भाग 03 धर्म और अहिंसा महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता

भाग 03 धर्म और अहिंसा महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता

 धर्म और अहिंसा

ज्ञानसूर्य कै. महंत श्री ऋषिराजबाबाजी उर्फ श्रीदर्यापूरकरबाबाजीद्वारा अभिव्यक्त विचार धर्म और विज्ञान, अहिंसा तथा एकता

संकलक - प्रेमराज नरूला १२ पंजाबी, - तृतीय विश्व धर्म संमेलन दिल्ली २६ / २८ फरवरी १९६५

धर्म और अहिंसा

बड़े सौभाग्यकी बात है कि दैवीसंपत्तिके अहिंसा लक्षणपर हम विचार कर रहे हैं।

अहिंसा परमोधर्म : अहिंसा परमो तपः, 

अहिंसा परमोदानं, सर्वधममहिंसकम्।

अर्थात् - अहिंसा श्रेष्ठ धर्म है, अहिंसा श्रेष्ठ तप है, अहिंसा श्रेष्ठ दान है और अहिंसक पुरुष ही धर्मका आचरण कर सकता है। इसप्रकार अहिंसाका महत्त्व असाधारण है । अहिंसासे ही उन सभी सात्विक वृत्तियोंका उदय हुआ करता है, जो सात्विक वृत्तियां मानवको विश्वके सुखका स्तंभ बना देती है। 

अखिल मानवजातिको सुखी और शांत रखनेके लिए और संसारमें विश्वबंधुत्वके भावको स्थिर करनेके हेतु प्रत्येक मानवके अंतःकरणमें अहिंसाका भाव होना बहुत जरूरी है। अहिंसाका लक्षण है मन, वाणी और कर्मसे किसी भी प्राणीको अपने द्वारा दुःख तथा हानि न पहुचाना। चाहे वह प्राणी मानव हो चाहे पशु, पक्षी, कीटक आदि या वृक्ष और गुल्म-लताएं ।

 जहांतक प्राणीमात्रका प्रश्न है, इस अहिंसाके नियमको लागू कर देना चाहिये। यह बात और है कि अहिंसाका आचरण मानवको ही बतलाया जाएगा, अन्य प्राणियों को नहीं क्योंकि जगत्में मानव ही एक विचारशील प्राणी है। इस प्रकार अहिंसाका भाव प्रत्येक मानवके अंदर जागृत करनेके लिए आहारकी शुद्धता और सात्विकतापर विचार करना चाहिए। मनुष्यका शरीर अन्न और जलवायुके द्वारा बढ़ता और स्थिर रहता है। वह अन्न, जल तथा वायु जिस-जि गुण-धर्म या स्वभावका होगा, उसके अनुसार ही शरीरके अंदर उनका प्रभाव हुआ करता है। 

उस प्रभावके अनुरूप ही मनुष्यकी इंद्रियां, मन और बुद्धि कार्य करती है जैसे तमोगुणी आहारसे तमोगुण बढेगा, रजोगुणी आहारसे रजोगुणकी बुद्धि होगी उसी प्रकार सात्विक आहारसे सतोगुण निर्माण होता है। इन तीनों गुणोंका भिन्नभिन्न परिणामोंसे मिश्रण हो जानेपर मनुष्यके विचारोंमें और स्वभावमें बहुत विविधता पाई जाती है। आहारका परिणाम यहांतक मानना पडेगा कि, मनुष्य शरीरका एकएक रक्तकण और मानवीय जीवनका एकएक

क्षण उस आहारके अनुरूप ही होता है। इस सिद्धांतको मान लेनेपर आहारकी सात्विकता और शुद्धतापर विचार करना प्रत्येक धर्मका कर्तव्य होगा । सात्विक आहार वही हो सकता है जो अहिंसामय रीतिसश्रे प्राप्त हो अर्थात् उसे पानेके लिए किसी अन्य प्राणीको दुःख न पहुंचाया जाए कुछ लोग शाकाहारको भी हिंसासे प्राप्त हुआ मानते है। उनका कथन है कि, अनाजके पौधे भी तो काटे जाते हैं, फल भी तोडे जाते है, कंद मूल और सब्जियां भी इस प्रकारसे प्राप्त होती है। यह भी तो उन प्राणियोंकी एक प्रकारसे हिंसा ही है ।

  आजकल दुर्व्यवहारका लक्षण यही हो सकता है कि, अनाज या कंदमूल और फलोंको प्राप्त करनेमें अज्ञानता, विचारहीनता और अधीरता दीख पडती है। जैसे, पकने और सूखनेके पहले ही कही-कहीं अनाजके पौधे काटे जाते है और फलोंको पकनेसे पहले ही उन्हें तोड़कर कृत्रिम रीतिसे पकाना शुरू कर दिया जाता है या कंदमूल फलोंका अर्धपक्व अवस्थामें ही प्रयोग करते हैं: परंतु विचारपूर्वक इस सृष्टिकी ओर देखनेसे पता चलता है। कि प्रकृतिका नियम ऐसा नहीं। अनाज जब पक जाता है। तो उसके पौधे बिल्कुल सूख जाते है। ऐसी स्थितिमें उन पौधोंके अंदर जीवात्माका अस्तित्व नहीं माना गया । सूखनेके बाद ही उन पौधोंको काटते थे, आज भी उसी तरहसे काटा जाना चाहिए। 

इसप्रकार प्रकृतिके द्वारा पूर्ण पके हुए अनाज को बहुत देरतक कीडा नही लगेगा और दाना मोटा होनेसे अनाजका प्रमाण भी बढ जाता है। इसी तरह फल भी जैसेजैसे क्रमश: पक जाएँ वैसेवैसे ही उन्हें प्राप्त करना चाहिए। इनमेंसे कुछ फल तो पकनेपर स्वयं ही टपकने लग जाते है, जैसे आम, जामन, बेर, कपिथ, इमली इत्यादि । कुछ हिलाकर टपकाए जाते हैं, जैसे शहतूत वगैरह। और कहीं-कहीं फलोंके पकनेपर उनकी डंडियां सूख जाती हैं, जैसे केला, पपीता, खरबूजा, तरबूज, ककडी, कद्दू, कांशीफल, संतरा, मौसंबी आदि । 

कन्दोंके विषयमें भी ऐसा ही है। जब कंद पक जायें, तो उनके ऊपरके पत्ते सूख जाते हैं। फिर उन्हें जमीनमेंसे खोदकर निकालना चाहिए। इस प्रकार निसर्गके द्वारा पके हुए कंदमूल, फल और अनाज अपने जीवनसत्वोंसे भी परिपूर्ण होकर आरोग्यप्रद हुआ करते हैं। इस तरह परमात्माके सृष्टिनियमका पालन करनेसे शारीरिक लाभ होकर हिंसाका सवाल ही नही पैदा होता । अगर

शाकाहारके अंदर कुछ हिंसा-सी प्रतीत होती है, जैसे कुछ सब्जियोंको प्राप्त करनेमें पत्तोंको तोड़ा जाता है, तो यह मनुष्योंकी कृत्रिमता है, परमात्माका सृष्टि-नियम नहीं । शाकाहारी मनुष्योंकी इस कृत्रिमताकी जमा करलेने पर भी सामिषाहारमें और निरामिष आहारमें पृथ्वी आकाशका अंतर है ।

सामिष आहारके अंदर वह प्राणी तडफता हुआ प्राण त्यागता है, जिसकी हिंसा की जा रही हो; किंतु शाकाहारके अंदर उस हिंसाका इंद्रियग्राह्य अनुभव नहीं हो पाता। इसप्रकार अनेकों प्रमाणों द्वारा शाकाहारकी सात्विकता सिद्ध हो जाती है सामिष आहार तमोगुणको उत्पन्न करता है, बढाता है। देश विशेष व स्वभाव विशेषके कारण सामिषाहारका दुष्परिणाम कभीकभी कहींकही प्रत्यक्ष दीख नहीं पडता, जिसका कारण देश और स्वभाव है। 

फिर भी वहाँ अप्रत्यक्षरूपसे उसका परिणाम होकर ही रहेगा। चाहे क्रोध निर्माण हो, चाहे भ्रम बढे; चाहे स्वास्थ्यपर उसका दुष्परिणाम हो, चाहे बुद्धिपर पर्दा पडे; चाहे सुविचारों पर बुरा असर हो, चाहे विचारोंमें स्थूलता आ जाए; कुछ-न-कुछ बुराई होकर ही रहती है। इसलिए "आहारशुद्धी सत्वशुद्धिः" कहकर आहार की सात्विकता अत्यावश्य समझी गई है। उपर्युक्त कथनका सारांश यह है कि, जब सात्विक- आहारके द्वारा सतोगुण बढने लगे, तब उस सतोगुण के प्रभावसे मानवका अंतःकरण धीरे-धीरे शुद्ध होनेके पथपर चल पड़ता है। जब अंत:करण शुद्ध होने लगता है। तब हिंसा, कठोरता, दंभ, दर्प, अभिमान, क्रूरता, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, मत्सर और विषमता इत्यादि आसुरी दुर्गुण क्रमशः स्वयमेव दूर होते जाते है। इसलिए आहारकी

सात्विकताका सिद्धांत सर्वमान्य होना चाहिए । तमोगुणी आहारसे तामसी प्रवृत्तियां बढती है और तमोगुण ही हिंसाका जनक है। अतः विश्वधर्म संमेलनके सभी विचारकोंको को इस विषयपर अवश्य विचार करना पडेगा अहिंसा साधना है या परिणाम ?

अहिंसाका भाव आरंभकालमें तो साधनाके रूपमें हमारे सामने आता है। जैसे कोई पुरुष कर्मसे किसीको दुःख नहीं पहुंचाता, तो यह अहिंसाकी साधना होगी। मनमें चाहे वह कई सूक्ष्म हिंसारूप संकल्प करता रहे उसके अंतःकरणमें दूसरोंके विषय में उपेक्षा, अवज्ञा होती है; अपनी अच्छाइयोंपर सद्गुणोंपर अभिमान करता है; मान, बडाई और प्रतिष्ठासे विलग नहीं हो पाता दंभ, दर्प और कठोरता उसके अंतःकरणमें घर बनाये रखते है: वाणीसे भी कभी आगेपीछे किसीके विषयमें कुछ कह सकता है। है तो यह अहिंसाकी साधना ही, पर इस अहिंसाका कोई खास मूल्य नहीं। 

इसी साधनाको करते हुए अगर प्रेमका साथ मिल जाए तो अहिंसाका रूप और भी निखर आएगा। परंतु ऐसा प्रेम अखिल प्राणीमात्रके लिए मानवके अंतःकरणमें विशिष्ट साधनके बिना उत्पन्न नहीं हो पाता। सबसे पहले नित्य और अनित्य वस्तुका विवेक होना चाहिए और इस विवेकके सहारे जब सृष्टितत्वोंका यथार्थ और निष्ठारूप ज्ञान हो जाए, विशेषकर उस विश्वाधार, विश्वपालक परमात्माके विषय में पूर्ण जानकारी हो, तब उस प्रेमका उदय होगा जो प्रेम अखिल प्राणियोंके लिए निष्काम और समान होता है। 

उस प्रेमके आधारपर अहिंसाकी साधना आरंभ की जाए तो अंतःकरण सहित अहिंसाका भाव अपनी संपूर्णतातक पहुंचेगा। वहां उस परिस्थिति में न मनमें हिंसाके संकल्प- विकल्प रहेंगे और न वाणीसे हिंसामय शब्दोंका उच्चारण, न कर्मसे प्रत्यक्ष हिंसा । एवं प्राणी मात्रके लिए चाहे वह मानव हो चाहे मानवेतर सबके लिए सार्वकालिक अहिंसाके भाव फलित होंगे। ज्ञानके द्वारा प्रेम और प्रेमके आधारपर की जानेवाली अहिंसाकी साधनाका परिणाम भी अहिंसा है और साधना भी। 

किंतु साधनाकी अवस्था में अहिंसाका भाव अपूर्ण हुआ करता है और परिणामकी अवस्थामें वह पूर्ण हो जाता है। ज्ञान व प्रेमसे रहित केवल अहिंसाकी साधनाके अंदर परिणाम अहिंसामय नहीं होता; क्योंकि वहां मनमें या मन औ वाणी में हिंसाकी भावना शेष रहती है। जैसे कि, पीछे साधनाके अंदर कहा गया था, ज्ञानके द्वारा निर्माण होनेवाला प्रेम निःसीम, अपार, अटूट और अखण्ड हुआ करता है, इसलिए अहिंसाका भाव भी शाश्वत बना रहेगा। ऐसा प्रेम निर्माण हो जानेपर स्वाभाविक ही अहिंसाका भाव बन जाता है। 

इसलिए अहिंसा ज्ञानके सहित प्रेमका परिणाम है। इसके विपरीत अहिंसाकी साधनासे निर्माण होनेवाला अहिंसाका भाव सार्वकालिक नहीं होगा; क्योंकि उस अंतःकरणमें और जीवात्मामें हिंसा के बीज विद्यमान है। समय पाकर वे फिर प्रकटरूपमें सामने आ जाएंगे। अर्थात् जबतक मनुष्य अपने अहंभावोंको दूर नही करता ये अहंभाव धन,यौवन, विद्या, बल, अधिकार, ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा, तपश्चर्या आदि कई प्रकारके होते हैं - तबतक वह पूर्ण अहिंसक नहीं बन सकता। एक कविने ठीक ही कहा है- मिटा दे अपनी हस्तीको अगर कुछ मतंबा चाहे।

दाना खाकमें मिलकर गुले गुलजार होता है। अर्थात-ऐ मनुष्य ! अगर ऊपर उठना चाहता है, अपना कल्याण चाहता है, तो तू अपने अहंपनको मिटा दे। देख, फूलोंके पौधेका बीज मिट्टीमें मिलनेके बाद ही सुंदर फूलोंका निर्माण किया करता है, जिन्हें देखकर मनुष्यका मन प्रसन्नतासे फूल उठे सारांश, ज्ञान और प्रेमके सहित अहिंसाकी साधनोका परिणाम भी अहिंसा होनेसे अहिंसा साधना भी है और परिणाम भी ।

साधारण मनुष्य अहिंसाके इस शिखरतक न पहुँच पाये तो कम-से-कम उसे अहिंसाकी साधना कर्तव्यबुद्धिसे अवश्य निभानी चाहिए। मन, वाणी और कर्मसे किसीको दुःख पहुँचाना हिंसा है। अपनी ओरसे दुःख पहुंचाया जाए, तो भी हिंसा है और दूसरेके द्वारा दुःख पहुँचानेका प्रयत्न किया जाए, तो भी हिंसा है। किसीको हिंसाके कार्य में उत्तेजना, अनुमति या प्रेरणा दी जाए तो भी हिंसा ही है। इन सभी हिंसाओंसे मानवमानव को बचानेके लिए अहिंसाकी शिक्षा देनी चाहिए। 

यह शिक्षा वे पुरुष ही दे सकेंगे जिन्होंने इस अहिंसाके भावको अच्छी तरहसे समझ लिया हो और स्वयं इस अहिंसाका पूर्णरूपसे आचरण करते हों। एक दिनका प्रसंग है-मै टैक्सीमें जा रहा था। टैक्सीवालेसे किसी ऐक्सीडेंटकी बात चल पड़ी। पीछेसे बस आ रही थी। मैने उसे कहा, 'संभल कर चलो। आप बचोगे तो दूसरोंको भी बचाओगे कम-से-कम अपने आपको बचाने के लिए तो सावधान होकर चलना चाहिए। तुम बचोगे, तो तुम्हारे द्वारा होनेवाले अपघातसे दूसरे भी बच जाएंगे।' तात्पर्य जो स्वयं हिंसा जैसे घोर पापसे बचेंगे, वे ही दूसरोंको बचा सकेंगे।

अध्यात्म-तत्वके इस प्रेममय अहिंसाके संयोग से मिलनेवाला आनंद भी निःसीम है। इस बातका अनुभव करनेके लिए एक दलील ध्यानमें रखें : मनुष्य दस-पांच व्यक्तियोंके परिवारमें रहता है, उस परिवारसे प्रेम होनेके कारण वह उस सुखमें फूला नहीं समाता तो जहां जिस अंतःकरणमें न केवल मानवमात्रके लिए ही नहीं अपितु प्राणीमात्रके लिए शुद्ध और संपूर्ण प्रेमकी धारा अखण्ड बहती हो उस अंतःकरणमें अक्षयआनंदका सागर ही तो ठाठें रहेगा, जिसका अनुभव आप भी कर सकते हैं।

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भाग 01 धर्म और विज्ञान


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