भाग 02 धर्म और एकता महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता

भाग 02 धर्म और एकता महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता

 महानुभाव पंथीय ज्ञानसरिता 

भाग 02

धर्म और एकता

कै. आचार्य महंत श्रीऋषिराजबाबाजी उर्फ श्रीदर्यापूरकरबाबाजीद्वारा अभिव्यक्त विचार धर्म और विज्ञान, अहिंसा तथा एकता

संकलक - प्रेमराज नरूला प्रेममुनी पंजाबी - तृतीय विश्व धर्म संमेलन दिल्ली २६-२८ फरवरी १९६५

धर्म और एकता 

मानवको अध्यात्म-पथपर चलानेके लिए धर्मका उदय होता है। देश, काल, भाषा, विचार-शक्ति और अलगअलग मानव समाजकी भिन्न-भिन्न आवश्यकताएँ, ध्येय व रीति-भेदसे धर्मोमें अनेकता होना स्वाभाविक है। कई देशोंकी भौगोलिक परिस्थितियाँ भिन्न हैं, जलवायु और भूमिमें अंतर है तथा समयके अनुसार अर्थात् समय विशेषका मानवीय परिस्थितियोंके अनुरूप धर्मोका प्रादुर्भाव होता है। भिन्न-भिन्न भाषाभाषी प्रदेशोंमें उन लोगोंको उनकी ही भाषामें धर्मके सिद्धांत समझाये जायेंगे । 

धार्मिकतत्त्वोंकी शन्यून-अधिकता, पूर्ण-अपूर्णता तथा एकांगीनता या व्यापकता विचार शक्तिपर निर्भर हुआ करती है। स्थानविशेषके मानव समाजकी विशिष्ट स्वभाव पद्धतिके अनुरूप अलगअलग आवश्यकताएँ भी 'अनेकताका कारण बनेंगी। ध्येय भी भिन्नभिन्न-सा लगता है, जैसे कुछ लोग सुखसे जीवन व्यतीत करते हुए मानवजातिको सुखी रखना चाहते हैं और जिस ईश्वरने पैदा किया है उसके प्रति कृतज्ञता दर्शानेके लिए उसे याद करना अपना कर्तव्य समझ सकते है, तो कई इसके साथ-साथ पारलौकिक विशिष्ट सुखोंकी भी अपेक्षा करते हैं। अन्य लोग तपश्चर्या द्वारा अपने अंत:करण और आत्माकी शुद्धि चाहते हैं। कई पिछले कुछ उद्देश्योंको

साथ रखकर आत्मिकशुद्धि और आत्मिकशांतिको प्राप्त करना चाहते हैं, तो कई लोग किसी साधनाके द्वारा शरीरमें स्थित प्रकाश-ज्योतिका साक्षात्कार करना चाहते हैं। कुछ लोग सभी इच्छाओं और वासनाओंका त्याग करते हुये उस जगत्-जीवन परमात्माके चरणों में और वासनाओंका त्याग करते हुये उस जगत्-जीवन परमात्माके चरणोंमें सेवाभावसे शरण जाकर एकनिष्ठ पराभक्ति द्वारा अपना आत्मिक कल्याण किया करते हैं । 

ये उनके ध्येयोंकी भिन्नभिन्न विशेषताएँ है धर्मका सामान्य ध्येय जैसे बुरे कर्मोंका त्याग, सत्कमका आचरण, ईश्वरकी याद और आध्यात्मिक विकास तो सभी धर्म स्वीकार करेंगे। इसी प्रकार कोई वैराग्यके द्वारा अपनी जीवात्माकी शुद्धि मानते हैं और वैराग्यकी प्रधानता देते हैं । कई ज्ञानके आधारसे आत्मशुद्धि करनेके सिद्धांतपर बल देते हैं। अन्य भक्तिका सहारा लेकर इस संसार सागरसे तैरनेका उपाय विशेष रूपसे सामने रखेंगे, कई लोक निष्काम कर्मयोगसे आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण होनेका भाव रखते हैं। 

इन चार स्थूल भेदोंके मिश्रण से सूक्ष्म भेदोंकी अनेकता बढ जायेगी। इसे रीतिभेद कहना चाहिए। वास्तवमें तो ज्ञान, भक्ति औ वैराग्य इन तीनों महागुणोंका उत्कृष्ट समन्वय होनेपर जब कोई पुरुष निष्कामकर्म करता है, तभी उसका पूर्ण रूपसे आत्मक्याण होगा । उपर्युक्त सात भेदोंके कारण धर्ममें अनेकता होना स्वाभाविक है । अतः धर्मकी अनेकतामें कोई व्यावहारिक हेतु नहीं हुआ करता, यह एक सहज घटित सत्य है।

जो लोग धर्मोकी अनेकताके कारण झगडोंकी उत्पत्ति मानते है तथा धर्मकी अनेकतासे मानव जातिपर अनेकताका आरोप करते हैं, उन्हें विचार करना चाहिए कि धर्म और झगडा ये दो शब्द ही परस्पर विरोधी हैं। जिसके अंतःकरणमें धार्मिकता हो वह कभी भी किसीसे झगडा नहीं कर सकता। धर्मोके बीज अगर कभी झगडा पैदा हुआ होगा, तो उसके कारण कुछ और होंगे। 

जैसे हरएक धार्मिक पुरुष अपनी धार्मिकताकी रक्षाके लिये धर्मनिष्ठा रखेगा इसी धर्मनिष्ठाका स्वरूप जब दुरभिमानमें परिवर्तित हो जाता है, तब वह दूसरे धर्मकी उपेक्षा, निंदा और अवहेलना करेगा या अपना कोई स्वार्थ, मान, प्रतिष्ठा, बड़ाई और अधिकार सिद्ध करने के लिये वह अपने धर्मका दुरुपयोग करते हुए दूसरोंके को दबाएगा । दूसरोंकी विडंबना करेगा । कभी कभी बलात्कारसे अपना धर्म फैलाएगा। 

किंतु अधिकतर राजसत्ताकी अमिट पिपासा इसमें कारण हुआ करती है। इसके विपरीत इन लालसाओंको सीमित रखना या मिटाना ही तो धर्मका उद्देश्य है। अथवा जिस धर्मके अंदर उन धार्मिकतत्वोंकों न समझनेवाले या अयोग्य व्यक्ति प्रवेश करते है, उस धर्ममेंसे संघर्षकी ज्वाला उन व्यक्तियोंके कारण पैदा हो जाएगी। 

तात्पर्य यह है कि, मानव धर्मके नामका दुरुपयोग करता है। इसी कारण कुछ लोग ऐसा समझने लगे है कि, धर्मकी अनेकतासे ही मानवमानवके अंदर संघर्ष हो उठता है । वस्तुस्थिति यह होनी चाहिए कि, जहां जिस अंतःकरणमें धर्मका स्थान हो, वहां कोई भी दुर्गुण उत्पन्न नहीं होता। हां, एक बात और भी है कि, धार्मिकतत्वोंकी अपूर्ण शिक्षाके कारण तथा एकांगीण दृष्टिकोण होनेसे कई धर्मोके व्यक्ति पूर्णरूपसे धार्मिक नहीं हो पाते। यह भी धर्मके नामपर संघर्ष होनेका एक कारण माना जाएगा।

विभिन्न धर्मोके लोग अपनेअपने धर्मको अखिल विश्वके लिए निर्मित हुआ मानते है और चाहते हैं कि उनका धर्म विश्वभरके सभी मानव आचरणमें लाएँ । उनकी यह भावना त्याज्य नहीं हो सकती। इस भावनामें दो मूल हेतु दीख पडते हैं। एक तो मनुष्यका स्वभाव है कि उसे जो वस्तु भाती है उस वस्तुको वह अपने प्रेमीजनोंको देना चाहता है, उन तक उसे वह पहुंचाना चाहेगा ; इस दृष्टिको सामने रखकर यदि कोई किसी धर्मका अनुयायी पुरुष निष्कामभाव और विशुद्ध प्रेमसे अपने अनुभव विश्वके सभी मानवोंतक पहुंचाना चाहे और प्रत्येक धर्म के अधिकार और प्रतिष्ठाको आत्मौपम्येनभावसे ध्यानमें रखे तो उसका यह हेतु स्तुत्य है और इस हेतुके द्वारा सभी धर्मोंको अपनेअपनेधर्मका प्रचार करनेका पूर्ण अधिकार दिया जाना चाहिए।

इसके विपरीत दुरभिमानवश दूसरे धर्मोकी निंदा तथा उपेक्षा करते हुए अपने धर्मका प्रचार करना अथवा हाथमें तलवार या अधिकार लेकर बलात्कारसे अपने धर्मको फैलाना नीति और धर्मके विरुद्ध है। इसी तरह कूटनीतिका प्रयोग करते हुए अपने धर्मके विस्तारकी इच्छा भी मानव अंत:करणमें पाई जाती है, जोकि सर्वथा अनुचित है। यहां पर यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि यह सब मानवकी अपनी दूषित मनोवृत्तियों का परिणाम हैं, इनका धर्मके साथ कोई संबंध नहीं सिद्धांत यह निकला है कि, धर्मकी अनेकताके कारण मानवकी एकता भंग नहीं होती; यह अनेकता तो मानवके अनेक मनोविकारोंका परिणाम है।

आप देखिए कि हम एक ही घरमें रहते हैं, किंतु मतभेद हो जाता है। एक ही कुलमें, एक ही जातिमें, एक ही प्रांतमें और एक ही देशमें रहनेवाले व्यक्ति भी विचारोंकी एकता नही रख पाते, उनमें मतभेद हो जाता है। और संघर्ष हो उठता है। यहाँतक कि एक ही धर्म-पथपर चलने वालोंकी विचारधारा भी कभीकभी एक नहीं होती। मान लो कि, यदि सारे विश्वका एक ही धर्म हो जाए, तो भी क्या मानव-जाति एक सूत्रमें बंधी रहेगी ? केवल 'एक' शब्दका प्रयोग करनेसे ही हम एक हो जाएंगे ? मानव जाति एक होनेके नाते 'एक' शब्द विश्वभरके मानवोंके साथ लगा ही हुआ है। और कई स्थानोंपर इस 'एक शब्दका प्रयोग भीहोता है जैसे घरमें, कुलमें, जातिमें, देशमें और प्रांतमें। 

किंतु वहां सब जगह पर कहीं भी पूर्णरूपसे एकता नहीं दीख पडती । तो क्या धर्म शब्दके साथ 'एक' लगा देनेसे यह एकता हो जाएगी ? अर्थात् सारे विश्वका एक धर्म हो जानेसे भी एकता नहीं हो सकती। विश्वका एक धर्म, एक भाषा यह कल्पना ही निराधार-सी लगती है। एकता निर्माण करनेके लिए प्रत्येक मानवके अंतःकरणमें विश्वके सभी प्राणियोंके लिए आत्मीयता का भाव निर्माण करना पडेगा। हम सभी जगत्-पिता परमात्माके पुत्र हैं। बंधु होनेके नाते हमें एक-दूसरेसे उतना ही प्रेम करना चाहिए, जितना कि हम उनसे चाहते हैं और जितना एक कुलशील संपन्न भाई अपने भाईसे प्रेम करता है। 

एक धर्मके व्यक्तिका दूसरे धर्मके व्यक्तिके साथ या एक धर्म-समुदायका दूसरे धर्म- समुदायके साथ जब संबंध हो, तब इस बंधु भावको समझते हुए हमें और भेदोंपर विचार करनेकी कोई आवश्यकता नहीं; जब कि यह कर्तव्य प्रत्येक धर्मक्षेत्रके नेताओंका है कि वे अपने धर्मके प्रत्येक अनुयायीको इस बंधुभावकी प्रेम-शिक्षा दें। इस विश्वधर्ममंचसे प्रत्येक धर्मके नेताओंको यह कहना चाहूँगा कि वे अपने इस उत्तरदायित्वको स्वीकार करें और यह आशा करनी पडेगी कि वे अपने इस कर्तव्यको समझेंगे।

पीछे यह कहा जा चुका है कि, हर धर्मको विश्वतक फैलनेका अधिकार है: परंतु अपनेअपने धर्मका प्रचार करते हुए उन धर्मोके प्रचारकों को यह बात ध्यानमें रख लेनी चाहिए कि उनके द्वारा किसी धर्मकी उपेक्षा, निंदा तथा अवहेलना तो नहीं हो रही ! साथ साथ एक बात और भी ध्यान रखने योग्य है कि किसी भी धर्म- प्रचारकको अपने सिद्धांतकी विशेषता श्रोताओंके सामने रखनी चाहिए। दूसरोंके धर्मकी कमियोंको बतलाकर अपने धर्मकी विशेषता बतलाना अनुचित है। 

इसीतरह किसी धर्मविशेषका सामुदायिक रूपसे खंडन करते हुए अपने सिद्धांतका प्रतिपादन करना भी उचित नहीं । यह ठीक है कि, मनुष्य अपने धर्मके किसी विशिष्ट तत्त्वपर गर्व कर सकता है, किंतु इस गर्वकी सीमा अपने सिद्धांत और अंतःकरण तक ही होनी चाहिए। अपने समुदायको विशिष्ट समझकर दूसरे समुदायोंके प्रति अनादर रखना धर्मके विरूद्ध है। जब मानवके अंदर दुरभिमान बढ़ जाता है तो, वह अपने समुदायको विशेष रूपसे मानकर इतर धर्म-समुदायोंको घृणाकी दृष्टिसे देखने लग जाता है। 

दो धर्मोके व्यक्तियोंमें या दो समुदायोंमें संघर्ष होनेका यह भी एक कारण माना जाएगा ये सब मानवके अपने दुर्गुण हैं, न कि किसी धार्मिक सिद्धांतके ऐसे दुरभिमानसे भरा हुआ मानव अपने धर्मके माध्यमसे अपना अधिकार, अपनी प्रतिष्ठा, अपना मान, अपनी बडाई, अपना यश, अपना सुख और संपत्ति बढाना चाहता है। मानवके द्वारा होनेवाला यह धर्मका दुरुपयोग है। 

यह मानव इतना हत्यारा बन जाता है कि, जिस प्रकार वह अपने स्वार्थके लिए देशका प्रांतका, शिक्षाका, बलका, धनका और अपने समाजका दुरुपयोग करनेमें हिचकिचाहट नहीं करता इसी प्रकार धर्मके अंदर आकर धर्मके नामपर कलंक लगा देता है इसलिए अपनेअपने धर्मक्षेत्रके उन आचार्यगणोंका, गुरुजनोंका और नेताओंका यह कर्तव्य होगा कि वे अपने धर्मानुयायी हर व्यक्तिको योग्य शिक्षा विशेषकर यह भी ध्यानमें रखें कि जो अयोग्य व्यक्ति समझानेपर भी नहीं समज पाते, ऐसे व्यक्तियोंको धर्म-क्षेत्रमें प्रवेश देनेसे पहले उन्हें योग्य बना लेना चाहिए: नही तो उनका अपना धर्म उन व्यक्तियोंके कारण बदनाम होगा, साथसाथ धर्मका संसार भी।

प्रत्येक धर्मके नेताओंकी योग्यता जितनी उच्चतम होगी, उतना ही वे अपने अनुयायियोंको योग्य बना सकेंगे। यह बात उन्हें अपने लिए, अपने धर्मकी उन्नति हेतु ध्यानमें रख लेनी चाहिए। जब सभी प्राणी उस जगदाधार परमात्माके पुत्र हैं और वह परमात्मा इन सबका परमपिता है, तो प्राणीका प्राणीके साथ बंधुभाव होना परम आवश्यक है। अगर कोई मानव किसी दूसरे को दुःख पहुंचाता है, तो मानों उसने उस प्रभुको ही दुःख पहुँचाया। 

जैसे, किसी माता-पिताके चार पुत्र है, यदि एक बड़ा व बलवान होनेके नाते दूसरोंको दुखी करता है, दबाता है, तो माता-पिता स्वयं दुःखी होकर, जिसने दुःख दिया है उसपर अप्रसन्न-से रहते हैं। पुत्रका कर्तव्य है कि, वह अपने पिताके सभी परिवारसे प्रेम रखे। एक घरमें रहनेवाले भाइयोंकी तरह विश्वके सभी प्राणियोंके प्रति प्रेमका बर्ताव रखना ही मानवका कर्त्तव्य है और यह प्रेमका सूत्र ही मानवको विश्वके साथ बांध लेता है, फिर उस मानवके अंतःकरणमें न विषमता रहती है, न अनेकता यह प्रेमरस उन्हीं पुरुषोंके अंतःकरणसे झरते हुए अन्य प्राणियोंको मिलता है, जिनको प्रेमस्वरूप परमात्माकी अनुभूति हो।

 कई बार उस परमपिताका अस्तित्व माननेवाले आस्तिकलोग उन नास्तिकों की ओर घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं, जो उस प्रभुका अस्तित्व नहीं मानते। जब एक घरके अंदर एक बच्चा अपने माता- पिताके मातृ-पितृ भावकी मर्यादाओंको नहीं समझता, प्रातः काल उठकर उन्हें प्रणाम नहीं करता, समय- समयपर उन्हें अपमानित करता है, ऐसी स्थितिमें दूसरे भाई जो मर्यादाके तत्त्वको तथा माता-पिताके उपकारोंको जानते हैं, उन्हें उस अपने भाईकी ओर देखकर क्रोध आ जाएगा। 

फिर भी उन्हें उसे समझानेका ही प्रयत्न करना चाहिए। ठीक इसीप्रकार जो उस विश्वपिताको नहीं मानते, उन्हें देखकर आस्तिक पुरुषोंके अंतःकरणमें उद्विग्नता-सी हो जाती होगी। फिर भी उन आस्तिक पुरुषोंको यह विचार करना चाहिए कि, वह नास्तिक भी तो उस परमपिताके पुत्र हैं। पुत्र यदि अयोग्य भी हो तो भी उसपर पिताका प्रेम हुआ ही करता है, फिर वह परमपिता प्रभु क्या योग्य और क्या अयोग्य सभीका कल्याण करना चाहता है। 

सभीके लिए उसका अंदर प्रेम गरा पडा है। वह आस्तिक हैं, चाहे नास्तिक है: सदाचारी हैं या दुराचारी है; बंधुत्वके नाते उन सबके प्रति प्रेमका भाव रखना ही हमारा परम कर्तव्य रहेगा। इस प्रकार मानवमानवके अंदर इस प्रेम भावको जागृत कर देनेपर सर्वत्र अनेकता होते हुए भी आपको एकताका ही दर्शन होगा।

इस लेख पुरे लेख का पहला और तिसरा भाग पढे 👇 

भाग 03 👇

भाग 03 धर्म और अहिंसा 

भाग 01 धर्म और विज्ञान



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