड़ी हो गई हो। वह हमारी रोज की ही समस्या है। रोज ही एक युद्ध है, रोज हमारे विरुद्ध एक सेना है,  एक द्वन्द्व है, उत्थान है,  पतन है। गीता यदि अब भी हमारे लिये कोई संजीवनी लेकर उपस्थित होती है, तो उसकी एक ही वजह है, कि हम अभी तक के सबसे बड़े अन्तर्द्वन्द्व में हैं,  और सुखी-सम्पन्न होने की चमकदार प्रदर्शनी लगाने के बाद भी हम भीतर से टूटे हुए, गले हुए और गहरी हताशा में हैं।

2) गीता सिर्फ मृत्यु के प्रसंग पर दोहराई जाने वाली धार्मिक क्रिया का हिस्सा नहीं है। वह जीवन से भरपूर है। उसमें पद-पद पर संकेतक लगे हुए हैं, जो भगवान् द्वारा निर्दिष्ट है। भगवान् को आप मानते हैं या नहीं, यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है । महत्व इसमें है कि जीवन-संग्राम के लिये आपने चेतना के धरातल पर कौन-कौन से अस्त्र-शस्त्र और कौन-कौन से शास्त्र मौके के लिये तैयार रखे हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि हम अपना रूपान्तर चाहते हैं। सब कुछ बदल डालने की इच्छा से कितने ही महापुरुष आये और चले गये। सफलताएँ भी मिलीं । 

कुछ कदम आगे जाते हुए चरितार्थता के अध्याय भी लिखे गये,  किन्तु कोई भी बदलाव आखिरी नहीं होता, कोई भी समाधान सम्पूर्ण नहीं होता,  इसीलिये बार-बार अवतार होते हैं,  बार-बार समय के सत्य को दंश झेलने पड़ते हैं,  क्रान्ति के स्वप्न तराशे ही जाते हैं, और उन सपनों को कुचलने वाली सत्ताएँ जीत हासिल करती हुई युग को पीछे धकेल आती है।गीता हमें एक सुरक्षित संकल्प देती है । वह संकल्प हमें पुरानी मान्यताओं,  जड़ हो चुकी प्रथाओं,  अंधविश्वासों और इतिहास के निर्णयों से मुक्त कर ऐसे वृहत्तर संसार में ले जाती है,  जहाँ सुंदर भविष्य हमारी प्रतीक्षा कर रहा है, जहाँ विश्वास की अग्नि प्रज्वलित है,  जहाँ अगणित सम्भावनाएँ हमारे सामने खुलने के लिये खड़ी हुई मिलती हैं। हम जिस युग में जी रहे हैं,  वह बुद्धि की साधना का युग है। बुद्धि के बल पर आदमी दुनिया को मुट्ठी में कर लेना चाहता है ।


3) बौद्धिक तर्क - कुतर्क से श्रद्धा आहत होती है,  अंतरात्मा में अंधकार उपजता है,  और चैत्य की अग्नि के ऊपर पड़ा हुआ मोटा आवरण हमें अपने से दूर कर देता है। हम तेजी से भूलने लगते हैं कि मनुष्य उतना ही सत्य है,  जितना भगवान् सत्य है।फलस्वरूप सच्ची शक्तियाँ अभिव्यक्त नहीं हो पातीं,  जीवन निढाल होने लगता है,  कर्म की गति उच्छृंखल होने लगती है,और हम भगवान् की प्रणाली में तोड़-फोड़ कर अव्यवस्था को जन्म देते हैं ।


4) श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय धर्म और दर्शनशास्त्र के साथ उस अध्यात्म-विद्या का भी स्थापित ग्रंथ है,  जिसने मनुष्य जाति को आत्मा की अमरता का संदेश दे कर कर्मशील जीवन की आधारशिला रखी। यहाँ जो बात सबसे अधिक ध्यान देने की है,  वह है -भगवान् का उस युवक के साथ सीधा संवाद,  जो निराश है,  कर्म से छुटकारा चाहता है,  जीवन से थका हुआ है और आत्म-संताप से घिरा हुआ उदासीनता के किनारे निढाल बैठा हुआ है। यहाँ संकेत यह भी है कि आप चाहे जितने भी नीचे आ जाएँ,  भगवान् आपकी उंगली छोड़ते नहीं। वे अंत तक चाहते हैं कि मनुष्य उनका सहारा ले कर ऊपर तक उठ जाए । 

भगवान् को मनुष्य पर बड़ा भारी भरोसा है,  और उनके ध्यान में वह युवक पल प्रतिपल है,  जिसके पास जीवन से जुड़े हुए प्रश्न हैं,  जो समाधान के लिये प्रणिपात की संपूर्ण तैयारी के साथ सामने खड़ा है,  भले ही वह अंदर से टूट चुका हो,  किन्तु जिसकी चेतना धुली हुई और जिसका मन अंधेरे में से बाहर निकल आने के लिये छटपटा रहा हो। भगवान् उस युवक को अवसाद के गर्त में से बाहर लाने के लिये तो संकल्पबद्ध हैं ही,  वे उसके भविष्य में उतर कर जीवन का वह गीत गाना चाहते हैं जो पथ प्रशस्त कर दे,  तूफानों की दिशा मोड़ दे,  और भीषण झंझावातों में भी भक्ति के दीये की बाती को अचल निष्ठा के साथ प्रज्वलित रहने की क्षमता से भर दे।

5) श्रीकृष्ण कहते हैं,  कि कठिन से कठिन स्थिति में भी यह जीवन शोक मनाने के लिये नहीं। हमारी आत्मा इसके लिये न तो अनुमति देती है, न शोक में कभी सम्मिलित होती है। श्रीकृष्ण इसीलिये आत्मा की अमरता का जिक्र जोरदार तरीके से करते हैं। हमारी सत्ता का यह अंश अमृत है,  और हमारे व्यक्तित्व की सम्पूर्ण पहचान है। यही वह तत्व है जिसकी व्याख्या श्रुति करती है,  उपनिषद् करते हैं,  पुराण करते हैं और दर्शनशास्त्र की पूरी परम्परा इसीके श्रवण-मनन व निदिध्यासन का संकेत करती है। आत्मा के दरबार में खड़े होने का साहस हममें नहीं होता, इसलिये हम मानसिक और शारीरिक उपद्रवों के शिकार बनते हैं।

6) गीता में दिखाये गये कार्पण्यदोष,  संमूढचेतना, भय,  क्रोध और उद्विग्नता की उत्पत्ति का मूल ही इस बात में है कि हम आत्मा से मुँह फेर कर बैठे हुए हैं, और समृद्ध लोक-जीवन का अहंकार पालकर निश्चिन्त हैं।

7) अर्जुन युवा-चेतना का आदर्श प्रतिनिधि है। उसके पास योग है,  योग से उपजी स्थिरबुद्धि है,  स्थिरबुद्धि के वे परिणाम हैं जो जीवन को प्रबंधित करते हैं,  और वह जीवन-कौशल है जो आन्तरिक अनुशासन के साथ आचरण की पवित्रता के लिये आग्रह करता है। भगवान् के सामने खड़े होने का जो साहस अर्जुन के पास है,वही साहस युवकों की मांग होनी चाहिए। यह साहस हो,  तो युवा अपनी आत्मा के सामने खड़ा होकर कठिन से कठिन समस्या को सुलझा ले। यह सरल नहीं है। अर्जुन होने के लिये केवल धनुर्धर होना ही पर्याप्त नहीं,  हृदय का सर्वोच्च शक्ति के प्रति पूरी तरह से खुला होना अपरिहार्य है । हृदय का यह खुला होना समर्पण का भाव लाता है। अर्जुन की यही सबसे बड़ी योग्यता थी,  जिसके कारण भगवान् को आगे हो कर अपना विराट स्वरूप भी दिखाना पड़ा,  और जीवन के वे रहस्य भी बताना पड़े,  जिनकी मीमांसा करते-करते हमारी सदियाँ बीत गईं।

8) गीता हमें सीधे श्रीकृष्ण से जोड़ती है। एक वही है,  जो हमें श्रीकृष्ण के रूप में सर्वोच्च सत्ता के सामने ले जाती है।ऐसी सत्ता जो हमसे समर्पण की मांग करती है, श्रद्धावान् होने की पात्रता की परीक्षा लेती है, चिरंतन आग में तपाती है,  और ऐसे कर्मशास्त्र के पन्ने खोलती है,  जिसकी जड़ें ज्ञान से इस तरह सींची गई हैं कि कर्म हमें जीने की स्वतंत्रता देता है। वह हमें जकड़ता नहीं,  मुक्त कर मूल्यवान् बनाता है। पराजित होने की आशंकाओं से बाहर खींच कर विजय व उल्लास के ऐसे वलय में प्रवेश कराता है जहाँ भगवान् के दिव्य प्रकाश में हमारी छबि ज्यादा भव्य, दिव्य और सुंदर से सुंदर हो जाती है।

9) श्रीकृष्ण हमें यज्ञ की भावना के साथ लक्ष्य की ओर चलते चले जाने के लिये उत्प्रेरित करते हैं। वे एक ऐसे यज्ञ की संरचना सामने रखते हैं, जो कर्मकांड की विद्रूपताओं से मुक्त होने के कारण उन सभी आडम्बरों से भी मुक्त है,  जिसने हमें भाग्यवादी और अकर्मण्य बना कर छोड़ दिया था। भगवान् श्रीकृष्ण आधुनिक विज्ञान से सुसंगत होकर वे सांसारिक सूत्र भी बताते हैं,  जो व्यक्तिगत समाधान की अपेक्षा सब के उत्कर्ष के लिये उपादेय है।अनासक्त रह कर कर्म करता हुआ मनुष्य स्वयं तो परमपद पा ही लेता है, वह सम्पूर्ण समाज को ऊपर उठा ले जाने में कारक बनता है। सत्व,  रज,  तम इन गुणों वाली हमारी प्रकृति ही तो कर्मवेत्ता है,  और कर्ता भी। तब यह समझ ही हमारे भीतर अनासक्ति का भाव ले आती है ।

10) श्रीमद्भगवद्गीता मे दर्शनशास्त्र की शुष्कता नहीं है। वह गीता है,  भगवान् के द्वारा एक आत्मावान्,  प्राणवान्,  सहृदय और समर्पित युवा के लिये गायी गई गीता। उसमें मधुर संगीत है,  जीवन की लय है,  सुंदर भविष्य का सुंदर आश्वासन है,  वह भागवत सुगंध है जो चेतना के रंध्रों में प्रवेश कर हमें दिव्य- जीवन की वीथी का संकेत देती है। गीता में ही वह सनातन गीत है,  जो भगवान् ने गाया और मनुष्य ने सावधान होकर उसे लिपिबद्ध कर लिया। धर्मक्षेत्र में जहाँ अर्जुन भगवान् के आगे दोनों हाथ फैला कर सुपात्र ग्राहक की तरह है,  वहीं बूढा धृतराष्ट्र सब कुछ देख कर भी नहीं देख पाता,  सुन कर भी नहीं सुन पाता और अंततः स्वयं को अपात्र ही घोषित करता है।

11) गीता यह भी कहती है कि भगवान् के साहचर्य के लिये सबसे उपयुक्त समय तरुणावस्था ही है। बहुतसे भक्तो ने सिद्ध किया है कि भागवत चेतना को ग्रहण करने का सही समय यौवन ही है। गीता संसार को भोगने से नहीं रोकती। वह निवृत्ति की ओर नहीं ले जाती,  वैराग्य की विवर्णता में खो जाने का आग्रह नहीं करती,  अपितु उत्साह और उमंग की तरंगों पर नृत्य करती जीवन की रस-माधुरियों के आनंद-उत्सव में आमंत्रित करती है। इसलिये गीता से दूर भागने की अपेक्षा युवाओं को गीता के पास जाने का विचार करना चाहिए।

12) श्रीकृष्ण ब्रह्मविद्या की प्राचीनतम परम्परा के संवाहक हैं। वे अपने साथ वह संजीवनी ले कर आते हैं, जो शिथिल होती धर्म की संस्थाओं को पुनर्जीवन देने के लिये औषधि का काम करती है। यह औषधि ही वह यज्ञ है,  जो अहम् को मिटा कर त्वम् को सबसे ऊँचा आसन देकर अंततः 'सः' को महिमा प्रदान करती है । द्रव्ययज्ञ,  तपोयज्ञ और ज्ञानयज्ञ सहित सब तरह की योगसिद्धियों का अंतिम उद्देश्य यज्ञ को उसके पूर्णत्व में जी लेना ही है। इसीलिये श्रीकृष्ण ज्ञान,  भक्ति और कर्म में कोई भेद नहीं देखते । जो कर्म है,  वही ज्ञान है और जो ज्ञान है वही भक्ति है। यह जान लेने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता । यह त्रिवेणी ही यज्ञ का फल है, और यही गीता की चरितार्थता है।

13) श्रीकृष्ण हमें कभी भी निवृत्ति की ओर नहीं ले जाते। वे प्रवृत्ति का मार्ग दिखाते हैं। गीता का संन्यास-योग भी वैराग्य के लिये नहीं,  जीवन को अर्थवान् बनाने के लिये है। जीवन की पूजा ही संन्यासियों की अंतरिम साधना है। गीता के संन्यास में कोई द्वैतबुद्धि नहीं है। श्रीकृष्ण कभी भी दो बातें नहीं करते,  लेकिन इन्द्रिय -मन-बुद्धि को वश में करने का उद्योग सिखा कर मुक्ति की सभी सम्भावनाओं को खोल कर रख देते हैं।फिर आत्मोद्धार के सभी सूत्र एक-एक कर हाथ में आने लगते हैं,  ध्यान का अनुभूतिजन्य प्रारूप सामने आता है,  मन की चंचलता के निग्रह की विधि साफ-साफ दिखाई देने लगती है, काम और राग से रहित बलवत्ता के भागवत प्रसाद को पा कर मनुष्य शिष्यभाव से गुरुता के शिखर को छूने लगते है।

14) भगवान् हम सबको बराबर देख रहे हैं । उनकी दृष्टि से कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। प्रत्येक प्राणी का अतीत, उसका वर्तमान और भविष्य उनके सामने खुला हुआ है। वे अनवरत सन्मार्ग पर ही प्रेरित करते हैं,  तब भी जब हम उतावले हो कर विपरीत दिशा में गमन करने लगते हैं। वे तो यहाँ तक आश्वस्त करते हैं कि अंतिम समय में उन्हें स्मरण करते हुए जो देह त्याग करता है,  वह भी भगवान् के स्वरूप को पा लेता है। इससे बड़ा आश्वासन क्या हो सकता है? मानव शरीर में रहते हुए शानदार जीवन जीने के लिये श्रीकृष्ण गीता में गुह्य राजविद्या का भी उपदेश देते हैं। वे अपना वह विश्वरूप खोल कर दिखाते हैं, जो सर्वत्र व्याप्त है।

15) भगवान् श्रीकृष्ण एक महान् आचार्य की तरह गीता में उपस्थित हैं। जिज्ञासु अर्जुन के भीतर श्रीकृष्ण को अपना सच्चा शिष्य दिखाई देता है। गीता वैश्व आचार्य का वैश्व शिष्य के साथ किया गया वह शाश्वत संवाद है,जो देश और काल की सीमाओं को लांघ कर अब भी चल रहा है। यह संवाद कभी भी जीर्ण नहीं होगा। यह भगवान् के श्रीमुख से गाया गया वह गीत है, जिसकी बुनावट योग्य श्रोता के हृदय में उतर कर हुई है।भगवान् श्रीकृष्ण प्राणियों के संसार का सम्मान करते हुए ही उस अध्यात्म के ऊपर से यवनिका हटाते हैं,  जो हमारा घर है, जहाँ से हम चले थे,  और जहाँ लौट कर हमें आना है।वह सनातन है,  अमृतमय है,  आनंदमय है ।

16) श्रीमद्भगवद्गीता सोये हुए युवाओं को जगाने के लिये ही है। वह क्लैब्य,  कार्पण्यदोष और हताशा को मिटा कर जीवन को गति देने के लिये ही है। वह उस संग्राम को जीत लेने के लिये है,  जिसमें अभी इस समय आप लाकर खड़े कर दिये गये हैं। आप ही अर्जुन हैं,  और आपके भीतर विराजमान आत्मा ही भगवान् कृष्ण हैं। कहीं भी मत जाइए। भगवान् के सम्मुख शरणागत हो जाइए। उनके साथ रहिए,  उनके साथ चलिए।वे आपके ही लिये हैं। आप उनके यंत्र बन जाइए, जैसे अर्जुन बन गया था। आप उनसे उसी तरह एक के बाद एक सवाल पूछिए,  जैसे अर्जुन ने पूछे थे। वे सारे सवाल जीवन से जुड़े हुए थे,  उनके जवाब सभी संदेहों को समाप्त कर सत्-चित-आनंद का आलोक बिखेरने वाले थे। आपके भी संदेह दूर होंगे और स्वर्ण-रश्मियाँ उतर आयेंगी। युवाओं को एक ही बात स्मरण रखनी चाहिए,  कि आत्मा ही योगेश्वर है और आप ही धनुर्धर अर्जुन । जहाँ ये दोनों साथ-साथ हैं,  वहीं श्री है, विजय है,  शाश्वत सौन्दर्य है। श्रीमद्भगवद्गीता के सबसे अंत में यही बात अंतिम निष्कर्ष के रूप में कही गई है-

"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।"

 

Thank you

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post