परमेश्वर धर्म की बड़ी विशेषताएं-
परमेश्वर के बारे में इतने पुराण व ग्रन्थ लिखे गये हैं कि किसी एक मनुष्य के लिये उन सबको समझ पाना तो क्या, एक बार पढ़ लेना भी सम्भव नहीं है। असंख्य ऋषि-मुनियों ने अपने-2 ढंग से परमेश्वर की भक्ति की है तथा जग के कल्याण के लिये अपने - 2 ढंग से ज्ञान दिया है। कईयों के विचार तो बिल्कुल ही एक-दूसरे के विपरीत हैं। यहाँ तक कि - "साध्य" और "साधन " भी इतने भिन्न हैं कि- किसी के भी दिल में संशय पैदा हो सकता है। आजकल टीवी पर धर्म के कुछ चैनल्स यदि कोई देखे तो, विभिन्न धर्म-गुरुओं की बातें सुन कर सिर चकरा सकता है कि- आखिर सच क्या है? तथा उचित “साधन" कौन सा है ? जिससे परमेश्वर की प्राप्ति हो सके।
धर्म के नये- 2 पंथ भी इतने सारे बन गये हैं कि- कई लोगों को तो यह सब धन कमाने का व्यापार सा लगने लगा है। कई धर्म तो ईश्वर भक्ति को भूल कर गुरु - भक्ति का ही प्रचार करते नजर आते हैं। वह अपने पंथीयों को यही ज्ञान देते हैं कि - गुरु ही ईश्वर है तथा गुरु भक्ति से ही मोक्ष मिलेगा। ऐसे में अपने जीवित गुरुओं की या उनके चित्रों की आरती करने में ही कई बेचारे अपना कल्याण समझते हैं कि- इसी से उनका उद्धार हो जाएगा।
कम से कम इतना तो शुक्र है कि-धर्म के लगभग सभी पंथ परमेश्वर अवतार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जी को तथा उनके श्रीमुख से निकले "गीता ज्ञान" को सादर मान्यता देते हैं तथा अपने प्रवचनों में भी गीता तथा गीता के श्लोकों का सादर उल्लेख करते हैं। यह बात और है कि- गीता के श्लोकों के अर्थ भी अलग-2 लगाए जाते हैं। गीता पर विभिन्न अर्थों वाली टीकाएं भी इतने प्रकार की लिखी जा चुकी हैं कि फिर किसी को संशय हो जाए कि इनमें से कौन सी टीका या कौन सा अर्थ प्रमाणित रुप से उचित है ?
परमेश्वर धर्म के भक्तों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि-साँप और रस्सी का उदाहरण अन्य धर्मो में भी दिया जाता है। मजेदार बात यह है कि लगभग सभी अलग- 2 पंथ साँप व रस्सी का उदाहरण देते हैं, हाथी व अन्धों की कथा का दृष्टान्त देते हैं। यहाँ स तक तो सब कुशल है क्योंकि सबको यही उचित लगता है कि- रस्सी क को रस्सी ही समझना चाहिए, रस्सी को साँप समझ लेना अन्यथा ज्ञान है क्योंकि साँप तो साँप ही है, साँप को रस्सी मान लेना जानलेवा हो स सकता है।
इन सुन्दर उदाहरणों को देने के बाद सभी अलग- 2 पंथ अपनी वही अलग-2 मान्यताओं का ही प्रचार करते रहते हैं। जिससे भोली-भाली जनता विश्वास कर बैठती है कि सचमुच केवल यही पंथ सत्यता का प्रतीक है और बाकी सबका ज्ञान व प्रचार गलत ही वि है। इसी तरह हाथी अन्धों का दृष्टान्त भी सचमुच बड़ा सुन्दर व महत्वपूर्ण माना जाता है। यह पूर्ण सत्य है कि लगभग व सभी अलग- 2 पंथ केवल अपने ही दृष्टिकोण को पकड़े बैठे हैं। उनको केवल अपना दृष्टिकोण ही सम्पूर्ण सत्य नजर आता है तथा बाकि सारे दूसरे पंथ अन्धों के दृष्टिकोण वाले तथा अर्थपूर्ण ही लगते हैं।
परन्तु एक गलती धर्म के लगभग सभी पंथ कर जाते हैं, जब वे इस बात पर बहस करने लगते हैं कि-यही सत्य हैं तथा इसके अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता। कोई पंथ कितना ही श्रेष्ठ या उच्च स्तर का क्यों न हो तथा सीधे परमेश्वर प्राप्ति का ही मार्ग क्यों न दिखाता हो परन्तु यह कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता। कि उनकी मान्यता परमेश्वर का सम्पूर्ण ज्ञान दे सकती है और परमेश्वर भी इसी से ही बंधे हुए हैं।
जबकि परमेश्वर को आज तक कोई भी सम्पूर्ण रूप से जान या समझ ही नहीं सका। परमेश्वर की महिमा इतनी अनन्त है, अपरम्पार है कि हम अज्ञानी जीवों के लिये यह अ-संभव है कि- परमेश्वर से सम्बन्धित हर वस्तु का बखान हम कर सकें। परमेश्वर तक जाने का मार्ग कितना ही उत्तम क्यों न हो, पर केवल यही "सत्य" और बाकि सब "मिथ्या" वाली सोच गलत है। हमारे जयकृष्णी धर्म की बड़ी विशेषताएं हैं, जिनके बारे में पूर्ण रुप से जानकारी के लिए किसी अनुभवी धर्म- गुरु से सम्पर्क किया जा सकता है - ग्रन्थ पड़े जा सकते हैं।
उन परमेश्वर भक्तों के भाग्य की प्रशंसा ही करनी पड़ेगी - कि- जिनके घरों में पहले से ही परमेश्वर धर्म अपनाया जाता रहा है। परमेश्वर या परमेश्वर के साकार अवतारों की भक्ति करने वाले भक्त वास्तव में अति भाग्यशाली हैं। यह उनके पूर्व-पुण्य, संस्कार व पूर्व-अर्जित अधिकारों का ही फल है कि वे ऐसे परिवारों में जन्में तथा इस जन्म में भी उत्तम संस्कार ही मिले। एक तो यह दुर्लभ मनुष्य देह, ऊपर से पैदा होते ही परमेश्वर धर्म के संस्कार मिलना शुरु हो जाना, यह परमेश्वर की असीम कृपा ही है।
"गीता" के छठे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जी ने ऐसे जन्म को अति दुर्लभ बताया है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि - ऐसा भक्त पूर्व संस्कारों के बल पर तथा इस जन्म में परमेश्वर भक्ति के और अधिक प्रयत्न व अभ्यास करके परमेश्वर भक्ति को सिद्ध कर भी लेता है तथा परम गति को प्राप्त भी कर लेता है। भगवान जी ने ऐसे भक्त को श्रेष्ठ योगी भी कहा है।
आमतौर पर यह संस्कार बचपन में ही बन जाते हैं। साधारणतया लोग उसी पंथ का अनुगमन करते हैं, जो उनके माता-पिता व परिवार के बड़े लोग पहले से ही करते चलते आ रहे हैं। अधिकतर लोग तो सांसारिक झमेलों में ही इतने फंसे हैं कि उनके पास धर्म के लिये चिन्तन का समय ही नहीं है। यदि परिस्थिति वश हो भी गया तो धन-दौलत या किसी अन्य सांसारिक कामना वाली भक्ति ही करने लग जाते हैं। ऐसे में अपना दिमाग कौन लड़ाए ? इस सोच से या अपने - 2 ज्ञान के स्तर या पूर्व संस्कारों के अनुसार वही पूजा प्रार्थना करने लगते हैं, जो उनके परिवारों में पहले से ही होती चली आ रही है। यह करना लोगों को अधिक आसान या सरल लगता। है।
विभिन्न पंथों में मान्यताओं की भिन्नता उनके "साध्य" और "साधन " दोनों में ही दिखाई देती है। “साध्य" में परमेश्वर के मोक्ष की प्राप्ति, परमेश्वर के प्रेम की प्राप्ति या कई धर्मो या पंथों के लक्ष्य की पहुंच स्वर्ग प्राप्ति तक ही है। या फिर कई पंथ किसी सिद्धि की प्राप्ति या फिर सांसारिक पदार्थो की प्राप्ति तक ही सीमित है। जाहिर है कि इनके "साधनों' में भी फर्क है। कई यन्त्र, तन्त्र या मन्त्रों का सहारा लेते हैं। कई हवन या दूसरे कर्म-काण्डों में विश्वास रखते हैं। तथा कई तो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बलि तक चढ़ा देते हैं। हर मनुष्य अपने संस्कारों या विश्वास के बल पर यही समझता है। कि- वह जो कुछ भी कर रहा है, वही उचित है, चाहे दूसरों की नजरों में वह अन्धविश्वास का ही शिकार हो ।
कुछ बातों से लगभग सभी धर्म या पंथ सहमत हैं। इस बात से किसी भी पंथ को इन्कार नहीं है कि- मनुष्यों में साधारण आवश्यक इंसानियत तो होनी ही चाहिए। जीवन में जिन बातों को छोटी- छोटी समझ कर अनदेखी कर दी जाती है, वह भी काफी महत्वपूर्ण होती हैं। जैसे सत्य बोलना, झूठ न बोलना, प्रेम-पूर्वक बोलना, किसी को धोखा न देना, अपने स्वार्थ के लिए किसी को हानि न पहुँचाना, मिल-जुल कर रहना, एक दूसरे की सहायता करना, दिल में दया भाव तथा करुणा रखना, अपने से बड़ों का विशेषकर माता-पिता, गुरु व सन्तों का सम्मान करना तथा उनकी सेवा करना, अपने विचार शुद्ध रखना, अपने मन को लगाम देना इत्यादि और भी ऐसी कई अच्छी बातें हैं, जो न केवल जीवन का बल्कि धर्म का भी आधार है। एक अच्छा इन्सान होना तथा अच्छाईयों का आधार होना को लगभग सभी धर्म या पंथ के लोग मानते हैं। यदि आधार ही गलत हो, किसी भी उच्च स्तर का पंथ, किसी की सहायता नहीं कर सकता। हर मनुष्य को स्वयं ही चुनना पड़ेगा कि वह अपने जीवन में अच्छाईयों को उतारे या फिर सांसारिक झमेलों में पड़ कर अपने रिश्तेदारों, मित्रों या पड़ोसियों से अधिक सांसारिक पदार्थ पा जाने की होड़ में यानि अपने को उनसे अधिक सफल महसूस करने के चक्कर में कुछ भी बुरा करने से न हिचकिचाये ?
हमारे परमेश्वर धर्म में इन सब बातों को एक शब्द में कहा गया है, वह है- "स्वयं के विकारों को दूर करना' ताकि अपने " सांसारिक जीवन में भी शान्ति रहे तथा परमेश्वर मार्ग में अपना स्तर शीघ्रता से उच्च किया जा सके।
ऐसा नहीं है कि- परमेश्वर धर्म में लोग बाद में नहीं आते। किसी न किसी जन्म में तो भूतपूर्व व वर्तमान परमेश्वर भक्त तो इस परमेश्वर धर्म के मार्ग पर आये ही हैं। जब जिसका पुण्य, संस्कार व अधिकार फलित होता है, तो उचित समय आने पर, उचित ज्ञान पाकर लोग परमेश्वर धर्म के उचित मार्ग पर आ ही जाते हैं। चाहे वह किसी भी आयु में हो, देर से आने की बजाय शीघ्र आना उत्तम है, पर देर आये भाग्यशाली हैं वे भक्त जिन्होंने अन्य धर्मों के परिवारों में जन्म लेने के बाद भी यह निर्णय लिया कि अब मुझे सभी देवी-देवताओं का सहारा छोड़ कर, केवल परमेश्वर का ही भक्त बनना है।
कम से कम यह समझने में तो कोई कठिनाई नहीं होती कि- परमेश्वर के अर्पण की गई थोडी सी भक्ति भी व्यर्थ नहीं जाती। दूसरे देवी- देवताओं की कठिन मर्यादाओं वाली कठिन भक्ति कर भी "ली, तो पुण्य कर्म फल प्राप्त करके तथा उनका भोग, भोग लेने के बाद फिर नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है। फिर आवागमन के आना पड़ता है। फिर 84 लाख नरक यातनाएं भोगनी पड़ती हैं।
और दूसरी तरफ आवागमन के चक्र से मुक्त करा देने वाली तथा परमेश्वर भक्ति का परम धाम स्थाई रुप से प्राप्त करा देने वाली परमेश्वर भक्ति ही सर्वोत्तम कल्याणकारी है। यदि सांसारिक वस्तुओं की कामना प्रबल ही है, परमेश्वर सकाम उ भक्ति का फल भी दे देते हैं। यह बात तो बाद में समझ में आती है कि- सकाम भक्ति के बजाय, निष्काम भक्ति ही श्रेष्ठ है, जो स्थाई परम धाम दिलवा सकती है।"
अब ये दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि परमेश्वर भक्ति वाले परिवारों में दुर्लभ मानव जन्म पाकर भी तथा ऐसे उत्तम धार्मिक वातावरण वाले संस्कार पा कर भी किसी की मति भ्रष्ट हो जाए तथा वह अपने धर्म का मार्ग ही छोड़ दे या फिर उत्तम, स्थाई कल्याण करने वाले परमेश्वर धर्म का मार्ग अपनाने के बजाय कोई अस्थाई सांसारिक फल प्राप्त कराने वाले अन्य पंथ में चला जाए, यह अज्ञानता ही मानी जाएगी। एक तो कलियुगी वातावरण तथा ऊपर से अनेक प्रकार के पथों की भरमार, यह किसी भी नये या कोमल भक्त को भ्रमित कर सकने में सम्भव हो सकती है।