मधुर वाणी के चार लक्षण - madhur vani ke 4 lakshan

मधुर वाणी के चार लक्षण - madhur vani ke 4 lakshan

मधुर वाणी के चार लक्षण - madhur vani ke 4 lakshan

गीता में वाणी संबंधी तप का विज्ञान (विशेष ज्ञान) भगवान श्री कृष्ण ने इसीलिये बतलाया है कि- संसार में वाणी के दुरुपयोग, अनुचित प्रयोग, असंतुलित प्रयोग के कारण व्यर्थ का विवाद, विग्रह, विरोध, वैर का जन्म होता है, होता रहता है। जीवन और जगत् में एक लक्ष्य होना चाहिये, शान्ति की स्थापना। जन-जन के मन क्षेत्र में शान्ति और सद्भावना का उदय तथा विकास होता रहे और इनमें सबसे अधिक व्यवहारिक रुप से देखा जाता है कि-वाणी का असंगत प्रयोग ही इसमें बाधक हैं और वाणी संबंधी तप का विज्ञान जो गीता में भगवान श्री कृष्ण बतलाया है, उस आज्ञा के पालन से जन-2 में शान्ति का उदय और विकास संभव है अन्यथा नहीं।

वाणी संबंधी तप का जो विशेष ज्ञान (विज्ञान) गीता में निर्धारित किया गया है, उसके प्रयोग और व्यवहार के लिये। किसी दूसरे की प्रतिक्षा नहीं करनी चाहिये। समाज अथवा जन समुदाय से भी यह प्रतिक्षा नहीं की जानी चाहिये कि वहां से इसके व्यवहार की शुरुआत हो । व्यक्ति को स्वयं अपनी ओर से ही वाणी संबंधी तप को अपने जीवन में अपनाना चाहिये । इससे यह होगा कि - अपने व्यक्तिगत स्तर से वाणी संबंधी तप के व्यवहार प्रारंभ कर देने से परिवार के सदस्यों पर इसका प्रभाव पड़ेगा और अपने परिवार में लोग इसका अनुसरण और अनुकरण करेंगे। इससे समूचे परिवार में शान्ति का उदय और विकास प्रारंभ हो जायेगा । अन्ततः शान्ति का साम्राज्य छा जायेगा। इस पारिवारिक पृष्ठ भूमि का प्रभाव आसपास और अडोस-पड़ोस में पड़ना प्रारंभ हो जायेगा। वाणी संबंधी तप के विज्ञान में निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया गया है:

(1) अनुद्वेग: - उद्वेग पैदा करने वाला वचन वाणी के द्वारा नहीं प्रकट होने पाये, व्यंगात्मक, अनावश्यक हंसी-मजाक, दोषारोपण, छींटाकशी वाले वाक्य दूसरों में उद्वेग पैदा करते हैं। इस उद्वेग के कारण आरोपित व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। तब आरोपित व्यक्ति, आरोप लगाने वाले के प्रति भी अनाप-शनाप बकना प्रारंभ करता है। दोनों ओर से उद्वेग पैदा करने वाले वाक्यों का व्यवहार होने लगता है, जिससे वातावरण दोनों ओर का ही नहीं, आस- पास का भी अशांत हो जाता है। इसलिये कैसी होनी चाहिये सुनने वाले को उद्वेग प्राप्त न हो। 

( 2 ) प्रिय: - प्रिय वचन को बोलना भी वाणी संबंधी तप के अन्तर्गत आता है। अप्रिय वाणी इस तप को भंग करने वाला है। हर कोई प्रिय वचन ही सुनना चाहता है। हम स्वयं भी वचन सुनना पसंद करते हैं। जो वाणी मन, हृदय तथा अन्त:करण पर आघात करे, चोट उत्पन्न करे, वैसा बोल नहीं बोलना चाहिये।

(3) हितकारक: - हितकारक प्रिय वाणी का व्यवहार होना ही चाहिये। लेकिन वह प्रिय वाणी भी हितकारक होनी चाचाहिय संसार भ्रमजाल है । प्रायः लोग भ्रम की मानसिकता में रहा करते हैं। ऐसा प्रिय वचन सुनना चाहते हैं, जो उन्हें पसंद होता है परन्तु वह वाणी या बात सुनने में तो प्रिय होती है, लेकिन हितकारक नहीं। उस वाणी या बात के अनुसार आचरण करने में अहित होता है। परन्तु भविष्य में अहित होने वाला है, ऐसी समझ भ्रम वश नहीं होती है। इसलिये प्रिय बोलने वाले को चाहिये कि वह प्रिय और हितकारक दोनों ही का सामंजस्य बना कर ही बोले ।

( 4 ) यथार्थ : - यथार्थ भाषा, शब्द, वाणी आदि का ही प्रयोग हो । प्रिय है, हितकारक है, यथार्थ है, उसी को ही बोलना चाहिये। कहा गया है कि, सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं । इसीलिये प्रिय, हितकारक और यथार्थ के भावों और विचारों का समन्वय करके ही बोलना चाहिये।

"आत्मदोष" ही सबसे बड़ा बाधक है, वाणी संबंधी तप के सम्यक् और सम्पादन में। आत्मदोष के अर्न्तगत् सबसे बड़ा दोष जो अपने मन, हृदय तथा अन्तःकरण में ग्रसित किये हुए रहता है, वह है अहंकार। अहंकार से जीव, प्राणी, व्यक्ति मुक्त नहीं हो पाता है। हर व्यक्ति अपने को श्रेष्ठ, सबसे ऊपर या सबसे बड़ा मानता है, मानता रहता है । इसका दुष्परिणाम यह होता है कि- सत्य को समझ नहीं पाता है। तथ्य अनभिज्ञ रह जाता है। अपने आपको बड़ा, सबसे बड़ा मान कर या मानते हुए किसी अप्रिय प्रसंग के लिये दूसरे को दोषी मानता है।

एक-दूसरे पर दोषारोपण करता रहता है। परस्पर दोषारोपण के कारण जन समुदाय का वातावरण विकृत और दुषित बनता चला जाता है। तुलसीदास ने कहा है: - आठव यथा लाभ संतोषा,  सपनेहु नहिं देखई परदोषा ।। 

तथा कबीरदास ने भी कहा

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय । 

जो दिल देख्यो आपना, मुझसे बुरा न कोई ॥

अर्थात् सपने में भी किसी दूसरे का दोष नहीं देखना है और कबीरदास का कहना है कि-यदि अपने अन्तःकरण और मन की तरफ देखें तो साफ पता चल जाता है कि - मुझसे बुरा कोई नहीं है। हर हालत में आत्मदोष निवारण, अपने दोषों का निराकरण में ध्यान श्रेयस्कर है। इस प्रकार उपर्युक्त निर्देशों को ध्यान में रख कर चलने पर वाणी संबंधी तप का पालन सुगम और सरल हो जाता है। इन दोनों का निर्देष वाणी संबंधी तप के पालन में सार्थक और सहायक है।

आगे वाणी संबंधी तप में धर्मग्रन्थ, स्तोत्र आदि शास्त्र, के पाठों को समाविष्ट किया गया है। परमेश्वर के नामों का कीर्तन - भजन या जप होता रहता है, इन सबको वाणी संबंधी तप का विज्ञान कहा जाता है और वाणी संबंधी तप के विज्ञान को अपने जीवन और जगत् में अपनाने, व्यवहार करने से मंगल और कल्याण होता है, होता रहता है। 

Thank you

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