कुन्ती माता ने पांडवो को कर्ण से कैसे बचाया? kuntee maata ne paandavo ko karn se kaise bachaya? Mahabharat

कुन्ती माता ने पांडवो को कर्ण से कैसे बचाया? kuntee maata ne paandavo ko karn se kaise bachaya? Mahabharat

 महाभारत - mahabharat 

कुन्ती माता ने पांडवो को कर्ण से कैसे बचाया? kuntee maata ne pandavo ko karn se kaise bachaya? Mahabharat

द्रोण की मृत्यु के उपरान्त अश्वत्थामा को अपना होश आया। आश्चर्य चकित होकर कुछ देर चुर चाप पड़ा रहा। फिर उठकर महादेव का ध्यान किया, अतः महादेव जो तत्काल प्रकट हो गए। द्रोणी ने कहा हे आशुतोष ! मुझे भीम ने फेंक दिया अब पता नहीं मेरे पीछे उसने क्या जाल रचाया है। इसलिए जितना भी हो सके जल्दी से जल्दी मुझे सेना में पहुंचा दें। में बिना किसी वाहन के सेना में पहुंच जाऊं इतनी दया करें। महादेव ने तुरन्त हो अश्वत्थामा को सेना में पहुंचा दिया। 

अश्वत्थामा से लिपट कर दुर्योधन रोने लगा। भय्या ! भय्या ! आपके कुछ ही समय यहां नहीं होने से सर्वनाश हो गया। धर्मराज के कहने से आचार्य ने शरीर त्याग कर दिया। भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी ने तुम्हारे मरने का शोर सारे दल में मचा दिया और युधिष्ठिर ने गुरु को विश्वास दिलाया। जिसने गुरुवर ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया । इन दोनों से मुंह मोड़ लिया। जिससे सेना का बाजू टूट गया। सबसे बड़ा पाप तो धृष्टद्युम्न ने किया है। योगस्थ बैठे हुए गुरूपर वार करके मरे हुए को मारा है।

यह सुन कर अश्वत्थामा क्रोधीत होकर बोलने लगा कि इन लोगों को चाल में समझ गया। मैं तो अब तक यहीं समझता रहा कि धर्मराज वास्तव में धर्म के ही अवतार है । परन्तु अब पता चल गया कि वह झूठा है । उस धृष्टद्युम्न का युद्ध में समाप्त नहीं कर सकु तो पिता को शपथ है, मैं देह त्याग दूंगा। जब तक धृष्टद्युम्न मेरे हाथों से मारा नहीं जाता में पिता का तर्पण नहीं करूंगा। राजन् ! अब कर्ण वीर को सेनापति बना कर सेना का भार उस पर सौंप दें। इस उलझन की नाव को वही किनारे लगाएगा। अश्वत्थामा की सलाह का सभी ने स्वागत किया। तीन दिन के लिए कर्ण को सेनापती पद प्राप्त हुआ।। सेनापती का ताज पहना और कहा वीरावर ! कौरव दल की लाज बचाओ। 

कर्ण ने कहा महाराज ! आपका ताज सलामत रहे । दोनों की लाज इसी में है जब कि अपने प्रण की लाज रहे। इस मान और पद के अन्दर ही मनुष्य की श्वासों का तार है । जन्म भूमि काल का मुंह है और मौत से मित्रता है। जितना भी होगा, जिस प्रकार होगा इस सेवा का भार उठाऊंगा। अपना सर्वस्व देकर भी कुरू दल की आन निभाऊंगा। परन्तु मेरे सामने एक समस्या है। भगवान श्री कृष्ण के समान चतुर रथवान मेरे पास नहीं ।

यदि सुयोग्य रथवान मुझे भी मिल जाये तो कल अर्जुन भूमि पर लेटा हुआ दिखाई दे । शकुनी ने कहा यह कार्य वीर शल्य से ले सकते हैं। यदि वे यत्न करें तो क्षणभर में ही श्री कृष्ण चन्द्र जी को मात दे सकते हैं। क्रोधित होकर शल्य ने कहा बोल क्या रहे हो ? क्या मुझे नौकर बनाना चाहते हो ? राजा होकर नौकर की नौकरी करें और भिखारी का रथ राजा चलाए । चापलुस दुर्योधन कहने लगा मामा जी ! हमारी तरफ केवल आप ही गुणों के सागर है। सत्य तो यह है कि भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी के बराबर एक आप ही है। 

श्री कृष्ण चन्द्र जी के समान हम आपको पतवार मानते हैं। अब इस नाव को पार करो या डूबा दो यह आपकी मर्जी है। दुर्योधन की प्रार्थना से शल्य का क्रोध शांत हो गया। और दुर्योधन के प्रस्ताव को मान लिया। शल्य ने सोचा कि कर्ण के मारने का उपाय धर्मराज ने बतलाया था उसको पूरा करने का भगवान ने योग लगाया है। इसलिए सहर्ष शल्य ने सारथी पद का स्वीकार कर लिया।

इस तरफ धर्मराज ने भगवान से कहा प्रभो ! गुरु का वध करवा कर विजय दिलवाई है लेकिन मेरी आत्मा कहती है कि इसमें हमारी हार है । उस बलधारी को मरवाकर दुश्मन की सेना को निर्बल किया है लेकिन उसके बदले में अपना आत्म बल खोया है। थोड़े से स्वार्थ के लिए हे नाथ ! मुझे जबरन झूठ बुलाया है। भगवान ने कहा धर्मराज ! आप नीति निपुण हैं परन्तु धर्म और नोति में कुछ अन्तर है। धर्म ने कहा हे केशव ! सत्य के साथ धर्म को नींव तैयार होती है। और सत्य में झूठ मिल जाने से राज नीति कहलाती है । दूसरों को भलाई के लिए झूठ बोला जाये तो उसमें पाप नहीं माना जाता ।

इस प्रकार का झूठ सत्य से भी बढ़ कर अपना प्रभाव दिखलाता है। हां ! अपने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने से बड़ कर अधिक सन्ताप नहीं है कहावत सत्य है - "झूठ के समान दूसरा पाप नहीं है।" भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी ने कहा राजन् ! यदि यहां पर दूसरों की भलाई के विषय में पूछते हो तो यह विषय सोचने लायक है। सभी पापों का मूल दुर्योधन है उसकी सेना उसको सहायक है। पापी मनुष्य इस प्रकार की शक्ति पाकर पापों को बेल को बढ़ाता है। धर्म को आड़ में अधर्म का जाल रचता है। यदि मेरे प्रयत्नों के द्वारा दुष्टो का संहार न हो तो याद रखें इस भूमि पर धर्म को बढ़ नहीं सका। 

कांटे से ही कांटा निकलना है। और जहर से ही जहर मारा जाता है। सीधी उंगलियां से जमा हुआ घी नहीं निकलता। इसलिए नीति के मार्ग में इन बातो का विचार नहीं करना चाहिए। कल कर्ण सेनापति का कार्य करेगा। उसका भी विचार करो । धर्मराज ने उत्तर दिया प्रभो ! यह जिम्मेदारी आपकी हैं मुझे तो संदेह था वह आप के सामने रखा ।

भीष्म के समान ब्रह्मचारी द्रोण के समान शस्त्र विद्या पारंगत, कर्ण के समान हट्टी, जयद्रथ के जैसा योद्धा और दुर्योधन के जैसा अभिमानी फिर धन और बल से सम्पन्न जिनके सामने सास लेना भी हो, उस तरफ हजारों महा वीर और हमारी तरफ तो सिर्फ आप हो अकेले हैं। जो कुछ हो रहा है यह आपकी शक्ति से हो रहा है। केशव ने कहा राजन् ! अगली बात को और ध्यान दें । भीष्म पितामह और द्रोण के समान पाण्डव दल से प्रेम करने वाले योद्धा अब नहीं हैं। अब तो जो भी है सब के सब दुश्मन है वे भरमक जोर दिखलाएंगे। जितना भी कर सकते हैं कसर नहीं रखेंगे। 

कर्ण के पास 5 करारे बाण हैं, उन बाणों के साथ ही हमारी भलाई है। यदि वे बाण कर्ण के पास रहे तो पाण्डव दल का संहार ही समझो। उन बाणो को ले लेने पर हो कर्म मर सकता है। इसलिए हमारी सम्मति है कि उन बाणो को लाने के लिए कुंती माता को भेजें। उस दान वीर से किसी तरह भी हो वे बाण मंगवाओ |

धर्मराज ने कहा प्रभो ! माता तो लेने के लिए जा सकती है परन्तु अपने हाथ के हथियार वह क्यों देगा ? फिर दादा जी के जैसी यह दूसरी समस्या है । हे प्रभो ! इस प्रकार की विजय तो हार से भी गई बीती है। भगवान ने कहा धर्मराज ! यदि यही बात है तो घर में बने विजय की आशा मत करो । वैसे ही लड़-भिड़ कर जीवन समाप्त कर दो, राज्य के लिए कुछ न कहो । आप जानते हैं कि में किस तरह काम कर रहा हूं ? नाम तुम्हारा करवाता हू और बदनामी स्वयं लेता हूं। 

जो लोग अधर्मी से मिल कर उसका साथ देते हैं उनसे धर्म के अंग धीरे 2 खींचे जाते हैं। इसलिए अब बहस का समय नहीं है पहले कर्ण के पास माता जी को पहुंचाओं। मेरी बात कितनी सत्य है उस दानी से आजमाओ। मैं कहता हूं कि दान के समय उस वीर को द्रोह नहीं है। बाणो की तो बात छोड़ो प्राणों तक का भी उसे मोह नहीं है ।

अपने स्वार्थ के विचार से माता कुन्ती वर्ण के पास पहुंची। माता को देखकर कर्ण माता के पैरों में गिर पड़ा। और बोला जीवन की दबी हुई ममता आज प्रकट हुई है। पुत्र का भाग्य बढ़ाने के लिए माता जी ! किस तरह आप का आना हुआ ? कुन्ती ने कहा बेटा! में अपने मन की बात बताने के लिए आई हूं। बेटा ! आज तक तुम अपने को अधिरथ का पुत्र मानते आए । अपने वंश की पहचान तुम्हें नहीं है और माता को भी नहीं जानते। कर्ण ने कहा माता जी ! मुझे अपने कुल की पूर्ण जानकारी है। सूर्य को पिता और आप को माता मानता हूं। 

सूर्य देव ने इस रहस्य कों मुझे बतला दिया था। फिर अग्नि वस्त्र के द्वारा मैंने परीक्षा कर ली थी। ब्रह्मा ने मेरे भाग्य में लिखा था माता जी ! उसको आप मिटा नहीं सकी। उम्र और सुखमय जीवन था परन्तु माता का दूध पीने का भाग्य में लिखा नहीं था। इससे यह कहना पड़ता है कि अधिरथ जीवनदाता है। जिसने गोदी में रखा है अब तो वही माता है । फिर भी 9 मास गर्म में रख कर आपने जो कष्ट उठाया है। उस ऋण के बदले में माता जी ! सेवक को जो भी आज्ञा होगी उसका पालन करूंगा ।

कुन्ती ने कहा बेटा ! सारे रहस्य को तुम जानते हो फिर भाइयों को छोड़कर शत्रु दल में रहते हो यह आश्चर्य की बात है। मैं खोलकर सारी बातें बता देतो शर्मा के कुछ कह नहीं सकी, परन्तु यह माता की ममता है जो बिना कहे रहा नहीं गया। मैं उस तरफ रहती हूं परन्तु तेरो चिन्ता मुझे हमेशा रहतीं है । आज तक कोई समस्या नहीं थी परन्तु अब प्राणों का प्रश्न आएगा। पार्थ या कर्ण में से कोई एक निश्चय ही मारा जाएगा। इससे मेरा यह कहना है कि भाई से भाई मिल जाओ। पराए में मत भूले रहो, बेटा! अपनों को अपनाओ। बेटा ! इस बुढ़िया की आत्मा दोनों की कुशल चाहती है। 

कर्ण में कहा माता जी ! में जब तक किसी का बना नहीं था तब तक हो यह सम्भव था। अब में पराधीन हूं। जो दूसरों का बन कर रहा उसको आशा मत करो। माता जो ! यह देह उसकी हुई जिसने जीवन भर नमक खिलाया है। यह तो आप जानती हो कि कर्ण पराया गुलाम है। इस लिए शरीर में रहते हुए दुर्योधन का साथ दूंगा। हां ! माता के नाते तेरा भी कर्ज उतारूंगा। मेरे हाथों से अर्जुन को छोड़कर पाण्डव नहीं मारे जाएगे। माता तेरे बालक फिर भी पांच के पांच रह जाएंगे। यदि अर्जुन के हाथों से में ही मारा गया तो तेरे पांच पुत्र हैं ही। एक बात ओर भी सुन लें यदि मेरे हाथ से अर्जुन की मृत्यु हो जाएगी तो में उसी समय कौरव दल छोड़ से कर पाण्डवों के साथ मिल जाऊंगा ।

कुन्ती ने कहा परमात्मा भले ही पृथ्वी पाताल को बदल दें परन्तु बेटा ! जीवन रहते हुए वचन न बदलो । यदि तुम्हारा वचन भंग होता है तो उससे मेरी भी बदनामी है । जीवन फिर भी मिल सकता है परन्तु वचन वापिस नहीं मिलता इसलिए अब में कुछ नहीं कहती। हां ! उसके बदले दूसरा कोई दान दे दो। पार्थ के प्राणों को मत दो परन्तु उसके प्राण हरने वाले बाणों को हो दे दो। दान वोर ने वे बाण माता के चरणों में रख कर हाथ जोड़कर कहा माता जी ! ए पांच बाण है आज्ञा हो तो धनुष्य दे दूं, तरकश भी दे दूं । तलवार दे दूँ । रग-रग नस-2 दे दूं । माता जी ! यह विश्वास रहे एफफ बाण हो नहीं जा रहे हैं, अर्जुन के प्राण आ रहे हैं और कर्ण के प्राण जा रहे हैं।


Thank you

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